– पीयूष पंत
दंतेवाड़ा, लालगढ़, सिंगूर या फिर नियामगिरी- ये हैं कुछ ऐसे नाम जहां जनता अपनी आजीविका के प्रकृति प्रदत्त संसाधनों को देशी-विदेशी कंपनियों की गिद्ध-दृष्टि से बचाए रखने के लिए आर-पार की लउ़ाई लउ़ रही है। एक तरफ आंदोलनरत स्थानीय जनता है, तो दूसरी तरफ है उन्हें उनकी ही ज़मीन, उनके ही जंगलों और उनकी ही विरासत से बेदखल करने में इनकंपनियों की साजिश को अंजाम देती अपनी ही सरकारें। जनता के खि़ालाफ़ छेड़ी गई इस लड़ाई में मोहरा बनाया जा रहा है नक्सलवाद को। राज्यजनित हिंसा की उपेक्षा कर बहस सिर्फ़ माओवाद या नक्सली हिंसा पर केंद्रित कर सरकारें और देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियां दरअसल ‘विकास’ की उस अवधारणा से ही नज़रें चुरा रही हैं जो जनता की खुशहाली का वाहक होती है।
अपने अस्तित्व को बचाने में जुटी जनता के खि़ालाफ़ खोले गये मोर्चे की कमान संभाली है ऐसे दो सेनापतियों ने जिन्होंने दरअसल राजनीति का पाठ पढ़ा ही नहीं है। उन्होंने तो सिर्फ़ विश्व बैंक तथा एनरॉन व वेदांत सरीखी कंपनियों की चाकरी का पाठ ही पढ़ा है। इसीलिए उनकी मानसिकता भी अपने आकाओं को खुश करने की ही दिखायी देती है, भले ही इसके लिए उन्हें असंखय गांववासियों तथा आदिवासियों को बेदखल करना पड़े और उनके विरोध को अर्द्ध-सैनिक बलों के बूटों के तले रौंदना ही क्यूं न पड़े।
इतिहास गवाह है कि जीत हमेशा उनकी होती है जो अपने अधिकारों, अपनी अस्मिता व अपने देश की संप्रभुता को बरकरार रखने के संघर्ष में आगे आते हैं। संकेत देश के अनेक आदिवासी वग्रामीण इलाक़ों से मिलने भी लगे हैं जिसका नज़ारा कवि बल्ली सिंह चीमा की इस कविता में देखा जा सकता है-
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के,
अब अंधेरा जीत लेंगे, लोग मेरे गांव के,
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के,
कह रही है झोपड़ी और पूछते हैं खेत भी
कब तलक लुटते रहेंगे, लोग मेरे गांव के,
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के,
बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहां यह जानकर
अब लड़ाई लड़ रहे हैं, लोग मेरे गांव के,
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के,
कफ़न बांधे हैं सिरों पर, हाथ में तलवार हैं,
ढूंढने निकले हैं दुश्मन, लोग मेरे गांव के,
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के,
एकता से बल मिला है, झोपड़ी की सांस को
आंधियों से लड़ रहे हैं, लोग मेरे गांव के,
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के,
हर रुकावट चीखती है, ठोकरों की मार से
बेड़ियां खनका रहे हैं, लोग मेरे गांव के,
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के,
दे रहे हैं देख लो अब वो सदा-ए-इंक़लाब
हाथ में परचम लिये हैं, लोग मेरेगांव के,
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के,
देख बल्ली जो सुबह फीकी है दिखती आजकल,
लाल रंग उनमें भरेंगे, लोग मेरे गांव के।
ले मशालें चल पड़े हैं, लोग मेरे गांव के,