महाराजा अग्रसेन: आदर्श समाज व्यवस्था के प्रयोक्ता

0
198

महाराजा अग्रसेन जयन्ती- 29 सितम्बर, 2019 पर विशेष
-ः ललित गर्ग:-

महाराजा अग्रसेन की कीर्ति किसी एक युग तक सीमित नहीं है, उनका लोकहितकारी चिन्तन कालजयी है और वे युग-युगों तक समाज का मार्गदर्शन करते रहेंगे  क्योंकि  उन्होंने न केवल जनजीवन को बल्कि सभ्यता और संस्कृति को समृद्ध और शक्तिशाली बनाया। उनकी दृष्टि में सर्वोपरि हित सत्ता का न होकर समाज एवं मानवता का रहा। वे समाजवाद के प्रर्वतक, युग पुरुष, राम राज्य के समर्थक एवं महादानी थे। महाराजा अग्रसेन उन महान विभूतियों में से थे जो सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखायः कृत्यों द्वारा युगों-युगों तक अमर रहेंगे।
महाराजा अग्रसेन को समाजवाद का सच्चा प्रणेता कहा जाता है। दुनिया में आज जिस समाजवाद की बात की जाती है उसको पांच हजार वर्ष पूर्व महाराजा अग्रसेन ने सार्थक कर दिखाया था। महाराजा अग्रसेन ने तंत्रीय शासन प्रणाली के प्रतिकार में एक नयी व्यवस्था को जन्म दिया। अपने क्षेत्र में सच्चे समाजवाद की स्थापना हेतु उन्होंने नियम बनाया था कि उनके नगर में बाहर से आकर बसने वाले हर व्यक्ति की सहायता के लिए नगर का प्रत्येक निवासी उसे एक रुपया नगद व एक ईंट देगा, जिससे आसानी से उसके लिए निवास स्थान व व्यापार करने के लिये धन का प्रबन्ध हो जाए। उन्होंने पुनः वैदिक सनातन आर्य संस्कृति की मूल मान्यताओं को लागू कर राज्य के पुनर्गठन में कृषि-व्यापार, उद्योग, गौपालन के विकास के साथ-साथ नैतिक मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का बीड़ा उठाया। वे कर्मयोगी लोकनायक तो थे ही, संतुलित एवं आदर्श समाजवादी व्यवस्था के निर्माता भी थे। वे समाजवाद के प्रणेता, गणतंत्र के संस्थापक, अहिंसा के पुजारी व शांति के दूत थे। सचमुच उनका युग रामराज्य की एक साकार संरचना था जिसमें उन्होंने अपने आदर्श जीवन कर्म से, सकल मानव समाज को महानता का जीवन-पथ दर्शाया। उस युग में न लोग बुरे थे, न विचार बुरे थे और न कर्म बुरे थे। राजा और प्रजा के बीच विश्वास जुड़ा था। वे एक प्रकाश स्तंभ थे, अपने समय के सूर्य थे।
महाराजा अग्रसेन अग्रवाल जाति के पितामह थे। धार्मिक मान्यतानुसार इनका जन्म अश्विन शुक्ल प्रतिपदा को मर्यादा पुरुषोतम भगवान श्रीराम की चैंतीसवी पीढ़ी में सूर्यवंशी क्षत्रिय कुल के प्रतापनगर के महाराजा वल्लभ सेन के घर में द्वापर के अन्तिमकाल और कलियुग के प्रारम्भ में आज से लगभग 5187 वर्ष पूर्व हुआ था। वर्तमान में राजस्थान व हरियाणा राज्य के बीच सरस्वती नदी के किनारे प्रतापनगर स्थित था। राजा वल्लभ के अग्रसेन और शूरसेन नामक दो पुत्र हुये। अग्रसेन महाराज वल्लभ के ज्येष्ठ पुत्र थे। महाराजा अग्रसेन के जन्म के समय गर्ग ऋषि ने महाराज वल्लभ से कहा था, कि यह बहुत बड़ा राजा बनेगा। इसके राज्य में एक नई शासन व्यवस्था उदय होगी और हजारों वर्ष बाद भी इनका नाम अमर होगा।
महाराज अग्रसेन ने 108 वर्षों तक राज किया। महाराज अग्रसेन ने एक ओर हिन्दू धर्म ग्रंथों में वैश्य वर्ण के लिए निर्देशित कर्म क्षेत्र को स्वीकार किया और दूसरी ओर देशकाल के परिप्रेक्ष्य में नए आदर्श स्थापित किए। उनके जीवन के मूल रूप से तीन आदर्श हैं- लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था, आर्थिक समरूपता एवं सामाजिक समानता। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद कुलदेवी महालक्ष्मी से परामर्श पर वे आग्रेय गणराज्य का शासन अपने ज्येष्ठ पुत्र के हाथों में सौंपकर तपस्या करने चले गए। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र तथा जगत की उन्नति मूल रूप से जिन चार स्तंभों पर निर्भर होती हैं, वे हैं- आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक। अग्रसेनजी का जीवन-दर्शन चारों स्तंभों को दृढ़ करके उन्नत विश्व के नवनिर्माण का आधार बना है। लेकिन इसे समय की विडम्बना ही कहा जायेगा कि अगणित विशेषताओं से संपन्न, परम पवित्र, परिपूर्ण, परिशुद्ध, मानव की लोक कल्याणकारी आभा से युक्त महामानव महाराज अग्रसेन की महिमा से अनभिज्ञ अतीत से वर्तमान तक के कालखण्ड ने उन्हें एक समाज विशेष का कुलपुरुष घोषित कर उनके स्वर्णिम इतिहास कोे हाशिए पर डाल दिया है। वर्तमान में भी उनके वंशजों की बड़ी तादाद होने और राष्ट्र के निर्माण में उनका सर्वाधिक योगदान होने के बावजूद न तो उस महान् शासक को और न ही उनके वंशजों को सम्मानपूर्ण प्रतिष्ठा प्राप्त हो पा रही है।
अग्रसेनजी सूर्यवंश में जन्मे। महाभारत के युद्ध के समय वे पन्द्रह वर्ष के थे। युद्ध हेतु सभी मित्र राजाओं को दूतों द्वारा निमंत्रण भेजे गए थे। पांडव दूत ने वृहत्सेन की महाराज पांडु से मित्रता को स्मृत कराते हुए राजा वल्लभसेन से अपनी सेना सहित युद्ध में सम्मिलित होने का निमंत्रण दिया था। महाभारत के इस युद्ध में महाराज वल्लभसेन अपने पुत्र अग्रसेन तथा सेना के साथ पांडवों के पक्ष में लड़ते हुए युद्ध के 10वें दिन भीष्म पितामह के बाणों से बिंधकर वीरगति को प्राप्त हो गए थे। इसके पश्चात अग्रसेनजी ने ही शासन की बागडोर संभाली। उन्होंने बचपन से ही वेद, शास्त्र, अस्त्र-शस्त्र, राजनीति और अर्थ नीति आदि का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उनका विवाह नागों के राजा कुमुद की पुत्री माधवी से हुआ।
महाराजा अग्रसेन ने ही अग्रोहा राज्य की स्थापना की थी। उन्होंने कुशलतापूर्वक राज्य का संचालन करते हुए विस्तार किया तथा प्रजा हित में काम किए। वे धार्मिक प्रवृत्ति के पुरुष थे। धर्म में उनकी गहरी रुचि थी और वह साधना में विश्वास करते थे इसलिए उन्होंने अपने जीवन में कई बार कुलदेवी लक्ष्मीजी से यह वरदान प्राप्त किया कि जब तक उनके कुल में लक्ष्मीजी की उपासना होती रहेगी, तब तक अग्रकुल धन व वैभव से सम्पन्न रहेगा। उनके 18 पुत्र हुए, जिनसे 18 गोत्र चले। गोत्रों के नाम गुरुओं के गोत्रों पर रखे गए।
समाज व्यववस्था उनके लिए कर्तव्य थी, इसलिए कर्तव्य से कभी पलायन नहीं किया तो धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना, इसलिए उसे कभी नकारा नहीं। महाराजा अग्रसेनजी की इसी विचारधारा का ही प्रभाव है कि आज भी अग्रवाल समाज शाकाहारी, अहिंसक एवं धर्मपरायण के रूप में प्रतिष्ठित है। उस समय यज्ञ करना समृद्धि, वैभव और खुशहाली की निशानी माना जाता था। महाराज अग्रसेन ने बहुत सारे यज्ञ किए। एक बार यज्ञ में बली के लिए लाए गये घोड़े को बहुत बेचैन और डरा हुआ पा उन्हें विचार आया कि ऐसी समृद्धि का क्या फायदा जो मूक पशुओं के खून से सराबोर हो। उसी समय उन्होंने पशु बली पर रोक लगा दी। इसीलिए आज भी अग्रवंश समाज हिंसा से दूर ही रहता है। उनकी दण्डनीति और न्यायनीति आज प्रेरणा है उस संवेदनशून्य व्यक्ति और समाज के लिए जो अपराधीकरण एवं हिंसक प्रवृत्तियों की चरम सीमा पर खड़ा है। व्यक्तित्व बदलाव का प्रशिक्षण अग्रसेनजी की बुनियादी शिक्षा थी। आज की शासन-व्यवस्थाएं अग्रसेनजी की शिक्षाओं को अपनाकर उन्नत समाज का निर्माण कर सकती है।
अग्रसेनजी ने राजनीति का सुरक्षा कवच धर्मनीति को माना। राजनेता के पास शस्त्र है, शक्ति है, सत्ता है, सेना है फिर भी नैतिक बल के अभाव में जीवन मूल्यों के योगक्षेम में वे असफल होते हैं। इसीलिये उन्होंने धर्म को जीवन की सर्वोपरि प्राथमिकता के रूप में प्रतिष्ठापित किया। इसी से नये युग का निर्माण, नये युग का विकास वे कर सके। उनके युग का हर दिन पुरातन के परिष्कार और नए के सृजन में लगा था। सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों के नए संदर्भ जुड़े। परम्परा प्रतिष्ठित हुई। रीति-रिवाजों का स्वरूप सामने आया। सबको काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष की पुरुषार्थ चतुष्टयी की सार्थकता दिखलाई।
अग्रसेन जयन्ती के अवसर पर अग्र-वंशजों को भी संकल्पित हो और अतीत, वर्तमान और भविष्य के कालखण्ड से जुड़ी संस्कृति की समीक्षा करें और यह देखें कि निर्माण के नए दीए हमने कब और कहां, कितने और कैसे जलाने हैं ताकि अग्रवंश की दीये से दीया जलाकर रोशनी की परम्परा को सुरक्षित रखा जा सके। अग्रवंशजों को अपने अस्तित्व एवं अस्मिता को स्वतंत्र पहचान देनी है, देखने में आ रहा है कि वे विखंडित होकर दूसरी-दूसरी परम्पराओं को समृद्ध बना रहे हैं। स्वयं संगठित होकर ही महाराज अग्रसेन के सपनों को साकार कर सकेंगे और तभी अपनी शक्ति एवं समृद्धि से राष्ट्र के विकास में योगदान दे सकेंगे और यही उस महान् समाज-निर्माता शासक के प्रति हमारी विनम्र श्रद्धांजलि होगी।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

17,861 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress