आर्थिक अंधेरों के बीच उम्मीद के उजाले

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-ललित गर्ग-
कोरोना महामारी के कारण न केवल भारत बल्कि दुनिया की अर्थव्यवस्था डांवाडोल हुई है।   भारत में लॉकडाउन के बाद अर्थव्यवस्था की स्थिति पहले से ज्यादा बिगड़ी है। छोटे व्यापारियों का व्यापार ठप्प होने, नौकरी चले जाने, कमाई बंद होने के कारण आम व्यक्ति का आर्थिक संतुलन बिगड़ गया है, रोजमर्रा के खर्च के लिए प्रॉविडेंट फंड और बचत योजनाओं से पैसा निकालने वालों की संख्या तेजी से बढ़ी है। सोने का भाव रेकॉर्ड तोड़ बावन हजार रुपये प्रति दस ग्राम के पार चले जाना वित्तीय असुरक्षा एवं आर्थिक असंतुलन को दर्शाता है। इन आर्थिक असंतुलन एवं असुरक्षा की स्थितियों से उबारने केे लिये नरेन्द्र मोदी सरकार व्यापक प्रयत्न कर रही है, नयी-नयी घोषणाएं एवं आर्थिक नीतियां लागू की जा रही है, जिनसे अंधेरों के बीच उजालों की संभावनाएं दिखाई दे रही है।
रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने सोमवार को ऐसी ही संभावनाओं की चर्चा करते हुए आर्थिक संतुलन स्थापित करने के उन पांच कारकों की ओर ध्यान खींचा, जो आने वाले समय में आर्थिक उजाला बन सकते हैं। जिनमेें है कृषि, इन्फ्रास्ट्रक्चर, वैकल्पिक ऊर्जा, इन्फॉर्मेशन एंड कम्यूनिकेशन टेक्नॉलजी।  स्टार्टअप्स को उन्होंने ऐसे स्पॉट्स के रूप में चिह्नित किया जो मौजूदा आर्थिक चुनौतियों एवं खतरों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था को डूबने से बचाने की सामथ्र्य रखते हैं। जिनसे हमारी आर्थिक रफ्तार एवं आकांक्षा की उड़ान को तीव्र गति दी जा सकेगी। उनके द्वारा कहीं गयी बातों की उपयोगिता और उनके द्वारा चिह्नित क्षेत्रों में मौजूद संभावनाओं को भला कौन खारिज कर सकता है, लेकिन असल बात बड़ी चुनौतियों से निपटने एवं कृषि एवं ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था को पहचानने की है, जिसके बगैर बड़ी से बड़ी संभावना भी अभी के माहौल में खुद को साकार नहीं कर पाएगी।
अर्थ का कोमल बिरवा कोरोना के अनियंत्रित प्रकोप के साए में कुम्हला न जाये, इसके लिये इन संभावनाओं को रेखांकित करते हुए आरबीआई गवर्नर ने कृषि क्षेत्र में प्रस्तावित सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया है, लेकिन इसके साथ ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था को भी बल देने की जरूरत है। आरबीआई की प्रमुख प्राथमिकता देश की बैंकिंग व्यवस्था को बचाने की होनी चाहिए, क्योंकि यहां कोई बड़ा संकट शुरू हुआ तो किसी संभावना का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। ऐसे में धूर्त, चालाक, धोखेबाज और अक्षम कारोबारियों के विपरीत बहुत सारे वास्तविक उद्यमी भी धंधा बिल्कुल न चल पाने के कारण कर्ज वापसी को लेकर हाथ खड़े करने को मजबूर हो सकते हैं। इसके संकेत कई तरफ से मिल रहे हैं। इन स्थितियों पर नियंत्रण भी जरूरी है।
अर्थव्यवस्था के जानकारों के अनुसार भारतीय अर्थ व्यवस्था को स्वस्थ करने के लिये जरूरी है कि हम अपने बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं को पटरी पर लाने के सकारात्मक प्रयत्न करें। पिछले कई सालों से बड़े कर्जों के डूबने की स्थितियों ने हमारी बैंकिंग प्रणाली को तबाह कर दिया हैं। कुछ बड़े कारोबारी बैंकों से भारी-भरकम कर्ज लेकर विदेश भाग गये हैं, तो कुछ दिवालिया घोषित हो चुके हैं या इसके करीब पहुंच रहे हैं। सख्ती एवं तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद कर्जे की वसूली सपना ही बनी हुई है, जो अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने की एक बड़ी बाधा है। सरकारी बैंकों या बीमा कंपनियों में लगा धन एकाधिकारी, व्यावसायिक घरानों की खिदमत और बढ़ोतरी के लिए इस्तेमाल होना भले ही आर्थिक विकास की सुनहरी तस्वीर प्रस्तुत करता हो, लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से आर्थिक तनाव, हिंसा एवं असंतुलन का बड़ा कारण है। जिससे सामाजिक चेतना या न्याय भावना आहत होती है। इस बड़ी विसंगति एवं विडम्बना को दूर करने के लिये नरेन्द्र मोदी की आर्थिक नीतियों में छोटे व्यापारियों, कृषि एवं ग्रामीण उद्योगों को ऋण देने एवं स्टार्टअप्स को प्रोत्साहन देने के उपक्रम हो रहे हैं। लेकिन बैंकों के आर्थिक भ्रष्टाचार को नियंत्रित किये बिना मोदी की आर्थिक नीतियों को भी गति नहीं दी जा सकेगी। लोकतांत्रिक तत्वों से परिपूर्ण आर्थिक निर्णयों की खोज भी कम मुश्किल काम नहीं है।
कोरोना महामारी के कारण अर्थव्यवस्था हिल गई है, आर्थिक जीवन ठहर सा गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 20 लाख करोड़ की योजनाओं की घोषणा के साथ राष्ट्र को संबोधित किया ताकि बाजार जीवन्त हो उठे, उद्योग ऊर्जावान हो जाये, ट्रेड बढ़ जाये, कृषि में नयी संभावनाएं जागे, ग्रामीण आर्थिक योजनाओं को बल मिले और भारत की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाये। लेकिन दूसरी ओर कोरोना ने पूरे समाज को निठल्ला भी बना दिया है। आम नागरिकों और सम्पन्न तबके के बीच की खाई गहरी हो गई है, गरीब की गरीबी बढ़ी है तो अमीर अपनी अमीरी को कायम रखने में सफल रहा है, ज्यादा मार मध्यम वर्ग की हुई है। कोरोना ने निर्धन को केवल आँसू दिये हैं और धनवान को धन देने के बावजूद जीवन के लुत्फ उठाने वंचित किया है। इन विकट स्थितियों के बीच संतुलित आर्थिक विकास की तीव्र अपेक्षा है।
हमारा लोकतंत्र और उसके बड़े प्रगतिशील आर्थिक कदम बड़े व्यावसायिक घरानों को कर्ज आनन-फानन में दे देते हंै लेकिन आम एवं उभरते हुए नये उद्यमियों एवं व्यापारियों के सामने कर्ज की अनेक औपचारिकताएं इतनी कठोर है कि वे चाह कर भी कर्ज नहीं ले पाते हैं।  न केवल व्यापारी बल्कि छोटे-छोटे कर्ज लेने में एक छोटे किसान की जूतियां घिस जाती हैं। बाजार की मांग और पूर्ति की स्थिति के आधार पर अर्थव्यवस्था में निवेश, उत्पादन, व्यापार आदि करने के लिए प्रोत्साहन की योजनाएं बनना एक बात है और उन योजनाओं का लाभ वास्तविक जरूरतमंदों तक पहुंचना दूसरी बात है। तमाम लुभावनी एवं आकर्षक आर्थिक योजनाओं एवं नीतियों के बावजूद करोड़ों लोग न्यूनतम आय एवं सरकारी योजनाओं से महरूम है। उनके पास इस आर्थिक विकास के सहभागी बनने के साधन और क्षमताएं नहीं हैं। सरकारी प्रयास इन तबकों के एक अति-लघु भाग को कुछ मदद करते हैं। मगर यह सहायता पाने वाली जनसंख्या से ज्यादा लोग एकाधिकार और बाजारपक्षीय सरकारी नीतियों-निर्णयों के कारण अर्थव्यवस्था के बाहर धकेल दिए जाते हैं। नतीजन, वोट के अधिकार से संपन्न होने के बावजूद करोड़ों लोग मानवीय-सामाजिक भागीदारी और क्षमताओं के विकास के अवसरों से वंचित रहते हैं।
मोदी की आर्थिक नीतियों एवं प्रक्रियाओं का निरंतर जारी रहना बदलाव के संघर्ष को दिन-प्रतिदिन सरल बनाये, व्यावहारिक बनाये, यह आत्म निर्भर भारत की प्राथमिक अपेक्षा है। इसी अपेक्षा के अजेंडा को आगे बढ़ाने की जरूरत पर रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने जोर दिया। उनकी बातों से यह विश्वास जीवंत हुआ है कि कोई नहीं रोक सकेगा मोदी की आर्थिक विकास की यात्रा में उठे कदमों को और कोई नहीं बांध सकेगा हमारी स्वतंत्र राष्ट्रीय चेतना को।

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