शिवानंद मिश्रा
वनवास के समय एक भीषण वन से गुजरते समय श्रीराम एक विकराल दैत्य को देखते हैं। इतना बड़ा कि वह सिंह, हाथियों, भैंसे आदि बड़े पशुओं को भी खाते हुए आगे बढ़ रहा है। संदेह न कीजिये, अधर्म का स्वरूप इतना ही विकराल होता है ।
उस गहन वन में दूर दूर तक मानव जाति का कहीं नामोनिशान नहीं। एकाएक कितनी भयावह स्थिति उत्पन्न हो गयी होगी ?
उस महाकाय दैत्य को देखते ही श्रीराम सबसे पहले माता सीता से कहते हैं-
“भयभीत मत होना जानकी, मैं यहीं हूँ।”
यही पौरुष है। यही है राम होना।
श्रीराम और लक्ष्मण जी धनुष पर बाण चढ़ा लेते हैं।
दैत्य देख कर हँसते हुए पूछता है-
मेरे भय से यहाँ के समस्त मानव भाग गए।
इन छोटी छोटी धनुहियों के बल पर निर्भय होकर एक स्त्री के साथ घूमते तुम दोनों कौन हो?
प्रभु परिचय देते हैं-
मैं दाशरथि राम! अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ पिता की आज्ञा से तुम जैसों को शिक्षा देने आए हैं।
शिक्षणार्थम् भवादृशाम्।
चालू भाषा में कहें तो तुम जैसों को ठीक करने आये हैं। कोई भय नहीं, कोई झिझक नहीं। यह है आत्मविश्वास।
अठ्ठहास करता दैत्य कहता है-
तुम शायद मुझे नहीं जानते। मैं जगत्प्रसिद्ध दैत्य हूँ। मुझे विराध कहा जाता है। यदि जीवन चाहिये तो स्त्री और अस्त्र-शस्त्र को छोड़ कर भाग जाओ…
यदि जीवितुमिच्छास्ति त्यक्तवा सीताम् निरायुधौ।
अब यह क्या है?
वस्तुतः यही है असुरत्व!
कुछ याद आया आपको?
यदि जीना चाहते तो अपनी संपत्ति और महिलाओं को छोड़कर भाग जाओ… 1990,………
सतयुग हो, द्वापर हो, या कलियुग!
मनुष्य पर जब राक्षसी भाव हावी होता है तो वह यही भाषा बोलता है। दैत्य दूसरी दुनिया के लोग नहीं होते, आदमी में जब धन और स्त्रियों को लूटने की बर्बर आदत आ जाय, वह दैत्य हो जाता है।
बर्बर राक्षस माता सीता की ओर दौड़ा। आपको संदेह तो नहीं हो रहा है?
वे तो ऐसा ही करते हैं।
तो प्रभु ने क्या किया?
विराध श्रीराम के वनवास में मिला पहला दैत्य है।
श्रीराम तय कर चुके हैं कि इनके साथ कैसा व्यवहार करना है। कोई संदेह नहीं, कोई संकोच नहीं। सामान्यतः अपने एक बाण से शत्रु का वध कर देने वाले महायोद्धा श्रीराम हँसते हुए अपने पहले बाण से उसकी दोनों भुजाएं काट देते हैं।
पर दैत्य इतने से ही तो नहीं रुकता ! वह विकराल मुँह फाड़ कर उनकी ओर बढ़ता है। तब प्रभु अपने दूसरे बाण से उसके दोनों पैर काट देते हैं।
वह फिर भी नहीं रुकता। सर्प की तरह रेंगता हुआ उनकी ओर बढ़ता है।
अधर्म पराजित हो कर भी शीघ्र समाप्त नहीं होता भाई। तब अंत पर प्रभु उसका मस्तक उड़ा देते हैं।
स्त्रियों को लूटी जा सकने वाली वस्तु समझने वाले हर दैत्य का अंत ऐसा ही होना चाहिये कि एक एक कर के उसके सारे अंग कटें… ऐसे कि वह चीख पड़े, तड़प उठे…
यही कार्य प्रभु श्रीराम कर के गए हैं।
*हमारा दोष यह है कि हम श्रीराम को पूजते अधिक हैं, उनसे सीखते कम हैं।*
हमारे सभी देवी-देवताओं के हाथ में फूल शंख माला के साथ भाला गदा और तलवार भी है लेकिन हमने तो अपने धर्म, समाज परिवार की रक्षा के लिए भी अस्त्र-शस्त्र धारण करना छोड़ दिया ।
क्या हम वहशी दानवों के अट्टहास और माता बहनों के प्रति निर्लज्ज अश्लील बातें नहीं सुन रहे हैं, फिर काहे का चारा?
बात जब अस्तित्व पर आती है, तो उत्तिष्ठ हे भारत!
शिवानंद मिश्रा