फ़ेसबुक का जादू सिर पर चढ़कर बोलता है– क्या?

-विश्‍वमोहन तिवारी

”मैं कितनी सुन्दर हूं”!! या यह भी कि, ”मैं कितना सैक्सी हूं!!!”

दुनिया की सबसे अधिक लोकप्रिय वैब साइट फ़ेसबुक के ५० करो.ड से अधिक सक्रिय दीवाने हैं!!

इस अद्वितीय घटना के कारण अब मनोवैज्ञानिक इस की लोकप्रियता के कारणों पर शोध भी करने लगे हैं। सोराया मेहदिनाज़ेद ने टोरान्टो के यार्क विश्वविद्यालय के १०० विद्यार्थियों के फ़ेसबुक कार्य कलापों का अध्ययन किया और अपने शोध के निष्कर्ष ’साइबर साइकलाजी, बिहेवियर एन्ड सोशल नैटवर्किंग’ में प्रकाशित किये जो शायद फ़ेसबुक पर क्रियाशील व्यक्तियों को पसंद न आएं।

उऩ्होंने उनके ’फ़ोटो’, ’वाल पोस्टिंग’, नई जानकारियों की प्रस्तुति दर, उनके लाग करने की दर तथा लाग-अवधि आदि का अध्ययन किया। उऩ्होंने आत्ममुग्धता तथा आत्मसम्मान के नापने के उचित मानदण्डों का उपयोग कर पाया कि उनमें से अधिकांश में आत्ममुग्धता की अधिकता है तथा आत्मसम्मान की कमी है, वरन उऩ्होंने अक्सर इन दोनों चारित्रिकों में एक संबन्ध भी पाया ! जो जितना अधिक आत्ममुग्ध तथा कितना कम आत्मसम्मान वाला है वह उतना ही अधिक समय फ़ेसबुक पर बिताता है। आत्ममुग्ध लोग अपने रूप आदि की अन्य विख्यातों (सैलिब्रिटीज़) से तुलना करते हैं और अपनी प्रशंसा करते नहीं अघाते हैं।

आपने गौर किया होगा कि कुछ लोग अपने विषय में ही बातें तथा प्रशंसा करते हैं, आप किसी विषय पर बात प्रारंभ करें, ये आत्ममुग्ध व्यक्ति तुरंत अपनी ही बात, विशेषकर प्रशंसा, जड़ने लग जाते हैं। इस तरह के लोग मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं, एक तो श्रेष्ठता ग्रन्थि से पीड़ित तथा दूसरे हीनभावना से। श्रेष्ठता गरंथि से पीड़ित व्यक्ति अपनी प्रशंसा के साथ दूसरे की कमियां भी बतलाता रहता है। इन दोनों‚ प्रकार के व्यक्तियों में अहंकार कम या अधिक मात्रा में होता है। जिनमें हीन भावना होती है उनमें आत्म सम्मान भी कम होता है, जिसे वे हमेशा बढ़ा चढ़ाकर दिखाते रहते हैं।

कुछ मनोवैज्ञानिकों की‌ मान्यता है कि आत्ममुग्ध व्यक्ति आत्म प्रशंसा के भूखे होते हैं, आत्मश्रेष्ठता से ग्रस्त होते हैं और उनमें सहानुभूति या सहवेदना की कमी होती है। अपनी इस हीनता से बचाव के लिये वे फ़ेसबुक पर ऐसा व्यवहार कर अपनी आत्मछवि संपुष्ट करते रहते हैं।

यद्यपि मेहदिनाज़ेद का शोध उपरोक्त मान्यता का समर्थन करता है, किनु इस विषय के मह्त्व को देखते हुए इस पर अधिक शोध की आवश्यकता है। वे कहती हैं कि आत्ममुग्ध लोगों में गहरे और दीर्घकालीन संबन्धों को बनाने की क्षमता कम होती है, अतएव वे फ़ेसबुक आदि के वर्चुअल मित्रों तथा सच्ची संवेदना शून्य संचार माध्यमों का उपयोग करते हैं।

यह भी संभव है कि इससे फ़ेसबुक के नियनित पाठकों में‌ भी ऐसी प्रवृत्ति आ सकती है, आखिरकार हम स्वाभाविकतया अच्छी चीज़ों की नकल तो करते ही हैं। अब यह प्रश्न तो बनता ही है कि क्या कम आत्मसम्मान वाले व्यक्तियों के लिये फ़ेसबुक अपना आत्मसम्मान बढ़ाने के लिये एक उपयोगी साधन नहीं है? मेरी समझ में आत्मसम्मान तो कार्यों के निष्पादन में अपनी क्षमता तथा योग्यता पर निर्भर करता है, शेष तो नाटक अधिक है वास्तविकता कम।

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विश्‍वमोहन तिवारी
१९३५ जबलपुर, मध्यप्रदेश में जन्म। १९५६ में टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि के बाद भारतीय वायुसेना में प्रवेश और १९६८ में कैनफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी यू.के. से एवियेशन इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन। संप्रतिः १९९१ में एअर वाइस मार्शल के पद से सेवा निवृत्त के बाद लिखने का शौक। युद्ध तथा युद्ध विज्ञान, वैदिक गणित, किरणों, पंछी, उपग्रह, स्वीडी साहित्य, यात्रा वृत्त आदि विविध विषयों पर ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित जिसमें एक कविता संग्रह भी। १६ देशों का भ्रमण। मानव संसाधन मंत्रालय में १९९६ से १९९८ तक सीनियर फैलो। रूसी और फ्रांसीसी भाषाओं की जानकारी। दर्शन और स्क्वाश में गहरी रुचि।

8 COMMENTS

  1. शिशिर चन्द्र जी
    धन्यवाद..
    तब आप अपने परिवार तथा मित्रों में मातृभाषा प्रेम बढाएं
    शुभ कामनाएं

  2. डा. राजेश कपूर जी,
    आपने बहुत सटीक टिप्पणी की है, और यह विचारणीय है.।
    हमें क्षुद्रताओं में, विशेषकर हमारे मनों में कामनाओं और सैक्सी भावनाओं को भड़काने में यह अधिकांश इंटरनैट माध्यम ही‌ नहीं, वरन सारे माध्यम लगे हुए हैं; यह सब भोगवादी हो गए हैं, राक्षसी कृत्यों में‌ लगे हुए हैं।

    मैने तो फ़ेसबुक का उदाहरण इसलिये लिया है क्योंकि इस पर किसी मनोवैज्ञानिक , विशेषकर पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक ने शोध किया है और इस घटना को उजागर किया है।
    आपको याद होगा कि मैने अपने लेख ‘टी वी को बाहर फ़ेंक दें’ में इस विषय को और अधिक विवरण सहित स्पष्ट किया है।

    हमें छठवीं कक्षा से पहले अंग्रेज़ी‌ माध्यम में शिक्षा का डटकर विरोध करना होगा अन्यथा हम तो ऐसी ही क्षुद्रताओं में फ़ँसकर सूटैड बूटैड असभ्य तथा बर्बर हो जाएंगे – आप देख रहे हैं कि हिंसा किस बुरी तरह बढ़ रही है।
    मैं तो बार बार कहता हूं कि हम अंग्रेज़ी सीखें किन्तु अपनी मातृभाषाओं की कीमत पर कतइ नहीं। अपनी भाषा की नींव पहले सुदृढ़ कर लें, अन्यथा हमें दोनों भाषाएं नहीं आएंगी अर्थात हम दोनों भाषाओं का उथला ज्ञान ही रखेंगे ।और हमारी संस्कृति पर राक्षसी माध्यम का कब्जा होगा।

    अपनी संस्कृति बचाएं जो सही अर्थों में मानवतावादी है., इसके लिये सर्वप्रथम हमें अपनी भाषाएं बचाना पड़ेंगी।

  3. अच्छा प्रयास है. फसबूक के बारे में रेसेअर्च की जरुरत है.
    बहुत बढ़िया तिवारी जी हमभी आप के साथ हैं.

  4. adarniy tiwari ji kya apko nahi lagata ki jan – bujh kar ya anajane mei wishleshan mein kuch truti rahei ya rakhi gayi hai. face book hi kya har sthan par (internet mein)
    hamen kamwasana ke jal mein ulajhane ka acha-khasa prayas hota hai. yuwa to is jal mein adhik saralata se fans jate hain. kya yah ek bada karan nahen yuwaon ke is par adhik samay dene ka ? kya sanchalakon ka ek wishesh uddesy hamen aur hamari yuwa pidhi ko is mein uljhane ka naheen hai jis se hamari urja nirmanatmak kamon mein n lag sake ? kripaya is dridhti se wichar kariyega.
    * dhanyawad ewam diwali ki shubh kamnaon sahit,

  5. जय कुमार झा जी
    यह तो आप जानते हैं कि मानव व्यवहार के विषय में कोई भी‌कथन शत प्रतिशत सत्य नहीं होता। यदि वह ६६ प्रतिशत सही है तो उसे सही ही समझना चाहिये ।

    आपकी टिप्पणी सटीक है : “हाँ अगर सरसरी तौर पर देखा जाय तो ज्यादातर लोग आत्ममुग्धता के शिकार हैं…जो ठीक नहीं कहा जा सकता…..फेसबुक का प्रयोग सामाजिक सरोकार और भ्रष्ट नेताओं तथा उनके चमचों के कुकर्म को जनता तक त्वरित पहुँचाने के लिए किया जाय तो इन भ्रष्ट नेताओं के कुकर्मों पे कुछ लगाम लगाया जा सकता है….हमसब को इस देशा में सोचना चाहिए…”
    सोचना कर्म के लिये पहला कदम हो सकता है, होना चाहिये ।

  6. पंकज झा जी
    धन्यवाद ,
    आपने ठीक ही‌कहा, ‘ खुद के विषय में सोचना ही’ इस लेख का उद्देश्य है.

  7. जो जितना अधिक आत्ममुग्ध तथा कितना कम आत्मसम्मान वाला है वह उतना ही अधिक समय फ़ेसबुक पर बिताता है….ओह पढ़ कर आतंकित हो गया. अपने-आपके बारे में सोचने लगा. वास्तव में हम जैसे लोग भी उनमे शामिल हैं जो ज्यादे से ज्यादे समय फेसबुक पर बिताते हैं. इस लेख ने तो हर पाठक को एक बार नए सिरे से खुद के बारे में विचार करने को मजबूर किया है. अच्छी, एवं महत्वपूर्ण जानकारी.

  8. शोध की कुछ बातों से सहमत लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कुछ नेक उद्देश्यों के लिए भी फेसबुक पर समय बितातें है और कुछ लोग महत्वपूर्ण विषयों को लोगों तक पहुँचाने के लिए भी….हाँ अगर सरसरी तौर पर देखा जाय तो ज्यादातर लोग आत्ममुग्धता के शिकार हैं…जो ठीक नहीं कहा जा सकता…..फेसबुक का प्रयोग सामाजिक सरोकार और भ्रष्ट नेताओं तथा उनके चमचों के कुकर्म को जनता तक त्वरित पहुँचाने के लिए किया जाय तो इन भ्रष्ट नेताओं के कुकर्मों पे कुछ लगाम लगाया जा सकता है….हमसब को इस देशा में सोचना चाहिए….

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