राजनीति

दो सिंहों की लड़ाई में मेमना बनता छत्तीसगढ़

– पंकज झा

एक लोकोक्ति है ‘जब दो बैल आपस में लड़ते हैं तो नाहक फसल खराब होता है’. शायद सांड के बदले बैलों का कहावत में उपयोग इसलिए किया गया है क्योंकि बैल से यह अपेक्षा की जाती है कि उसके मेहनत का उपयोग पैदावार बढाने में हो. उसके ऊर्जा का अनावश्यक इस्तेमाल करने के बदले हल चलवा कर शस्य श्यामला भूमि की हरियाली कायम रखी जाय. नेताओं से भी ऐसे ही ‘हल’ तलाशने की उम्मीद ही की जाती है. गैरज़रूरी कोला-हल कर नफरत के फसल को बढावा देना कहीं से भी उचित नहीं है. ऐसे किसी भी विमर्श में अंततः हला-हल जनता के हिस्से ही आता है. बात अभी मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह और मुख्यमंत्री रमन सिंह के बीच बहस की हो रही है. लोकतंत्र पर आये इस सबसे बड़ी चुनौती जिसे नक्सलवाद कहते हैं, में दिखना तो यह चाहिए था कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियां एक साथ कदमताल कर रही है. तरीके से मामला नक्सलवाद बनाम लोकतंत्र का होना चाहिए था. लेकिन अनावश्यक ढंग से इसको कांग्रेस बनाम बीजेपी का मामला बनाने का प्रयास किया जा रहा है. इस मामले में आप भरोसे के साथ दोष इस बहस को शुरू करने वाले दिग्विजय सिंह को ही दे सकते हैं. निश्चय ही उन जैसे नेता का अपने ही पार्टी के खिलाफ या फिर नक्सलवाद के पक्ष को मज़बूत करने वाला कुछ भी लिखना माफ तो नहीं ही किया जा सकता.

हाल तक एक बड़े पुलिस अधिकारी और कथित नक्सली प्रवक्ता के बुद्धि विलास से बड़ी मुश्किल से मुक्ति मिली थी छत्तीसगढ़ को. हालाकि उस बहस के बाद भी पुलिस अधिकारी के छपास का जो दौर चलता रहा वह अंततः 76 शहीदों के काल-कवलन के बाद भी नहीं रुका. पहले तो पुस्तकालयों में सड़-गल गए, दीमकों का शिकार होने से बमुश्किल बच गए मार्क्स के पन्नों को खोज-खोज कर निकाला गया. उसका रंग-रोगन कर दोनों पक्षों द्वारा अपनी-अपनी शेखी और ज्ञान बघारने के लिए जम कर उपयोग किया. और बात जब उससे भी नहीं बनी तब शुरू हो गया इस भयंकर मुद्दे पर ‘विचार’ के बदले समाचारों की कमेंट्री. 20-20 क्रिकेट के तर्ज़ पर ही ‘इंडियन पुलिस लीग’ के समाचारों से पन्ने-के-पन्ने रंगे जाने लगे. बस फलाने तारीख को हमला हो जाएगा. अब यहां तक पहुच गयी है फौज. कथित ग्रीन हंट फलाने दिन से शुरू, आदि-आदि. खैर…ऐसा कोई हमला ना होना था ना हुआ. जब हुआ भी तो इकतरफा नक्सलियों के तरफ से और देश के 76 जवानों की शहादत हो गयी. और उसके बाद फिर बीजापुर में आधा दर्ज़न जवानों की शहादत. लोकतंत्र के साथ सबसे बड़ा खिलवाड यह कि अपने ही गृह मंत्री द्वारा “सेना का उपयोग करने सम्बंधित” बयान का पुलिस अधिकारी द्वारा खंडन कर तो ऐसा लग रहा है मानो इस प्रदेश में तमाम लोकतांत्रिक मर्यादाओं की ही धज्जियां उडाई जा रही है….! बहरहाल.

लेकिन इन शब्द्युद्धों से भी ज्यादे आपत्तिजनक है, और बड़े लोगों द्वारा ‘मोर्चा’ सम्हाल लेना. वैसे रमन सिंह को ज़रूर इस मामले में दोषी नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि जब ऐसे-ऐसे हादसे पर भी दिग्विजय जैसे लोग अपनी गंदी राजनीति करने से बाज़ नहीं आते तो किसी का खून खौलना स्वाभाविक है. कहते हैं ‘अति संघर्षण कर जो कोई अनल प्रगट चंदन ते होई’. सामान्यतः अपने धैर्य एवं भलमनसाहत के लिए जाने-जाने वाले रमन सिंह भी अगर लेख में वर्णित “बौद्धिक बेईमान” या ऐसे कटु शब्दों का इस्तेमाल करने पर मजबूर हुए हैं तो इस अभागे प्रदेश को उसके हालत में पहुचाने के जिम्मेदार पूर्व मुख्यमंत्री के करतूत को समझा जा सकता है. जैसा कि सब जानते हैं कि नेताओं की खाल मोटी हुआ करती है. लेकिन दिग्विजय का यह बयान कि बस्तर का विकास ना होना या उसकी उपेक्षा होना नक्सलवाद के लिए जिम्मेदार है, या यह कि यह क़ानून व्यवस्था का मामला है. ऐसे शब्दों का इस्तेमाल उस राज्य के खिलाफ करना जिसका वो खुद आधे से ज्यादा दशक तक मुख्यमंत्री रहे हों. या फिर अपनी ही पार्टी के गृह मंत्री को अक्खर या घमंडी कहना वास्तव में बेशर्मी की हद है. ऐसी हद है जिसका कोई सानी नहीं. शायद चिकित्सकों को दिग्विजय के चमड़ी की जांच करनी चाहिए कि आखिरकार वह भी सामान्य कोशिका या उसके समूह उत्तकों से ही बनी है या उसके लिए कोई अन्य धातु इस्तेमाल किया गया है.

यह देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि आदिवासी इलाकों में फैले नक्सलवाद का सबसे बड़ा कारण इन क्षेत्रों का शोषण, अनियंत्रित दोहन एवं यहां के संसाधनों से भोपाल और दिल्ली को गुलज़ार कराना रहा है. साथ ही साथ सरकारी संरक्षण में व्यापारियों द्वारा किया गया लूट-खसोट तो जिम्मेदार है ही. आखिर मध्य प्रदेश से अलग कर एक नए राज्य बनाने का कारण ही तो यही था कि अब कम से कम यहां के संसाधनों का, यहां के माटी पुत्रों के हित में उपयोग किया जायगा. अगर दिग्विजय की यह बात सही भी हो कि पहले के मुकाबले अब नक्सल हिंसा में काफी वृद्धि हुई है तो सीधी बात यह है कि पहले नक्सलियों को कोई चुनौती नहीं थी. दिग्विजय के राज में या उससे पहले के कांग्रेसी सल्तनत में मोटे तौर पर महाभारत के उस कथानक की तरह जिसमें गांव वालों ने राक्षस से समझौता किया था उसके लिए कुछ नरमुंड और अन्य संसाधन उपलब्ध कराते रहेंगे. ऐसा ही अघोषित समझोता जैसा यहाँ भी था कि इस नक्सल नामधारी नए राक्षसों को कोई चुनौती नहीं देंगे. और उसके बदले नागरिकों के जान और उनकी कुर्सी सलामत रहेगी. अब लोकतंत्र रूपी ‘भीम’ का इन अमानुषों से सामना हुआ है. तो नक्सलियों का बौखलाना अस्वाभाविक नहीं है. उनका हिंसा पर हिंसा करना कोई अप्रत्याशित बात नहीं है. इस हिंसा को ‘दीये के बुझने से पहले की चमक’ कहा जा सकता है.

हां अगर अप्रत्याशित कुछ है तो दिग्विजय सिंह समेत सभी कलाम्वीरों का आलेख या अन्य बयान. जाहिर सी बात है कि दिग्विजय जैसे छत्तीसगढ़ के गुनहगारों सि ऐसे मामले पर कम से कम चुप रह जाने की अपेक्षा तो की ही जा सकती है. खास कर यह तय है कि अब एक अन्य प्रदेश के प्रभारी और अपने प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के साथ-साथ कांग्रेस के महासचिव होने के कारण पेट भरने लायक काफी कुछ है उनके पास. अगर छत्तीसगढ़ को उनसे छीन भी लिया गया है तब भी राजनीतिक भुखमरी की नौबत तो नहीं ही है उन्हें. लेकिन वह नेता ही क्या जिसकी लिप्सा का अंत हो जाय ! आखिर ‘ययाति’ ने ही तो फिर से धरती पर इन जैसे लोगों के रूप में जनम लिया है. दिग्विजय सिंह से यह अनुरोध किया जाना उचित होगा कि कृपया अब छत्तीसगढ़ को बक्श दें. सत्ताधारी बीजेपी के अलावा उनकी पार्टी के भी बहुत लोग हैं यहां जो इस प्रदेश की चिंता कर सकते हैं. यह प्रदेश आराम से श्री सिंह के बिना भी ज़िंदा रह सकता है. साथ ही रमन सिंह से भी यह अनुरोध किया जा सकता है कि वह भी अपना मूल काम करें. अच्छा प्रशासन दें. नक्सलियों से मुक्ति हेतु रणनीति बनाए और उसका अमल करवायें. लेखों द्वारा छत्तीसगढ़ का पक्ष रखने वालों की कमी नहीं है इस प्रदेश में.

हां…बड़े नेता भले ही नूराकुश्ती कर रहे हो. लेकिन सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने ज़रूर अपनी बुद्धिमत्ता और सरोकारों से देश-प्रदेश और लोकतंत्र को गौरवान्वित ही किया है. वास्तव में उम्मीद सबसे ज्यादा इन आम लोगों पर ही है. हाल ही में तमाम राजनीतिक मतभेदों को भुला कर बीजेपी और कांग्रेस समर्थित छात्र संगठनों ने जेएनयू के देशद्रोही लफंगों से लेकर रायपुर, बस्तर और दांतेवाडा तक बुद्धिजीवियों तक का सामना किया है. उससे यह स्थापित हुआ है कि मामला ‘बीजेपी बनाम कांग्रेस’ का नहीं बल्कि ‘लोकतंत्र बनाम नक्सलवाद’ का है. देश के मुख्यधारा के छात्रों की इस मामले में जितनी तारीफ़ की जाय कम है. यही वो लोग हैं जो देश को हर चुनौतियों से सामना करने का बल प्रदान करेंगे. यही लोग देश की ताकत भी है. यही लोग यह उम्मीद भी जगाते हैं कि देश में ‘लोकतंत्र’ कायम रहेगा, जेएनयू, नक्सलियों और दिग्विजय सिंह के बावजूद भी.