आखिरी बाजी!

शिवशरण त्रिपाठी
लखनऊ। अन्यान्न कारणों से समाजवादी पार्टी में अर्से से मची अंर्तकलह अंतत: बाप बेटे के बीच आकर केन्द्रित हो गई है। बीते एक सप्ताह में तेजी से घटे घटना क्रम का अंत क्या होगा उसका परिणाम जल्द ही आ जायेगा। आखिरी राजनीतिक बाजी बाप बेटे में किसके हाथ लगेगी यह तो अभी कह पाना थोड़ा मुश्किल है पर हालात गवाही दे रहे हैं कि अंतत: इस जंग में बाप बेटे दोनो ही मात खाने को मजबूर होगें।
राजनीतिक सूत्रों/पर्यवेक्षकों व हालात के मद्देनजर सपा की जंग कुनबे के अगुवा सपा प्रमुख श्री मुलायम सिंह यादव के उत्तराधिकार के साथ ही साथ पार्टी व सत्ता पर कब्जा जमाने व जमाये रखने को लेकर है। यदि ऐसा न होता श्री यादव के कल तक एक मात्र पुत्र एवं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव अपने पिता एवं समाजवादी पार्टी के संस्थापक/अध्यक्ष श्री मुलायम सिंह यादव को अधिवेशन बुलाकर खुलेआम राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से बर्खास्त करने की हिम्मत तक न जुटा पाते। कहीं से जब उन्हे लगने लगा कि कल सत्ता उनके हाथ से छीनी जा सकती है। हो सकता है कि पिता व चाचा की चुनावी रणनीति से पार्टी ही दुबारा सत्ता में न लौट पाये तो अंतत: उन्होने उस पिता पर ही हमला बोल दिया जिसने उन्हे यहां तक पहुंचाने के लिये नामालूम कितने संघर्ष व जतन किये थे। नामालूम कितने रिश्ते दांव पर लगाये थे और नामालूम कितने नजदीकियों से तीखे शब्द बाण झेले थे।
राजनीतिक सूत्रों के अनुसार नये वर्ष के दिन रविवार को जनेश्वर मिश्र पार्क में जो कुछ हुआ उसके कितने घातक परिणाम निकलेगें उसका आकलन शायद न ही मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव को है और न ही राजनीतिक गुरू व मसीहा की भूमिका अदा करके उन्हे उकसाने वाले उनके चचेरे चाचा प्रो. राम गोपाल यादव को ही है। भला कौन यह सत्य स्वीकार नहीं करेगा कि श्री अखिलेश यादव की ही तरह यदि प्रो. राम गोपाल यादव सपा की राजनीति में एक अहम स्तम्भ बनने में कामियाब रहे, एक सफ ल सासंद बनने में सफ ल रहे हंै तो इसके पीछे श्री मुलायम सिंह यादव की रणनीति व उनका वरदहस्त रहा है।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि श्री मुलायम सिंह यादव के परिवार में उनकी दूसरी पत्नी का हस्तक्षेप भले ही पर्दे के पीछे से सही, कहीं न कहीं से बढ़ता ही जा रहा है। जिस तरह उनकी बहू अर्पणा यादव ने लखनऊ की छावनी विधान सभा सीट से २०१७ का विधान सभा चुनाव लडऩे का निर्णय लिया और बीते कोई ६ महीने से वह तैयारियों में जुटी हुई है इसके पीछे उनके ससुर श्री मुलायम सिंह यादव का वरदहस्त न हो यह कतई अंसभव है। ऐसी स्थिति में श्री अखिलेश यादव द्वारा छावनी सीट से अर्पणा यादव का नाम गायब कर देना इस बात का प्रमाण है कि राजनीति में पैर जमाना उन्हे नहीं सुहा रहा है। कौन पत्नी नहीं चाहेगी कि उसका पति उसके हर अधिकार की रक्षा करें और कौन मां नहीं चाहेगी कि उसका पुत्र और उसकी पुत्र वधू भी सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे।
सूत्रों ने स्मरण कराया कि सन् २००० में जब सपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो कयास लगने लगे थे कि श्री मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश की सत्ता की बागडोर अपने अनुज श्री शिवपाल सिंह को सौपकर स्वयं केन्द्र की राजनीति करेंगें। कोई यह भी कह रहा था कि श्री यादव अपने खास अल्पसंख्यक वर्ग के श्री आजम खां को भी मुख्यमंत्री की कुर्सी सौप सकते हैं पर इन कयासों को धता बताते हुये जब श्री यादव ने अपने पुत्र श्री अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान कर दिया तो उनके खास ही नहीं सूबे के लोग तक भौचक रह गये। ऐसे में मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार व सम्भावित दावेदार श्री शिवपाल सिंह यादव व श्री आजम खां को भारी धक्का लगा। लोगो को याद होगा कि तब यह भी कहा जाने लगा था कि पार्टी दो फ ाड़ हो जायेगी पर ऐसी विपरीत दिखती परिस्थतियों में भी श्री मुलायम सिंह यादव ने न केवल सबकुछ करीने से संभाल लिया था वरन् नाराज श्री शिवपाल सिंह व श्री आजम खां को श्री अखिलेश के मंत्रिमंडल ने शामिल करवाकर उन्हे उनका सहयोगी भी बनवा दिया था।
राजनीतिक सूत्रों के अनुसार पहला साल तो बतौर मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने प्रदेश व प्रदेश की राजनीति, नौकरशाही आदि की कार्यप्रणाली समझने बूझने के साथ अपनी सरकार की प्राथमिकताएं तय करने में गुजारा। उसके बाद उन्होने निर्णय लेने शुरू किये। तीसरा साल आते-आते श्री अखिलेश यादव की छवि एक काम करने वाले बेदाग मुख्यमंत्री की बनने लगी। हालांकि इस दौरान सूबे में कई बार छुटपुट दंगे भड़के, बड़ी अपराधिक घटनाएं भी बढ़ी पर उन्होने हालातों का हर संभव मुकाबला किया और विपरीत परिस्थितियों में सरकार बचाने में सफल रहे। इस दौरान सपा प्रमुख श्री मुलायम सिंह यादव मौके-बेमौके उन्हे डांटते व फ टकारते रहे व उनके कामकाज पर कभी-कभी कहीं ज्यादा तल्ख टिप्पणियां भी करते रहे पर मुख्यमंत्री श्री यादव उसे सहज ढंग से पार्टी के साथ एक पिता के नाते स्वीकारते रहे।
सूत्रों का कहना है कि चौथा वर्ष आते-आते परिवार में आपसी टकराव की प्रतिध्वनिया तेज होती गई। अपनी छवि व अपने काम के सहारे सियासी रूप से लगातार ताकतवर बनते गये श्री अखिलेश यादव ने न केवल सपा प्रमुख श्री मुलायम सिंह यादव के फ रमानों की अनसुनी शुरू कर दी वरन् उनके परामर्श के बगैर स्वयं बड़े निर्णय लेने लगे। नतीजतन टकराव तेज होता गया। स्थितियां तब बेकाबू हो गई जब मुख्यमंत्री श्री यादव ने न केवल श्री मुलायम सिंह यादव के कई नजदीकियों को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया वरन् सगे चाचा श्री शिवपाल सिंह यादव के सभी विभाग छीन लिये। श्री मुलायम सिंह यादव के हस्तक्षेप के बाद स्थितियां कुछ सुधरी पर श्री शिवपाल सिंह यादव के मसले पर श्री अखिलेश के न झुकने पर सपा प्रमुख ने श्री अखिलेश यादव को सपा के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर श्री शिवपाल सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया।
सूत्रों के अनुसार चूंकि यह चुनावी वर्ष का आगाज था इसलिये श्री अखिलेश यादव को मात देने के लिये श्री शिवपाल सिंह यादव ने अपनी व्यू रचना शुरू कर दी उन्होने आजमगढ़ के बाहुबली मुख्तार अंसारी की पार्टी को सपा में दुबारा विलय करवाकर उनके भाई को उम्मीदवार भी घोषित कर दिया। इस पर श्री अखिलेश यादव ने एक बार पुन: कड़ा प्रतिवाद किया मामले सुलझता कि श्री शिवपाल ङ्क्षसंह यादव ने अपनी पसंद के लोगो को तरजीह देते हुये प्रत्याशियों की सूची जारी करनी शुरू कर दी और उनमें से मुख्यमंत्री की पसंद के कई नामों को काट दिया। मुख्यमंत्री ने जब इसका विरोध किया तो श्री यादव ने कह दिया सूची के नाम सपा प्रमुख श्री मुलायम सिंह यादव की सहमति से तय किये गये है।
जानकार सूत्रों का दावा है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कुछ ऐसा एहसास होने लगा कि यदि उन्होने अब भी अपने चाचा से समझौते किये तो हो सकता है कि आने वाले कल उनकी राजनीति के लिये भारी पड़ सकते है। अंतत: उन्होने अपने चचेरे चाचा प्रो. राम गोपाल को आगे कर नववर्ष के पहले दिन ऐसा खेल खेला कि न केवल सपा में कोहराम मच गया वरन् राजनीतिक हलकों में चर्चाएं बेहद गर्म हो गई।
पार्टी के विशेष राष्ट्रीय अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर पार्टी के संस्थापक व मुखिया व श्री मुलायम सिंह यादव के साथ ही प्रदेश अध्यक्ष श्री शिवपाल सिंह यादव को उनके पदों से हटा दिया गया। जहां श्री अखिलेश यादव स्वयं पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये वहीं प्रदेश अध्यक्ष उनके पसंदीदा श्री नरेश उत्तम बना दिये गये।
श्री अखिलेश यादव के ऐसा करते ही उन चेहरों की नकाबे भी उतर गई जो कल तक सपा प्रमुख श्री मुलायम ङ्क्षसंह यादव की चरण वंदना करते नहीं अघाते थे और जिनकी कृपा से ही अनेक की जिंदगियां सुधर गई है। अनेक राजनीति में प्रतिष्ठापित हो गये है। मसलन जिन श्री नरेश अग्रवाल को श्री मुलायम ङ्क्षसंह यादव ने राजनीति में पुर्नस्थापित किया वह कहते नजर आये ‘मै खुद ही नेता हूँ मै नेता जी के नाम पर नेता नहीं हूँ। श्री अहमद हसन, श्री किरनमय नंदा जैसे जो नेता जी की बदौलत लाल बत्ती वाले बन गये वे भी श्री अखिलेश यादव के पाले में खड़े दिखे। इसी तरह इटावा, मैनपुरी, फ र्रूखाबाद यानी जिन जिलों के सपा नेता श्री मुलायम सिंह यादव की बदौलत आज रूतबा गालिब करते घूम रहे है वे सपा प्रमुख की चरणरज लेकर ही आगे बढ़े है। ऐसे में यह कहावत सच ही है कि लोग चढ़ते सूरज को ही सलाम करते है।
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि फि लहाल सपा का अन्दरूनी संघर्ष ऐसे मोड़ पर आ गया है जहां से किसी भी पक्ष को वापस लौटने की गुंजाइश कम ही नजर आती है। फि लहाल यह संघर्ष चुनाव आयोग तक पहुंच गया है। दोनो ही पक्ष चुनाव में साइकिल चुनाव चिन्ह की मांग करते नजर आ रहे है। जिसे भी साइकिल चुनाव चिन्ह मिलेगा उसे बढ़त मिलनी तय है पर यदि साइकिल चुनाव चिन्ह जब्त कर लिया गया तो श्री अखिलेश यादव को भारी नुकसान भी उठाना पड़ सकता है।

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