एक ही दिन में आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ को दो राजनेताओं का प्यार मिल गया। वे हैं, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेद्र फड़नवीस। अखिलेश यादव ने इस फिल्म को राज्य में टैक्स-फ्री होने का ऐलान कर दिया है। अब इनको देखकर बिहार में भी यह फिल्म टैक्स-फ्री हो गयी है। ‘पीके’ एक कारोबारी फिल्म है। यह लोगों के मनोरंजन के लिए बनाई गई है। बेशक, यह लोगों का मनोरंजन करते-करते कहीं-कहीं अंधविश्वासों पर प्रहार कर रही है। लोगों का पाखंडों की तरफ ध्यान खींच रही है। भक्तों की यह कलई खोल रही है। साथ ही भगवान से डरती है। लेकिन यह किसी देवता और मठ को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश नहीं कर रही। वह जानती है कि भारत में भले ही इसकी जरूरत हो, लेकिन धर्म और सियासत की दुकान चलाने वालों को ये मंजूर नहीं होगा। मजे की बात तो यह है कि ‘पीके’ भगवान से डर रही है तो धर्म के ठिकेदार ‘पीके’ से डर रहे हैं। दरअसल उन्हें भगवान को नहीं, अपने उस पाखंड को बचाना है जिससे उनकी दुकान चलती है। ऐसा लगता है कि भारत में अब देवताओं की परीक्षा कुछ ज्यादा ही कड़ी हो गई है। मंदिरों-मस्जिदों और मठों में अब देवताओं से ज्यादा ऐसे भक्त हैं जो धर्म से ज्यादा राजनीति का खेल खेलते हैं। जैसे-जैसे भक्त बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे भगवान भी बढ़ रहे हैं। वे सभी को गीता पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन उन्हें ईश्वर पर खुद ही भरोसा नहीं है। पहले भी कई फिल्मों का विरोध हुआ है। सिनेमाहाॅल पर हमले हुए हैं। इसके पहले भी संस्कृति और धर्म के अपमान की बातें हुई है। लेकिन इस बार ‘पीके’ को लेकर लोग इतने उत्तेजित क्यों हैं? दरअसल समस्या कुछ और है। लोग ‘पीके’ फिल्म की पोस्टर फाड़ रहे हैं। हिंसक वारदाते हो रही हैं। क्यों नहीं लोग ऐसे बाबाओं का पोस्टर फाड़ते जो धर्म के नाम पर लोगों को ठग रहे हैं। लोगों का अंधविश्वास ऐसे तथाकथित संतों पर ज्यादा बढ़ गया है कि वे उन्हें ही धर्म का रक्षक मान बैठे हैं। ऐसे लोगों को आंख से अब भी पर्दा उठ जाना चाहिए। आशाराम और रामपाल इसके ताजा उदाहरण हैं। इन लोगों ने जो कुछ किया क्या वे धर्म की गरिमा के अनुकूल था। लोगों को ऐसे बाबाओं का पोस्टर फाड़ना चाहिए।
‘पीके’ का विरोध करने वालों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण दोबारा सुनना चाहिए। अभी पिछले जून के महीने में राष्ट्रपति के अभिभाषण के समर्थन में उन्होंने कहा था कि हमें गरीबों को अंधविश्वास और अंधभक्ति से आजाद कराना है। एम्स अस्पताल के एक कार्यक्रम में प्रधानमंत्री मोदी ने मेडिकल छात्रों से कहा था कि हमें वैज्ञानिक सोच का ज्यादा से ज्यादा विस्तार करना है। भाजपा शासित राज्यों में इस फिल्म का विरोध प्रदर्शन ज्यादा है। विरोधियों का आरोप है कि यह फिल्म देवी-देवताओं का अपमान कर रही है। इसलिए इसपर प्रतिबंध लगाना चाहिए। उधर सेंसर बोर्ड का कहना है कि उसने सोच-समझ कर ही इस फिल्म को दिखाए जाने की अनुमति दी है। इसलिए फिल्म में किसी भी प्रकार का फेर-बदल नहीं किया जाएगा। जहां तक प्रतिबंध की बात है तो यह काम सरकार का है। यहां तक कि भाजपा के वरिष्ठतम नेता लालकृष्ण आडवाणी भी इस फिल्म की तारीफ की है। वैसे भी ऐसा लग रहा है कि यह फिल्म इतिहास की सफलतम फिल्म साबित होगी। ‘पीके’ की कामयाबी का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मात्र दो सप्ताह के भीतर करीब 235 करोड़ रूपये कमाये हैं। इसके पहले 2014 की सफलतम फिल्म ‘किक’ ने अब तक 233 करोड़ रूपये कमाये थे। इससे स्पष्ट है कि इसके दर्शकों की संख्या बहुत ज्यादा है। बहुत लोग इसे पसंद कर रहे हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि इसके दर्शकों में ज्यादातर हिन्दू ही होगें। क्योंकि देश में वे ही बहुसंख्क हैं। इन हिन्दू दर्शकों को फिल्म पर कोई नाराजगी नहीं हैं। लेकिन हिन्दुत्ववादी विश्व हिन्दू परिषद और उसके उग्र युवा संगठन बजरंग दल को है। यह संगठन पहले भी नाटक और फिल्मों पर हमले कर चुका है। हमारे संविधान ने सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया है। हां, यह जरूर है कि उसने किसी को भी किसी धर्म, समुदाय, क्षेत्र या व्यक्ति के खिलाफ नफरत फैलाने की इजाजत नहीं दी है। दूसरी तरफ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाना सरकार का काम है। किसी संगठन को यह अधिकार नहीं दिया जा सकता। मगर पिछले कुछ दशकों से जिस तरह का माहौल बना है, उसमें राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कहे जाने वाले संगठनों को यह अधिकार अनौपचारिक रूप से सौंपा जाने लगा है।
दरअसल ‘पीके’ को मिल रही असाधारण सफलता इस बात का प्रमाण है कि उसे जनता पसंद कर रही है। पसंद करने वालों मंे हर धर्म के लोग शामिल है। हिन्दू धर्म के स्वयंभू प्रवक्तओं का यह अधिकार नहीं कि वे समांतर सेंसर बोर्ड की तरह काम करें। मोदी सरकार को भी यह ध्यान रखना होगा कि एक धर्म की कट्टरता के सामने झुकने के बाद उसे हर धर्म की कट्टरता के सामने झुकना पड़ेगा। भारत में हर धर्म के लोग रहते है। सभी को समान अधिकार है। वैसे सरकार की यह जिम्मेदारी है कि जिस फिल्म को उसके द्वारा स्थापित सेंसर बोर्ड ने ठीक मानकर प्रदर्शन की अनुमति दी है। वह उसे शांतिपूर्ण वातावरण में दिखाए जाने को सुनिश्चित करे। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी कहां रही? कलाकारों की रचनाशीलता को खुलकर अभिव्यक्ति का माहौल लोगों को देना चाहिए, जिससे समाज में व्याप्त अंधविश्वास का माहौल खत्म हो।
पी के बारे में इतनी चर्चा और उसका समर्थन स्वयं इस बात को प्रमाणित करता है कि उसको पसंद करने वालों की संख्या उनसे बहुत ज्यादा है,जो इसका विरोध कर रहे हैक्या ऐसा नहीं लगता कि विरोध करने वाले वे ही हैं ,जिनकी दूकान इन पाखंडों पर चलती है?इनके करनामों को दैखकर ऐसा लगता है कि ये लोग उन पाखंडियों के पाले हुए गुंडें हैं.
आदरणीय,
कितना हास्यास्पद है फिल्म निर्माता राजकुमार हिरानी कहते है हमने गाॅधी और कबीर के सिद्धांतो पर फिल्म बनायी है। क्या सिर्फ पैसा कमाने के लिये? यदि ऐसा है तो एक कलाकार का सच से यह एक अवैध गठबन्धन है। राग नम्बर है फिल्म के डायलाग के अनुसार। यदि पैसा कमाना इस फिल्म का उद्देश्य है तो यह गिरावट की निम्न सीमा है, जहाॅ अब कोई विषय पैसा कमाने के लिये नही मिल रहा है। चूकि राजकुमार हिरानी जी ने कबीर को याद किया है अतः कबीर के माध्यम से कहना चाहूॅगा –
कहते है कबीर बहुत परेशान रहा करते थे। कारण उनके घर के पास एक कसाई रहा करता था। कबीर जब भी शाम को घर वापस आते थे कसाई को देखकर उन्हे बहुत दुख होता था। वे सोचते थे, मैं दिन भर अच्छी बाते करता हूॅ और यह दिन भर बकरा काटता है। कहते है एक दिन कबीर को इलहाम हुआ। इलहाम का अर्थ, जिन प्रश्नो का उत्तर हम अपने बौद्धिक क्षमता से प्राप्त नही कर पाते है, उनका उत्तर हमे उस चेतन सत्ता से प्राप्त होता है। इसे हम इलहाम की संज्ञा देते है। कबीर ने उस इलहाम को शब्दो में व्यक्त किया।
कबीरा तेेरी झोपडी, गलकटियन के पास । हे कबीर तेरी झोपडी गला काटने वाले के पास है। तू , न तो यह वातावरण बदल सकता और न ही यह परिस्थिति। अतः यह याद रख –
कबीरा तेेरी झोपडी, गलकटियन के पास ।
जो करेगा, सो भरेगा, तू काहे होत उदास।।
और याद रख, यदि तू गलत करेगा तो तू भी भरेगा। ईश्वरिय सत्ता की अनुभूति, स्व अनुभूति की बात है। सारी जिन्दगी दूसरो को ढूढने वाला यदि नही ढूढ पाता है तो सिर्फ अपने आप को। जिस दिन अपने को ढूढ लेगा उस दिन किसी और की आवश्यकता नही।
आपका
अरविन्द
यक्ष प्रश्न यह है कि जब ओह माय गॉड मेँ इससे ज्यादा ईश्वर का मजाक उड़ाया गया है,तब भी उस फिल्म पर इतनी तीखी प्रक्रिया क्यों नहीं हुई?