भगवान पार्श्वनाथ हैं पुरुषार्थ एवं जीवंत धर्म की प्रेरणा

0
183

भगवान  पार्श्वनाथ जन्म जयंती 7 जनवरी 2023 पर विशेषः
-ः ललित गर्गः-

भगवान पार्श्वनाथ ने सत्य की तलाश में राज-वैभव को त्याग संसार में संन्यस्त हुए। उन्होंने कठिन तप तपा, वीतरागता तक पहुंचकर अपने जीये गये सच को भाषा दी। जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर के रूप में उन्होंने वास्तविक धर्म को स्थापित कर उपदेश दिया कि यदि धर्म इस जन्म में शांति और सुख नहीं देता है तो उससे पारलौकिक शांति की कल्पना व्यर्थ है। उन्होंने हमारी आस्था को नये आयाम दिये और कहा कि हमारे भीतर अनंत शक्ति है, असीम क्षमता है। इसलिए उन्होंने उपासनापरक और क्रियाकाण्डयुक्त धर्म को महत्व न देकर जीवंत धर्म की प्रतिस्थापना की। अज्ञान-अंधकार-आडम्बर एवं क्रियाकाण्ड के मध्य में क्रांति का बीज बन कर पृथ्वी पर विचरण करते हुए उन्होंने धर्म का सही अर्थ समझाया। पार्श्वनाथ के जीए गये वे सारे सत्य धर्म के व्याख्या सूत्र बने हैं, जिन्हें उन्होंने ओढ़ा नहीं था, साधना एवं तप की गहराइयों में उतरकर आत्मचेतना के तल पर पाया था। उनके धर्म का शाश्वत सन्देश यही है कि स्वयं के द्वारा स्वयं को खोजें।
भगवान पार्श्वनाथ तापस परम्परा में क्रांति-ज्वाला की तरह ऐसे प्रकट हुए, जैसे वर्षों तप में लीन रहने के बाद सहसा ज्ञान का तीसरा नेत्र खुल जाता है। उनका जीवन जहां तापस युग का अंत था तो दूसरे बौद्धिक साधना का प्रारम्भ। उनका जन्म आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व पौष कृष्ण एकादशी के दिन वाराणसी में हुआ था, जो इस वर्ष 7 जनवरी 2023 को है। उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। राजा अश्वसेन वाराणसी के राजा थे। जैन पुराणों के अनुसार तीर्थंकर बनने के लिए पार्श्वनाथ को पूरे नौ जन्म लेने पड़े थे। पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलतः ही वे तेईसवें तीर्थंकर बने। पुराणों के अनुसार पहले जन्म में वे मरुभूमि नामक ब्राह्मण बने, दूसरे जन्म में वज्रघोष नामक हाथी, तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता, चौथे जन्म में रश्मिवेग नामक राजा, पांचवें जन्म में देव, छठे जन्म में वज्रनाभि नामक चक्रवर्ती सम्राट, सातवें जन्म में देवता, आठवें जन्म में आनंद नामक राजा, नौवें जन्म में स्वर्ग के राजा इन्द्र और दसवें जन्म में तीर्थंकर बने।
बचपन में पार्श्वनाथ का जीवन राजसी वैभव और ठाटबाठ में व्यतीत हुआ। जब उनकी उम्र सोलह वर्ष की हुई और वे एक दिन वन भ्रमण कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि एक तपस्वी पर पड़ी, जो कुल्हाड़ी से एक वृक्ष पर प्रहार कर रहा था। यह दृश्य देखकर पार्श्वनाथ सहज ही चीख उठे और बोले-‘ठहरो! उन निरीह जीवों को मत मारो।’ उस तपस्वी का नाम महीपाल था। अपनी पत्नी की मृत्यु के दुख में वह साधु बन गया था। वह क्रोध से पार्श्वनाथ की ओर पलटा और कहा- मैं किसे मार रहा हूं? देखते नहीं, मैं तो तप के लिए लकड़ी काट रहा हूं। पार्श्वनाथ ने व्यथित स्वर में कहा- लेकिन उस वृक्ष पर नाग-नागिन का जोड़ा है। महीपाल ने तिरस्कारपूर्वक कहा-तू क्या त्रिकालदर्शी है? और पुनः वृक्ष पर वार करने लगा। तभी वृक्ष के चिरे तने से छटपटाता, रक्त से नहाया हुआ नाग-नागिन का एक जोड़ा बाहर निकला। एक बार तो क्रोधित महीपाल उन्हें देखकर कांप उठा, लेकिन अगले ही पल वह धूर्ततापूर्वक हंसने लगा। तभी पार्श्वनाथ ने नाग-नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया, जिससे उनकी मृत्यु की पीड़ा शांत हो गई और अगले जन्म में वे नाग जाति के इन्द्र-इन्द्राणी धरणेन्द्र और पद्मावती बने और मरणोपरांत महीपाल सम्बर नामक दुष्ट देव के रूप में जन्मा। इस घटना ने पार्श्वनाथ की जीवन दिशा ही बदल दी और उनकी संसार के जीवन-मृत्यु से विरक्ति हो गई। उन्होंने ऐसा कुछ करने की ठानी जिससे जीवन-मृत्यु के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सके। वे सत्योपलब्धि की साधना में जुटें और जन-जन को रोशनी बांटी।
बचपन से ही पार्श्वनाथ चिंतनशील और दयालु थे। पार्श्व युवा हुए। इनका क्षत्रियत्व शौर्यशाली था। सभी विद्याओं में ये प्रवीण थे। एक बार अपने मामा की सहायता के लिए युद्ध किया। शत्रु को इन्होंने परास्त कर, उसे बंदी बना अपने शौर्य का परिचय दिया। उन्होंने अपने समय की हिंसक स्थितियों को नियंत्रित कर अहिंसा का प्रकाश फैलाया। यूं लगता है पार्श्वनाथ जीवन दर्शन के पुरोधा बनकर आये थे। उनका अतः से इति तक का पूरा सफर पुरुषार्थ एवं धर्म की प्रेरणा है। वे सम्राट से संन्यासी बने, वर्षों तक दीर्घ तप तपा, कर्म निर्जरा की, तीर्थंकर बने। जैन दर्शन के रूप में शाश्वत सत्यों का उद्घाटन किया। उनका संपूर्ण व्यक्तित्व एवं कृर्तित्व जैन इतिहास का एक अमिट आलेख बन चुका है। पार्श्वनाथ ने संसार और संन्यास दोनों को जीया। वे पदार्थ छोड़ परमार्थ की यात्रा पर निकल पड़े। उन्होंने जीवन शुद्धि के लिए कठोर तप किया। उनके तप में सादगी थी और जीवन शुद्धि का मर्म था। वास्तव में तप वही है जिसके साथ न प्रदर्शन जुड़ा है और न प्रलोभन। इसमें न केवल उपदेश काम करता है और न अनुकरण।
जीवन स्वयं एक तपस्या है। सुविधाओं के बीच सीमाकरण में रहना और अभावों के बीच तृप्ति को पा लेना भी तप है। प्रतिकूलताओं को समत्व से सह लेना, वैचारिक संघर्ष में सही समाधान पा लेना, इन्द्रियों को विवेकी बना लेना, मन की दिशा और दृष्टि को बदल देना भी तप है और ऐसे ही तप के माध्यम से पार्श्वनाथ न केवल स्वयं तीर्थंकर बने बल्कि जन-जन में ऐसी ही पात्रता को उन्होंने विकसित किया। उनकी साधना की कसौटी थी- शुद्ध आत्मा में धर्म का स्थिरीकरण। बिना पवित्रता धर्म आचरण नहीं बन सकता। जैसे-मुखौटों में सच नहीं छिपता, वैसे ही वासनाएं, कामनाएं, असत् संस्कार और असत् व्यवहार धर्म को आवरण नहीं बना सकता। इसलिए उपासना के इस बिन्दु से जोड़े कि धर्म मंदिर या पूजा पाठ में नहीं, धर्म मन के मंदिर में हैं। पार्श्वनाथ ने अहिंसा एवं सह-अस्तित्व का दर्शन दिया। अहिंसा सबके जीने का अधिकार है, उन्होंने इसे स्वीकृत किया। प्राचीन उद्घोष एक बार फिर से करते हुए उन्होंने जनता को संदेश दिया- ‘सव्वे पाणा पियाउवा, सव्वे दुक्ख पडिकुला’- यानी सबको जीवन प्रिय है, दुख को कोई नहीं चाहता। पर हमने अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर प्रकृति पदार्थ, प्राणी और पर्यावरण को नकार दिया।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी उन धर्मनायकों एवं तीर्थंकरों में से ऐसे महापुरुष थे, जो धर्म नीतियों का प्रकाश संसार में लेकर आए और ऐसे जीवन मूल्यों की स्थापना की जिनके माध्यम से धर्म एक नये रूप में प्रस्तुत हुआ। इस धर्म दर्शन में जीवन के इर्द-गिर्द छिपी बाहरी ही नहीं, भीतरी परछाइयां भी रोशनी बनकर प्रस्तुत होती है। अच्छाइयों की सही पहचान होती है, अहिंसक मन कभी किसी के सुख में व्यवधान नहीं बनता। पार्श्वनाथ ने जो कुछ कहा, सत्य को उपलब्ध कर कहा। वे प्रणम्य बने अपनी तपस्विता एवं पवित्रता की बुनियाद पर। उनका सम्पूर्ण जीवन, आदर्श और सिद्धान्त मानवता के नाम आत्म-विकास की प्रेरणा है।  भगवान पार्श्वनाथ हमारे लिए वंदनीय है। वे हमारे जीवन दर्शन के स्रोत हैं, प्रेरक आदर्श हैं। उन्होंने जैसा जीवन जीया, उसका हर अनुभव हमारे लिए साधना का प्रयोग बन गया। उन्होंने हमारे भीतर सुलभ बोधि जगाई, व्रत की संस्कृति विकसित की, समत्व की साधना को संभव बनाया। बुराइयों का परिष्कार कर अच्छा इंसान बनने का संस्कार भरा। पुरुषार्थ से भाग्य बदलने का सूत्र दिया। क्योंकि हम कुछ होना चाहें और पुरुषार्थ न करें तो फिर बिना लंगर खोले रात भर नौका खेने वाले नादान मल्लाह की तरह असफलता हाथ आएगी। इसलिए उन्होंने कर्मवीर बनने का संदेश दिया।
भगवान पार्श्वनाथ ने लगभग 70 वर्ष तक जनता को आलोक बांटा। 100 वर्ष की आयु में एक मास का अनशन करते हुए सम्मेद शिखर पर श्रवण शुक्ल अष्टमी को उन्हांेने निर्वाण प्राप्त किया। उनके जन्मदिवस के अवसर पर जरूरत है हम ऐसा संकल्प ले कि भगवान पार्श्वनाथ को सिर्फ शास्त्रों में ही न पढ़ें, प्रवचनों में ही न सुनें बल्कि पढ़ी और सुनी हुई ज्ञान-राशि को जीवन में उतारंे तभी एक महाप्रकाश को अपने भीतर उतरते हुए देखेंगे। हम स्वयं पार्श्वनाथ बनने की तैयारी करें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,208 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress