क्या ईश्वर किसी जीवात्मा से पक्षपात करता है?

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ओ३म्

पक्षपात वहीं सत्ता या व्यक्ति करता है जो अज्ञानी, अल्पज्ञानी, स्वार्थी, मक्कार, कामी आदि अवगुणों से युक्त है। यदि किसी मनुष्य या सत्ता में गुणों की पराकाष्ठा हो तो वह कोई गलत काम नहीं कर सकता। ईश्वर में सभी सद्गुण पराकाष्ठा की सीमा तक हैं और उसमें कोई अवगुण है ही नहीं तो फिर उसके पक्षपात करने का प्रश्न ही नहीं उठता। संसार में ईश्वर, जीव व प्रकृति, तीन पदार्थों का अस्तित्व है जिनमें जीव का गुण व धर्म जन्म व मृत्यु को प्राप्त होना और मृत्यु के बाद फिर पुनर्जन्म लेकर कर्मों को करना व अवशिष्ट कर्मों जिन्हें प्रारब्ध या कर्माशय कहते हैं, के भोग करने के लिए पुनः नई योनि को प्राप्त होना है। हम देखते हैं कि कोई जीवात्मा मनुष्य योनि में जन्मा है तो कोई पशुओं की अनेकानेक योनियों में अथवा कोई कीट या पंतग योनि में। मनुष्य योनि में भी एक जीव किसी धनवान के यहां, कोई निर्धन विद्वान के यहां तो कोई अज्ञानी, निर्धन व शोषित माता-पिता के यहां जिनके पास अपने निर्वाह के लिये न तो भूमि व मकान है और न सुख के अन्य साधन। इसे देख कर लगता है कि ईश्वर पक्षपाती है। आईये, इसी विषय पर विचार करते हैं।

पक्षपात कहां हुआ करता है? पक्षपात अपने व परायों के प्रति होता है। हम अपनों को अधिक सुख सुविधाायें देना चाहते हैं और दूसरों व परायों को कुछ कम या बिलकुल नहीं। ऐसा स्वार्थ व अज्ञान के कारण होता है। ईश्वर सर्वज्ञ होने से पूर्ण ज्ञानी है। सभी जीवन व प्राणी उसके अपने हैं। उसको अपना कोई स्वार्थ भी नहीं है। अतः वह किसी के प्रति पक्षपात कर सकता है, यह सम्भव नहीं है। हम फिर भी देखते हैं कि समाज में नाना प्रकार की विभिन्नतायें है। अमीरी व गरीबी है, स्वस्थ व रोगी जन हैं, बलवान व निर्बल हैं, अज्ञानी व शिक्षित हैं, साधन सम्पन्न व साधनहीन व्यक्ति हैं, सनाथ व अनाथ बच्चे व बड़े हैं, यह और ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिनसे लगता हैं कि ईश्वर ने इन लोगों के बीच में पक्षपात या भेदभाव किया है। यह बात सही हो सकती थीं यदि एक से अधिक ईश्वर होते और जीव व प्राणी उनमें आपस में बंटे हुए होते। तब तो यह सम्भव था कि एक ईश्वर दूसरे ईश्वर के जीवों व प्राणियों व बन्दों के साथ पक्षपात करता व अपनों को सुख तथा दूसरों को दुख देता। आजकल देश व दुनियां में अनेक मत व सम्प्रदाय हैं। यह अपने आप को धर्म या मजहब भी कहते व कहलाते हैं। इन्होंने अपने यहां यह प्राविधान कर रखा है कि यदि उनका अपना व दूसरा धर्म वाला उनके ईश्वर व सन्देश वाहक पर विश्वास करता है तो फिर उसके सभी पाप व बुरे कर्म माफ कर दिये जायेंगे और वह सुखी, सम्पन्न व चंगा हो जायेगा। यह प्राविधान अपनी संख्या बढ़ाने के लिए ही किया गया है। ईश्वर ने तो साक्षात प्रकट होकर तो ऐसा किसी को कहा नहीं है। यदि वह ऐसा करता तो भी ज्ञानी व विवेकीजन यह कहते कि ऐसे शब्द कहने वाला ईश्वर हो ही नहीं सकता। वह तो एक अति साधारण व्यक्ति जिसका मन संकीर्णता से भरा है, वह ही ऐसा कर सकता है। ईश्वर तो वह हो सकता है जहां यह दावा हो कि मनुष्य किसी भी मत का क्यों न हो, ईश्वर पक्षपात किसी के प्रति नहीं करता अर्थात् सबके प्रति न्याय करता है। न्याय में यह बात भी सम्मिलित है कि ईश्वर किसी के पापों को क्षमा नहीं करता। यदि ऐसा करेगा तो वह पक्षपाती हो जायेगा। न्यायकारी के लिए सर्वथा पक्षपात शून्य होना आवश्यक है। वैदिक धर्म में ही यह भावना है कि ईश्वर पक्षपात शून्य और न्यायकारी है तथा वह अपने अनुयायियों के पापों को क्षमा नहीं करता। इसका कारण क्या है कि वैदिक धर्म ईश्वर प्रेरित व प्रदत्त तथा पारदर्शी व साक्षात्कृत-धर्मा ऋषियों द्वारा प्रवर्तित धर्म व मत है। हम देखते हैं कि विभिन्न मतों वा तथाकथित धर्मों में सबने अपने-अपने ईश्वर, ईश्वर के दूत, सन्देशवाहक, अवतार आदि बना रखे हैं। सभी बड़े बड़े दावे करते हैं परन्तु परीक्षा करने पर वह सभी दावें खोखले सिद्ध होते हैं। यह बात इस उदाहरण से भी सिद्ध होती है कि एक धर्म का व्याक्ति खेल में दूसरे धर्म के व्यक्ति या व्यक्तियों से प्रतिस्पर्धा करता है। कभी एक धर्म वाला जीत जाता है और कभी विरोधी धर्म वाला। यदि ईश्वर अलग-अलग होते तो हमेशा शक्तिशाली ईश्वर का अनुयायी ही विजयी हुआ करता। इससे यह सिद्ध होता है कि दोनों का ईश्वर एक है और जो अधिक विवेकी, पुरषार्थीं, पात्र, योग्य व दक्ष है, विजय उसी को होती है।

हमने देखा कि ईश्वर के सब अपने हैं, कोई पराया नहीं है, अतः वह किसी के प्रति भी पक्षपात नहीं करेगा। यदि करेगा तो फिर वह ईश्वर नहीं हो सकता, वह तो एक अज्ञानी, मूर्ख, स्वार्थी, पक्षपाती, अन्यायी कहलायेगा। यदि ऐसा है तो समाज में जीवों में परस्पर भिन्नता क्यों दिखाई देती है। इसका कारण हमारे शास्त्र और धार्मिक विज्ञान जीवात्मा के इस जन्म व पूर्व जन्म के कर्मों को बताते हैं। हम जैसा कर्म करते हैं वैसा ही हमें फल मिलता है। फल की व्यवस्था ईश्वर के द्वारा की गई है। गीता में कहा गया है कि अच्छे कर्म करो और फलों की इच्छा मत करो। किसी ग्रन्थ में कहा गया है कि अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। अर्थात् जो जैसे कर्म करेगा, उसे उसके फलों को अवश्य ही भोगना पड़ेगा। वह कर्म के फल से बच नहीं सकता। ऐसा कैसे होता है। इसका कारण ईश्वर का सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी होने से सब जीवों व प्राणियों के सभी कर्मो का साक्षी होना है। अब यदि कोई न्यायाधीश के सामने ही अपराध करे या अच्छा काम करें तो उन्हें अपराध की सजा और अच्छा काम करने का पुरूस्कार तो मिलेगा ही। ईश्वर को न तो गवाह की आवश्यकता है और न किसी वकील या अधिवक्ता की। वह अधिवक्ता भी स्वयं है, साक्षी भी और न्यायाधीश भी। अतः वह सबके सब कर्मों का ज्ञाता व साक्षी होने के कारण यथासमय, इस जन्म का इस जन्म में व भविष्य के अनेक जन्मों में भी कर्म के परिमाण व प्रकृति के अनुसार दण्ड या पुरूस्कार देता है। जब हमारे या किसी अन्य के सामने पूर्व जन्मों का फल आता है तो हम दण्ड मिलने पर विचलित हो जाते हैं और ईश्वर व मित्रों से शिकायत करते हैं कि पता नहीं ईश्वर हमें यह किस जन्म का दण्ड दे रहा है? इससे समाज में ईश्वरकृत जो भिन्नता, असमानता या अन्तर दिखाई देता है उसका समाधान हो जाता है। प्राणियों में भिन्नता का सबसे बड़ा कारण हमारे पूर्व जन्मों के कर्म हैं जिन्हें हम तो पूरी तरह से भूले हुए हैं परन्तु ईश्वर को सब कर्म स्मरण या ज्ञात हैं। पूर्व जन्म के कर्मों वा प्रारब्ध के अनुसार ही हमें वा दूसरों को यह जन्म मिला है और हमारे इस जन्म के कर्मों के आघार पर ही हमें मृत्यु के पश्चात अगला जन्म मिलेगा जो कि मनुष्य का भी हो सकता है अथवा अनेकानेक योनियों में से किसी एक योनि में। यह कर्म फल व्यवस्था मनुष्यों की दृष्टि में बहुत ही जटिल लगती है जिसका कारण हम जीवों की अल्पज्ञता है। अतः एक समझदार व्यक्ति की तरह हमें ज्ञानी, विवकेशील होना चाहिये और भविष्य की चिन्ता को करते हुए ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये जिससे हमें भविष्य में उन परिस्थितियों में जीना पड़े जिन्हें हम अपने लिए पसन्द नहीं करते। उदाहरण के रूप में देख सकते हैं कि सरकारी कार्यालय में काम करने वाला अधिकारी नहीं चाहता की उसे नौकरी से निकाला जाये। उससे उसका जीवन दुखों से भर सकता है, परन्तु यदि वह अपना कार्य सत्य निष्ठा से करता है तो उसकी नौकरी सुरक्षित रहती है और यदि बुरा काम, काम-चोरी या रिश्वत आदि लेता है और उसकी शिकायत होती है या पकड़ा जाता है तो नौकरी से पृथक कर दिया जाता है। इस उदाहरण के प्रकाश में हमें इस जीवन में कोई अनुचित कार्य नहीं करना चाहिये। अच्छे काम अर्थात् सद्धर्म या सत्कर्म क्या हैं तो इसे जानने के लिए वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिये जिससे हम भविष्य व परजन्म में दुख देने वाले कर्मों के फलों से बच सके।

यह समझ लेने पर कि संसार के प्राणियों में देश, काल, परिस्थितियों के कारण जो भिन्नतायें व असमानतायें हैं उसका कारण हमारे पूर्व जन्म व इस जन्म के कर्म हैं, ईश्वर पक्षपात के आरोप से मुक्त हो जाता है। हमें यह ज्ञान होता है कि जो जैसा बोता है वैसा ही काटता है। हमारे इस जन्म के सभी सुख व दुख हमारे इस जन्म व पूर्व जन्मों में किए हुए अच्छे-बुरे कर्मों के परिणाम हैं।  हमारे भावी जीवनों और प्राणी-योनियों में मिलने वाले हमारे सभी सुख व दुख भी हमारे वर्तमान व पूर्व कर्मों के अनुसार होगें।  आईये, महर्षि दयानन्द द्वारा आर्य समाज के दूसरे नियम में वर्णित ईश्वर के स्वरूप पर दृष्टि डालते हैं। उन्होंने लिखा है कि ईश्वर सत्यचित्तआनन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। अन्यत्र उन्होंने ईश्वर के अनेकानेक व अन्य गुणों का वर्णन भी किया है। ईश्वर पर पक्षपाती होने का आरोप निराधार सिद्ध होता हैं। हमें अपने अन्दर झांकना चाहिये और अपनी त्रुटियों को दूर करना चाहिये।

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