राजनीति

मानसिक गुलाम बनाने वाली मैकाले की शिक्षा पर लगेंगे ताले 

संदर्भ-ः प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मैकाले की औपनिवेशिक दासता पर ताले लगाने का संकल्प

प्रमोद भार्गव

                ‘1835 से भारत में पैठ जमा चुकी उस पश्चिमी मानसिकता पर ताले लगाने के राष्ट्रीय संकल्प की जरूरत है, जो स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों को ध्वस्त करती हुई औपनिवेशिक शिक्षा को लागू करने की थॉमस मैकाले की परियोजना के माध्यम से लागू हुई थी। भारत की शैक्षिक और सांस्कृतिक नींव को खोखला करने के लिए मैकाले द्वारा किए गए अपराध को 2035 में 200 वर्ष पूरे हो जाएंगे। अतएव आने वाले दस सालों में गुलामी की इस औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होने के राष्ट्रीय संकल्प की जरूरत है।‘ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये विचार एक्सप्रेस समूह के संस्थापक रामनाथ गोयनका की स्मृति में दिए व्यख्यान में व्यक्त किए थे।फिरंगी हुकूमत के दौरान इंग्लिश एज्युकेशन एक्ट -1835 के तहत भारत में संस्कृत,हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं  की शिक्षा नष्ट कर अंग्रेजी शिक्षा की बुनियाद रखी गई थी।इस दासता को 190 वर्ष से हम ढोते चले आ रहे हैं।अतएव अब इससे मुक्ति का समय आ गया है।

                मैकाले की एक किताब है ‘द लाइफ एंड लैटर्स ऑफ लार्ड मैकाले’। इस किताब में मैकाले ने भारत की अंग्रेजी शिक्षा पद्यति लागू करते हुए तीन भविष्यवाणियां की थीं, जो खरी उतरीं।उनकी पहली भाष्यवाणी थी कि मेरी इस नई शिक्षा प्रणाली के चलते डेढ़ सौ साल बाद भारतीय व्यक्ति अपने धर्म से विमुख हो जाएगा।उसके घर में अपने धर्म ग्रंथ होंगे, लेकिन वे उन्हें पढ़ेंगे नहीं।दूसरी भविष्यवाणी है,उसे अपनी भाषा बोलने में असुविधा होगी।वह शर्म महसूस करेगा।वह अपनी भाषा में बोल नहीं पाएगा।दूसरी भाषाओं के शब्द उधार लेने पड़ेंगे।तीसरी है,भारतवासी अपनी पारंपरिक वेशभूषा पहनना भूल जाएंगे।पुरुष अपनी वेशभूषा लगभग भूल गए हैं।महिलाएं जरूर अपनी परंपरा को बनाये रखे हुए हैं।याद रहे जिस देश के वासी अपनी भाषा,धर्म और वेशभूषा भूल जाते हैं, उनकी संस्कृति भी धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है।लेकिन हम हैं कि अपनी संस्कृति के पराभव से निश्चिंत हैं।अतएव प्रधानमंत्री के संकल्प में प्रत्येक नागरिक की भागीदारी जरूरी है।

             इस परिप्रेक्ष्य में  मार्क्सवादी वामपंथी सोच के शिक्षाविद्, इतिहासज्ञ एवं साहित्यकार भी गुलाम भारत में थोपी हुई शैक्षिक रूढ़ियों को एक जन्मजात संस्कार की तरह ढोते रहे हैं। नेहरू मंत्रिमंडल के आरंभिक केंद्रीय शिक्षामंत्रियों ने इस विचार का बढ़-चढ़कर पोषण किया। इसी का परिणाम रहा कि फिरंगी दासता से छुटकारा नहीं मिल पा रहा है। हालांकि नई शिक्षा नीति के अंतर्गत राष्ट्र की लुप्त कर दी गई सांस्कृतिक संपदा के महत्व को अंगीकार करते हुए ज्ञान, कर्म, संस्कार, भाषा, संस्कृति और कौशल दक्षता को विद्यार्थी में विकसित करने का काम मातृभाषाओं में शिक्षा के माध्यम से कर दिया है। लेकिन शिक्षा में अंग्रेजी माध्यम से विद्यार्थी को शिक्षित करने की आम भारतीय की गुलाम मानसिकता अभी भी बनी हुई है। इसीलिए देखने में तो शिक्षित भारतवासी भारतीय हैं, किंतु उनके मन में मानसिक गुलामी आज भी बनी हुई है। व्यक्तित्व निर्माण की यही बाधा व्यक्ति में राष्ट्रबोध का पूर्णतः प्रादुर्भाव नहीं कर पा रही है। अतएव दासता के इस शैक्षिक निर्मूलन से मूल्य-बोध के  संस्कारों से सांस्कृतिक चेतना का लोकव्यापीकरण होगा और सनातन मानवीय मूल्यों की सुरक्षा के साथ भारतीय भाषाएं भी अपना अस्तित्व बनाए रखेंगी। ये मूल्य न केवल व्यक्ति को आत्मनिर्भर बनाएंगे, बल्कि देश को भी आत्मनिर्भरता के शिखर पर पहुंचाएंगे। देश की सांस्कृतिक संप्रभुता की पहचान को भी अक्षुण्ण बनाए रखने का काम करेंगे।

        भारत में अंग्रेजों का शासन स्थापित होने के बाद एक समय तक अंग्रेजों की भाषा-नीति में बदलाव होता रहता था। सन् 1833 में मैकाले मिनिट्स के होते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी ने अदालती तथा अन्य शासकीय कार्यों में अरबी-फारसी का मिश्रित रूप अपनाया था। हिंदू राजाओं के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी अपने पत्र-व्यवहार में स्थानीय बोलियों के शब्दों का भी प्रयोग करती थी।किंतु 1835 में इंग्लिश एज्युकेशन एक्ट लागू होने के बाद से स्थितियां बदलती चली गईं। हालांकि 1880 में कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई। उस समय अंग्रेजी शासन की राजधानी कोलकाता थी। जॉन गिलक्राइस्ट उस कॉलेज के भाषा विभाग के अध्यक्ष थे। उन्होंने खड़ी बोली के प्रयोग को प्रोत्साहित किया और कंपनी सरकार की भाषा नीति तय करने में आवश्यक सुझाव दिए। वह हिंदी को हिंदुई तथा हिंदुस्तानी कहते थे और उसके लिए रोमन लिपि को आवश्यक मानते थे, किंतु न तो हिंदी का नाम बदल सके और न ही लिपि।
        गिलक्राइस्ट के बाद ही, मैकाले की भाषा-नीति मानी गई और उच्च शिक्षा से संस्कृत एवं हिंदी का माध्यम समाप्त कर दिया गया। वैदिक संस्कृत, गणित एवं समाज विज्ञान की शिक्षाओं को धार्मिक शिक्षा की श्रेणी में रखकर नकार दिया गया। उन्नीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में सरकारी कामकाज में उर्दू को वरीयता दी गई और हिंदी को उपेक्षित कर दिया गया। उस युग में बनारस हिंदी का केंद्र था और बनारस की दो बड़ी हस्तियां हिंदी में लिख रहीं थीं। एक थे राजा शिवप्रसाद और दूसरे भारतेंदु हरिशचंद्र। राजा शिवप्रसाद अंग्रेजी सरकार की सेवा में थे और अंग्रेजों की भाषा नीति का समर्थन करते हुए उन्होंने उर्दू का पक्ष लेते हुए हिंदी की निंदा की। उनकी वफादारी देखकर सरकार ने उन्हें ‘सितारे हिंद‘  की उपाधि दी। हरिश्चंद्र ने सरकार की भाषा-नीति का विरोध किया और जगह-जगह जाकर हिंदी के समर्थन में सभाएं कीं। जनता ने हरिश्चंद्र को ‘भारतेंदु‘ की उपाधि से विभूषित किया। भारतेंदु की लोकप्रियता के सामने सितारे हिंद अस्त-पस्त हो गए। जॉन गिलक्राइस्ट जैसे अनेक अंग्रेज हिंदी के समर्थक थे। ऐसे अंग्रेजों में हेनरी पिनकोट ने भारतेंदु के समर्थन में हिंदी के पक्ष में बहुत काम किया।
          राजा शिवप्रसाद की तरह राजा लक्ष्मण सिंह (1826-96) भी सरकारी नौकर थे, किंतु उन्होंने हिंदी का समर्थन किया और उसी में लिखा भी। इस दौरान देश में जो विवि और राज्य स्तरीय शिक्षा मंडल अस्तित्व में आए, उन्होंने अंग्रेजी विषयक पाठ्यक्रमों में आंग्ल साहित्य का अध्ययन, अध्यापन बीसवीं सदी की शुरूआत में ही कर दिया था। इस समय भारतीय लेखक जो भी कुछ अंग्रेजी में लिख रहे थे, उसे पाठ्यक्रम में शामिल कर दिया जाता था। इनमें ज्यादातर लेखक बंगाली थे और इन पाठ्यक्रमों की शुरुआत भी बंगाल में हुई। इन लेखकों की लिखने की पद्धति लगभग अंग्रेजियत में सराबोर थी। चारण-भाटों की शैली में इन्होंने अंग्रेजी का स्तुतिगान तो किया ही, तात्कालिक लाभ के लिए इनमें से कई क्रिश्चियन भी बन गए। नौकरी के लिए मतांतरण की शुरुआत यहीं से हुई। भारत की धरती पर अंग्रेजी का बीज बोने और इसे उर्वरा बनाने के पैरोकार मैकाले ने ऐसे लोगों को वजीफे दिलाए और लंदन की मुफ्त में सैर भी कराई। सही मायनों में ये तथाकथित अंग्रेजी के लेखक इंग्लैंड के बंधुआ साहित्यकार थे। इन्होंने अंग्रेजी के प्रभुत्व को स्थापित करने के उपायों के साथ विस्तार के मार्ग भी प्रशस्त किए। इनमें तोरु दत्त, माइकल मधुसूदन दत्त और मनमोहन घोष प्रमुख थे। गोया, ब्रिटिश हुक्मरानों के भय के चलते इन बंधुआओं से लेखन में भारतीयता का प्रभाव डालने की उम्मीद कतई नहीं की जा सकती थी।
        जिस राष्ट्रीय चेतना को हम स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में लेते हैं, उस तरह के लेखन का भारतीय अंग्रेजी लेखकों में सर्वथा अभाव था। हालांकि ‘वंदे मातरम‘ गीत के रूप में भारत को उसकी व्यापक राष्ट्रीयता की पहचान देने वाले बांग्ला उपन्यासकार बंकिमचंद्र चटर्जी न केवल बंगाल के चुनिंदा लेखकों में से एक थे, बल्कि उन्हें भारतीय अंग्रेजी साहित्य के शुरूआती लेखन का श्रेय भी जाता है। उन्होंने ‘राजमोहन वाइफ‘ उपन्यास अंग्रेजी में लिखा था। किंतु राष्ट्रीय स्वाभिमान के चलते कालांतर में उन्होंने केवल बांगला और संस्कृत में लिखने का संकल्प लिया। अंग्रेजी में रचना-सृजन पर पूरी तरह विराम लगा दिया। भाषाई अस्मिता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रकल्प का यह ऐसा अनूठा संकल्प था, जिसने वंदे मातरम के माध्यम से फिरंगी सत्ता को चुनौती देते हुए जनमानस में सर्वाधिक राष्ट्रबोध जगाने का काम किया।
            आर्थिक उदारवादी नीतियां लागू होने के बाद देश में आवारा पूंजी का दबाव इस हद तक बढ़ा कि हम पूंजी आधारित लिप्सा और औपनिवेशिक शक्तियों की व्यवस्था को विकास व प्रगति का आदर्श मानक मानने लगे। नतीजतन आर्थिक विषंगति बढ़ी और असंतोष उपजा। माओवाद बनाम नक्सलवाद की जड़ें गहरी करने में इस असंतोष ने उर्जा का काम किया। वामपंथी चरमपंथ ने इस असंतोष को अपने राजनीतिक स्वार्थों के लिए भुनाने का काम किया। समरसता व समावेशन संबंधी जो मूल अवधारणाएं हैं, उन्हें इस चरमपंथ ने समूल नष्ट करते हुए वर्ग संघर्ष पैदा करने का काम किया। विषमता और वैमनस्यतापूर्ण समाज-रचना को बढ़ावा दिया। भावनात्मक इस विद्वेश ने स्वतंत्र वैचारिक मानसिकता को कुंठित करने का काम किया। जबकि विचार-निर्माण के लिए शैक्षिक परिसरों में लोकतांत्रिक खुलेपन की जरूरत है, जिससे शिष्य, शिक्षक से प्रश्न करने में कोई संकोच न करे। दुर्भाग्य से हमने आज्ञाकारी शिष्य को आदर्श माना हुआ है। यह आज्ञाकारिता नव-सृजनशीलता के लिए बाधक है। यही कारण है कि हम नवोन्वेष, वैज्ञानिक अनुसंधान और देशज उत्पादकता में लगातार पिछड़ते जा रहे थे, इसमें अब मोदी के नेतृत्व में  गति आ रही है।
       ब हमारी पूरा शिक्षाजन्य ढांचा, आज्ञापालन को प्रोत्साहित व पुरस्कृत करता है। स्वातंत्र्य-चेता विद्यार्थी की नूतन पहल, जिज्ञासा और प्रश्नाकूलता को फटकारा जाता है। विचार नियंत्रण की यह क्रूरता नव-सर्जक की भ्रूण-हत्या कर देती है। यही कारण है कि हम आजादी के बाद न तो नचिकेता, अष्टावक्र और विवेकानंद पैदा कर पाए और न ही सीवी रमन, जगदीश चंद्र बसु और रामानुजन ? दरअसल औपनिवैशिक शिक्षा पद्धति और अंग्रेजी की अनिवार्यता के चलते हमारे शिक्षा संस्थान महज डिग्रीधारी नकलचियों की फौज खड़ी करने में लगे हैं। वे रोबोट और क्लोन बनाने की दक्षता को ही श्रेष्ठता का पर्याय मानकर चल रहे हैं, क्योंकि रोबोट विरोध नहीं करते और क्लोन से विकसित प्राणी प्रकृति प्रदत्त विलक्षणता खो देते हैं, अतएव उनकी मौलिक सृजनशीलता बचपने में ही कुंठित हो जाती है। आज्ञापालकों के ये उत्पाद अंततः सृजन से जुड़ी वैचारिकता के लिए आघातकारी सिद्ध होते हैं, केवल कैरियर बनाना और पैसा कमाना इनका मुख्य ध्येय रह जाता है, जो व्यक्तिगत उपलब्धियां हैं। नरेंद्र मोदी ने अब आने वाले 10 साल में  मैकाले की शैक्षिक एवं अंग्रेजी मानसिकता से मुक्ति का जो संकल्प लिया है, उससे जरूर बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। 

प्रमोद भार्गव