भारत की वीरांगनाओं में रानी सारंधा का नाम बड़े ही सम्मान से लिया जाता है। सारंधा बुंदेला राजा चंपतराय की सहधर्मिणी थी। उन्होंने मुगलों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा उठाया और भारतीय स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर अपना अप्रतिम बलिदान दिया। उनके भीतर स्वाभिमान की भावना कूट-कूट कर भरी थी। भारतीय धर्म और वीर परंपरा के प्रति रानी का समर्पण अनुकरणीय है।
जब सारंधा छोटी ही अवस्था में थीं, तभी से उनकी देशभक्ति की पवित्र भावना स्पष्ट होने लगी थी। स्वतंत्रता के भाव उनमें कूट-कूटकर भरे थे, इसलिए आत्माभिमान की भी कोई न्यूनता उनमें नही थी। अपने देश और धर्म के प्रति यह बालिका पूर्णत: समर्पित थी, इसलिए जो लोग देश की स्वतंत्रता, देश के धर्म और देश की वीर परंपरा को मिटाकर यहां किसी अन्य धर्म-शासन की स्थापना करने के लिए संघर्षरत थे, सारंधा जन्मजात उनसे शत्रुता मानकर उत्पन्न हुई थी।
धिक्कारा भाई अनिरूद्घ को
जब देशभक्ति और स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति सारंधा यौवन में प्रवेश कर रही थी, तब उसका भाई अनिरूद्घ यवनों से हो रहे एक युद्घ से पीठ दिखाकर भाग आया था। परन्तु अनिरूद्घ की पत्नी शीतला को उसका इस प्रकार युद्घ से भाग आना अच्छा लगा। उसे पति का वियोग और विछोह प्रिय नहीं था। अत: बड़े प्रेमपूर्ण ढंग से उसने युद्घ से भागकर आये पति का स्वागत सत्कार किया। परंतु सारंधा को भाई का युद्घ क्षेत्र से इस प्रकार भागकर आना एक क्षण के लिए भी उचित नही लगा। उसने भाई से स्पष्ट कह दिया कि एक क्षत्रिय को युद्घ से भागकर आना शोभा नही देता। तुमने युद्घ से भागकर आकर कुल की मर्यादा को लज्जित किया है, तुम्हारे इस कार्य को मैं धिक्कारती हूं।
सारंधा की बात शीतला को तो अच्छी नही लगी, पर अनिरूद्घ पर उनकी धिक्कार का चमत्कारिक प्रभाव हुआ और वह लौट गया-युद्घभूमि के लिए। उसके जाने के पश्चात शीतला ने सारंधा पर व्यंग्य कसा-”देखूंगी जब अपने पति को इस प्रकार युद्घ के लिए भेजोगी ? अपने पति को तो तुम भी हृदय में छुपाओगी ?”
मेरा पति होता तो छुरा घोंप देती
सारंधा ने अपनी भाभी के इस प्रकार के व्यंग्य बाण पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि कि अनिरूद्घ तुम्हारे पति थे, इसीलिए छोड़ दिया, यदि देशधर्म की स्वतंत्रता से पीठ दिखाकर मेरा पति भागकर आया होता तो हृदय में छुपाकर छाती में छुरा घोंप देती। सारन्धा वीरांगना थी। उसके लिए यह पूर्णतया अनैतिक और पापपूर्ण कृत्य था कि उसका भाई युद्ध क्षेत्र से भागकर घर में आकर छुप जाए। कहा जाता है कि इस घटना से प्रेरित और अपमानित होकर युद्घभूमि में पहुंचे अनिरूद्घ ने शत्रु के विरुद्ध जमकर घोर युद्घ किया और उस युद्घ (महरौनी का) को जीतकर ही लौटा। वीरांगना बहन की लताड़ ने भाई के भीतर प्रवेश कर गई कायरता को ललकारा तो भाई ने देश और धर्म के प्रति अपने कर्तव्य को पहचाना, जिससे मां भारती धन्य हो गई।
ओरछा के राजा चंपतराय से हुआ विवाह
सारंधा जब यौवन में आयी तो उसका विवाह ओरछा के राजा चम्पतराय के साथ हुआ। चंपतराय बहुत ही वीर और स्वतंत्रता प्रेमी देश भक्त राजा थे। उनके पूर्वजों के भीतर भी देशभक्ति की भावना समाविष्ट रही थी। इस वीर परंपरा में जन्मे चंपतराय भी ऐसी ही देश भक्ति की पवित्र भावना से ओतप्रोत थे। रानी सारंधा की भी यही इच्छा थी कि उन्हें वीर और देशभक्त पति मिले। सारंधा को अपने पति की वीरता और स्वतंत्रता प्रेमी भावना पर बड़ा गर्व होता था। रानी प्रारंभ से ही विदेशी मल्च्छों के प्रति घृणा का भाव रखती थी। उनकी एक ही इच्छा थी कि मुगलों को यथाशीघ्र भारत की पवित्र भूमि से खदेड़ दिया जाए। सारा बुंदेला क्षेत्र अपने राजा और अपनी रानी की प्रतिष्ठा करता था, और उनके पीछे खड़े होकर अपनी स्वामी भक्ति और देशभक्ति का परिचय देता था। प्रजाजन भी अपने ऐसे राजा और अपनी ऐसी वीरांगना रानी को पाकर अपने आपको धन्य अनुभव करते थे।
बादशाह शाहजहां के दरबार में चंपतराय
समय परिवर्तनशील है। परिस्थितियों का प्रवाह ऐसा बना कि सारंधा के पति चंपतराय को बादशाह शाहजहां के दिल्ली दरबार में जाने के लिए बाध्य होना पड़ गया। चंपतराय ने अपना राज्य अपने भाई पहाड़सिंह को सौंप दिया और स्वयं अपनी रानी सारंधा सहित शाहजहां के यहां दिल्ली चला गया। सारंधा रानी से अलग,चंपतराय की पांच रानियां और भी थीं। चंपतराय को दिल्ली में सारी सुविधाएं प्रदान की गयीं। शाहजहां के लिए यह प्रसन्नता का विषय था कि चंपतराय जैसा शेर उसके पिंजड़े में आ गया था, इसलिए शाहजहां ने इस शेर को पिंजड़े में ही रखकर मार डालने की योजना बनाने आरंभ कर दी थी। यद्यपि राजा चंपतराय को शाहजहां के इस प्रकार के किसी आपराधिक षड़यंत्र की कोई जानकारी नहीं थी। राजा बड़ी पवित्र आत्मा के साथ अपने बादशाह का सम्मान करता था। साथ ही अपनी रानी सारंधा का पूर्ण ध्यान रखता था। रानी की प्रसन्नता में ही राजा अपनी प्रसन्नता अनुभव करता था।
तड़प रही थी सारंधा की आत्मा
चंपतराय और उसकी पांचों रानियां (सारंधा से अलग) सुख सुविधाओं के इस उपक्रम से अति संतुष्ट और प्रसन्न थे। परंतु सारंधा इस परतंत्रता को अपने लिए अपमान का विषय मानती थी, इसलिए उसके मन का मोर मर गया और वह बुझी-बुझी सी रहने लगी। रानी नहीं चाहती थी कि राजा चंपतराय अपनी स्वाधीनता को गिरवी रखकर किसी बादशाह की गुलामी करे। रानी की सोच थी कि चाहे अपना राज्य छोटा ही हो, परन्तु उसमें स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करना अलग बात है और गुलामी के पिंजरे में रहना अलग बात है।
शाहजहां के महल में उसका अति उदारचित्त वाला पुत्र दाराशिकोह भी था, जो कि बादशाह के राजकार्यों को संभालने में सहायता किया करता था। दाराशिकोह सनातन के वेद, उपनिषद् आदि ग्रंथों से बहुत प्रभावित था। वह मुसलमान होकर भी सनातन के मानने वाले हिंदुओं का बड़ा सम्मान करता था। उसकी मित्रता चंपतराय से हो गयी थी। जिससे चंपतराय को और भी अच्छा लगने लगा था। परन्तु चंपतराय जब अपनी सारन (सारंधा) को देखते तो उसके बुझे-बुझे से चेहरे को देखकर स्वयं भी दुखी से रहते थे। वह समझ नही पा रहे थे कि अंतत: रानी सारन उदास क्यों रहती है ? एक दिन उन्होंने अपनी रानी से पूछ ही लिया कि ” सारन ! तुम इतनी उदास सी क्यों रहती हो ? “
सारंधा ने पहले तो अपनी व्यथा को छुपाने का प्रयास किया, परंतु अन्त में उसने अपने ‘मन की बात’ कह ही दी। उसने कह दिया कि-‘राजन! ओरछा में मैं एक राजा की रानी थी, पर यहां मैं एक जागीरदार की चेरी हूं।’
वह बोली-
अवध की कौशल्या थी मैं,
जब ओरछा में था मेरा वास।
दिल्ली में हूं एक सेविका
सूने लगते हैं रनिवास।।
चेरी होकर भी खुश रहूं
स्वामी यह नही मेरे हाथ।
हे स्वतंत्रता के परमोपासक !
क्यों ज्योति बुझा रहे अपने हाथ।।
भारत के तुम भाल बनो,
माता की तुम ढाल बनो।
वैदिक धर्म के रक्षक हो ,
हर आतंकी के काल बनो।। (लेखक)
चंपतराय की आंखें खुल गयीं
रानी के इस प्रकार के स्वाभिमान और देशभक्ति से भरे विचारों को सुनकर राजा चंपतराय की आंखें खुल गयीं। वह समझ गये कि सारंधा के विचार कितने ऊंचे हैं ? रानी के भीतर शारीरिक वासना के स्थान पर राष्ट्र की उपासना का पवित्र भाव है। वह जीना चाहती है, परंतु स्वाभिमान के साथ। वह आगे बढ़ना चाहती है, परंतु सम्मान के साथ। वह चलना चाहती है परंतु सर झुकाकर नहीं सीना तानकर चलना चाहती है। सारंधा ने धर्मपतित पति के गिरते विचारों को थाम ही नहीं लिया था, अपितु उन्हें अधोगामी से ऊर्ध्वगामी भी बना दिया था। राजा चंपतराय के नेत्र सजल हो उठे। बड़े प्रेम से राजा ने सारंधा को गले लगा लिया। राजा को अपनी रानी के इस प्रकार के विचारों को सुनकर आज नए जीवन का बोध हुआ। उन्होंने तुरंत ओरछा लौटने का निर्णय लिया।
चंपतराय पुन: ओरछा लौट आये। ओरछा के लोगों को भी लगा कि राजा ने अपने ऐश्वर्यों को त्यागकर ‘ओरछा’ आकर उचित ही किया है। रानी सारंधा भी प्रसन्नवदन रहने लगी थीं। अपना ओरछा उनको बहुत ही आनंद प्रदान कर रहा था। अपने लोग, अपनी बगिया, अपने पेड़ – पौधे और अपना गगन सब उनसे स्वाधीनता के लिए वार्तालाप करते थे।
मुगल दरबार की राजनीति में आया परिवर्तन
उधर कुछ कालोपरांत बादशाह शाहजहां रूग्ण हो गया। तब उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का संघर्ष आरंभ हो गया। शाहजहां के पुत्र मुराद और मुहीउद्दीन दक्षिण से दिल्ली के लिए चल दिये। वर्षा के कारण चंबल का जल प्रवाह बहुत तीव्र था। दोनों शाहजादों ने यहां आकर डेरा डाल दिया। तब उन्होंने नदी पार करने के लिए राजा चंपतराय से सहायता प्राप्त करने का पत्र लिखा। चंपतराय ने रानी सारंधा से परामर्श लिया। रानी के परामर्श पर राजा शाहजादों की सहायता के लिए तैयार हो गया। यद्यपि शाहजादों की सहायता का अर्थ था दाराशिकोह जैसे परम मित्र से शत्रुता मोल लेना, पर सारंधा ने स्पष्ट कर दिया कि जिसने याचना की है, उसे निराश नही करना है। इसलिए उनकी सहायता करो, और शत्रु का विनाश कर दिल्ली को अपने आधीन करने की तैयारी करो। कहीं पर ऐसा भी लिखा है कि रानी के परामर्श पर राजा ने दाराशिकोह का साथ दिया था। बाद में जब दाराशिकोह का अंत हो गया तो औरंगजेब ने दाराशिकोह का साथ देने के कारण राजा और रानी का उत्पीड़न करना आरंभ कर दिया था। यद्यपि मुंशी प्रेमचंद का कथन है कि रानी के परामर्श पर राजा ने दाराशिकोह के विरुद्ध दो शाहजादों का सहयोग किया।
मुगलों से युद्घ
बड़े लक्ष्य को लेकर चंपतराय की सेना ओरछा दुर्ग से निकलकर चंबल की ओर चल दी। वीरांगना रानी ने भारत की आर्य वीर परंपरा का निर्वाह करते हुए अपने दो राजकुमारों व पति चंपतराय को युद्घ के लिए विदा किया। रानी के चेहरे पर तनिक भी तनाव नहीं था। उसने बड़े शांत भाव से युद्ध के लिए पति और पुत्रों को विदा किया। यही नहीं विदा के उन क्षणों में अपने पति और पुत्रों को अपनी ओजस्वी वाणी से संबंधित भी किया और इस बात के लिए प्रेरित किया कि युद्ध में प्राण भले ही चले जाएं, परन्तु पीठ नहीं दिखानी है। रानी के ओजस्वी विचारों से प्रेरित होकर राजकुमार और राजा चंपतराय चंबल की ओर बढऩे लगे। शाहजादों ने जब राजा की सेना को अपनी ओर आते देखा तो उनका साहस बढ़ गया। उधर शाही सेना में एक विशेष प्रकार की हलचल सी उत्पन्न हो गयी। युद्घ की विभीषिका वास्तविक युद्घ में परिवर्तित हो गयी। बुंदेलों की सहायता के लिए रानी सारंधा भी एक सेना लेकर पीछे से आ गयी। बहुत भयंकर युद्ध हुआ। रानी के अनेक सैनिकों ने अपना बलिदान दिया।
रानी ने पलट दिया युद्घ का परिणाम
रानी वीरांगना थी और उसे अपने पति के साथ युद्घ में रहना ही अच्छा लगता था, वह नही चाहती थी कि यह अनमोल जीवन विषय वासना में यूं ही व्यतीत हो जाए। इसके विपरीत उसका सपना था कि जीवन देश – धर्म के काम आये तो अच्छा है। इसलिए रानी पूरी तैयारी के साथ पीछे से आयी और उसने पश्चिम की ओर से बादशाही सेना पर इतना तीव्र प्रहार किया कि जो सेना अभी तक विजय की कहानी लिखने के निकट खड़ी थी, अब वही सेना भागने पर विवश हो गयी। रानी सारंधा ने युद्घ का परिणाम पलट दिया। लोग समझ नही पाये कि पश्चिम से सूर्योदय कराने का यह चमत्कार कैसे और किसने कर दिया ? राजा भी आश्चर्य चकित था कि यह चमत्कार कैसे हो गया ?
जब रानी सारंधा उसके सामने आयी और उसने घोड़े से उतरकर राजा के समक्ष अपना सिर झुकाया तो राजा चंपतराय को पता चला कि ‘सारंधा’ किसे कहते हैं ? राजा को अपनी सारन की इस वीरता पर बहुत अधिक प्रसन्नता की अनुभूति हुई। आज रानी ने राष्ट्र के भावों को उच्च कर दिया था। उसके हृदय पर नैतिक गौरव अंकित हो चुका था। जिसने प्रत्येक राष्ट्रवासी को गौरव बोध से भर दिया था।
मुंशी प्रेमचंद इस विषय में लिखते हैं :- ”अगर अनुभवशील सेनापति राष्ट्रों की नींव डालता है तो आन पर जान देने वाला मुंह न मोडऩे वाला सिपाही राष्ट्र के भावों को उच्च करता है और उसके हृदय पर नैतिक गौरव को अंकित कर देता है। उसे इस कार्यक्षेत्र में चाहे सफलता न हो, किंतु जब किसी वाक्य या सभा में उसका नाम जबान पर आ जाता है, श्रोतागण एक स्वर से उसके कीर्ति गौरव को प्रतिध्वनित कर देते हैं। सारंधा ‘आन’ पर जान देने वालों में थी।”
औरंगजेब ने दी जागीर
बादशाह शाहजहां के उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगजेब विजयी हो चुका था। उसने अपने भाई दाराशिकोह का क्रूरतापूर्वक अंत कर दिया था। इसके साथ-साथ अपने पिता शाहजहां को उठाकर आगरा के लाल किले की जेल में डाल दिया था। औरंगजेब ने इस युद्घ के पश्चात राजा चंपतराय को कृतज्ञतावश ओरछा से बनारस और बनारस से यमुना तक के क्षेत्र की जागीर प्रदान की। यह जागीर भी ओरछा के राजा के लिए गर्व का विषय हो सकता था, परंतु सारंधा के लिए नही। क्योंकि सारंधा ने चाहे दाराशिकोह जैसे उदार शाहजादे के विरूद्घ औरंगजेब को युद्घ में अपना समर्थन दिया हो, पर यह समर्थन उसने केवल अपना धर्म मानकर दिया था, वह इसका कोई ऐसा प्रतिकार नही चाहती थी, जिसमें उसकी स्वतंत्रता और निजता ‘पिंजड़े का पंछी’ बनकर रह जाए। वह किसी की दया पर निर्भर होकर रहना नहीं चाहती थी। वैसे भी उस समय राजा को जिससे दया की ऐसी भीख मिल रही थी, रानी उन लोगों से इस भीख को लेने को तैयार नहीं थी। क्योंकि उसके लिए मुगल किसी भी दृष्टिकोण से स्वीकार्य नहीं थे।
…और यही तो हो गया था। विशाल जागीर मिल जाने के उपरांत राजा चंपतराय पुन: सुख प्राप्ति के लिए भोग विलास में डूब गये।
रानी इस बात के विरुद्ध थी कि राजा राष्ट्र धर्म के प्रति मौन साधकर भोग विलास में डूबकर रह जाए। यही कारण था कि रानी सारंधा की आत्मा पुनः विद्रोही बनने लगी। उसकी वही उदासी पुन: लौट आयी जो दिल्ली दरबार के सम्मान को पाकर उसके आसपास डेरा डालकर बैठ गयी थी। तब उसका मौन भी कुछ बोलता था और अब फिर उसका मौन राजा चंपतराय से कुछ कहने लगा। राजा भोग विलास में मग्न रहकर भी सारंधा के मौन को लेकर चिंतित रहते थे। वह अपनी जीवनसंगिनी की प्रकृति को जानते थे। अतः यह भी भली प्रकार जानते थे कि रानी की उदासी का कारण क्या है ?
वली बहादुर का घोड़ा और रानी सारंधा
युद्घ के समय औरंगजेब का एक विश्वसनीय योद्घा वली बहादुर जब गंभीर रूप से घायल हो गया तो उसका घोड़ा घायल पड़े वली बहादुर के पास ही खड़ा हुआ था। समर भूमि में रानी सारंधा ने उस घोड़े की सुंदरता को देखकर उसे अपने लिए प्राप्त कर लिया। एक दिन उसी घोड़े की सवारी करता राजकुमार छत्रसाल वली बहादुर की ओर जा निकला। वली बहादुर को भी उसकी निष्ठा के कारण औरगंजेब ने विशेष सम्मान देकर दरबार में उसकी प्रतिष्ठा में वृद्घि की थी। इसलिए वह भी उस समय का एक प्रमुख व्यक्ति था। वली बहादुर ने जब देखा कि छत्रसाल उस घोड़े को लेकर उसकी ओर ही आ गया है तो उसने वह घोड़ा छत्रसाल से छिनवा लिया। रानी ने जब यह समाचार सुना तो वह क्रोध से तमतमा उठी। उसने छत्रसाल को धिक्कारा-”घोड़ा देकर भी जीवित लौट आया ? क्या तेरे शरीर में बुंदेलों का रक्त नही है ? ….तुझे अपनी वीरता का प्रदर्शन करना चाहिए था।”
इसके पश्चात स्वाभिमानी और स्वतंत्रता प्रेमी रानी घोड़े को प्राप्त करने के लिए अपने विश्वसनीय 25 योद्घाओं को साथ लेकर युद्घ की मुद्रा में वली बहादुर के निवास पर जा पहुंची। वली बहादुर खां उसी घोड़े से सवार होकर औरंगजेब के दरबार में चला गया था। रानी ने भी वहीं जाने का निर्णय लिया।
रानी सिंहनी की भांति दहाड़ती हुई अपने शिकार पर दरबार में ही जाकर टूट पड़ी। रानी ने वली बहादुर खां को ऐसे कठोर शब्दों में लताड़ा कि थोड़ी देर में ही वहां घोड़े को लेकर युद्घ आरंभ हो गया। बादशाह ने रानी को समझाया भी कि एक घोड़े के लिए युद्घ मत करो, परंतु रानी ने बादशाह को स्पष्ट कर दिया कि ” बादशाह ! बात घोड़े की नही है-बात मेरी आन की है, और आन के लिए प्राण भी गंवाने में एक क्षत्रिय को तनिक सा भी विलंब नही करना चाहिए और अंत में रानी ने वली बहादुर को परास्त कर घोड़ा ले ही लिया।”
रानी की वीरता को देखकर स्वयं औरंगजेब भी दंग रह गया था। उसने कल्पना में भी नहीं सोचा था कि तेरी उपस्थिति में रानी तेरे ही विश्वसनीय वली बहादुर का इस प्रकार अपमान कर देगी ? औरंगज़ेब अपमान और प्रतिशोध की भावना से भर गया। अब उसने भी ” काफिर ” रानी और उसके पति राजा चंपतराय को दंडित करने का मन बना लिया।
सारी जागीर से हाथ धोना पड़ गया
रानी ने घोड़ा ले लिया पर सारी जागीर से उसे हाथ धोना पड़ गया। राजा चंपतराय के लिए यह सब कुछ बहुत असहनीय हो गया था, उसे लगा कि जीवन भर के पुरूषार्थ से जो कुछ पाया था-जैसे वह सारा का सारा ही हाथ से निकल गया है। अपने सामने ही जब व्यक्ति के सपनों की मृत्यु होती है तो उसे कितना कष्ट होता है ? -उसे केवल वही जानता है। परंतु चंपतराय यह भी जानते थे कि रानी सारंधा के सामने इन सब बातों के लिए रोना व्यर्थ ही सिद्घ होगा। इसलिए वह चुप रहा। राजा ने पुन: अपनी रानी सारन की प्रसन्नता के लिए सब कुछ सहज रूप में स्वीकार कर लिया। वर्तमान जिस रूप में सामने खड़ा हो, उसे उसी रूप में स्वीकार कर लेना बुद्धिमानों का काम होता है। राजा वीर तो थे ही बुद्धिमान भी थे। उन्होंने बिना किसी कष्ट के वर्तमान का स्वागत किया। जब – जब वर्तमान ने उनसे विद्रोही बनकर सुख-भोग को त्यागने और दुखों को उठाने के लिए कहा, तब तब राजा ने रानी की प्रसन्नता के लिए वैसा ही करना स्वीकार कर लिया।
औरंगजेब ने पाल ली थी शत्रुता
समय बीतने लगा। उधर औरंगजेब को रानी सारंधा की स्वाभिमानी और स्वतंत्रता प्रेमी भावना घायल कर गयी थी। औरंगजेब के लिए यह तो और भी अधिक कष्टकारी था कि एक हिंदू महिला उसे भरे दरबार में अपमानित कर गयी और उसके प्रस्ताव को सबके सामने उसने अस्वीकार कर दिया। अत: औरंगजेब ने भी रानी सारंधा को समाप्त करने की तैयारी करनी आरंभ कर दी। तब बादशाह ने शुभकरण नामक एक हिंदू सूबेदार को राजा चंपतराय के विरूद्घ युद्घ अभियान पर भेजा। शुभकरण चंपतराय का बचपन में सहपाठी भी रहा था। मुगल बादशाहों की यह विशेषता रही थी कि वे भारत के वीरों के विरुद्ध भारत के ही लोगों को प्रयोग करते थे। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि ऐसा अनेक बार हुआ, जब भारत के वीर - वीरांगनाओं को समाप्त करने के लिए अपने ही लोग विदेशी मुगल शासकों के कहने पर उनका विनाश करने के लिए चल दिए। शुभकरण आज अपने मित्र के लिए ही अशुभ का कारण बनकर अशुभकरण हो चुका था।
दुर्भाग्य से राजा चंपतराय के कई दरबारी भी उससे टूटकर औरंगजेब से आ मिले थे। परन्तु राजा चंपतराय ने और रानी सारंधा ने अपना धैर्य और साहस नही खोया, उन्होंने बड़े शांतमन से युद्घ की तैयारी करनी आरंभ कर दी। दोनों पक्षों में घोर संग्राम हुआ। राजा चंपतराय युद्घ में जीत गये। यद्यपि उन्हें अपने साथियों के धोखे भी झेलने पड़े, परंतु स्वतंत्रता के लिए तो सब कुछ सहन करना पड़ता है। राजा ने अपनी शक्ति को पहचाना, इसलिए उन्होंने निर्णय लिया कि ओरछा से अब निकल जाना ही उचित होगा। अत: राजा ओरछा को छोडक़र तीन वर्ष तक बुंदेलखण्ड के वनों में छिपकर घूमते रहे। औरंगजेब जैसे बादशाह के विरुद्ध राजा चंपतराय और रानी सारंधा की यह बहुत बड़ी विजय थी । इससे उन्हें यश और प्रसिद्धि प्राप्त हुई। देश और धर्म के लिए काम करने वाले लोगों के वह प्रेरणा के स्रोत बने। उनका यश दूर-दूर तक फैल गया। पूरे देश में राष्ट्रवादी लोगों ने उनके सम्मान के गीत गाए। यद्यपि इस विजय के पश्चात राजा के लिए कई प्रकार के संकट बढ़ गएथे। उन संकटों को पहचान कर विजयी राजा ने विचार किया कि प्रजा को अनचाहे संकटों में डालने के स्थान स्वयं संकट झेलना कहीं अधिक उपयुक्त होगा।
राजा चला गया वनों की ओर
राजा को स्वाभिमान के लिए और आत्म सम्मान की रक्षार्थ महाराणा प्रताप का अनुगामी बनना पड़ गया। वैसे संकट काल में एक नही, अनेक भारतीय राजाओं ने ‘महाराणा प्रताप’ बनकर वनों में अपना समय व्यतीत किया है। संकट कब आ जाए, और कब राजसी वैभव त्यागना पड़ जाए ? – यह कुछ पता नही होता। संभवत: राजा के लिए भी अंत में संन्यस्त हो जाने की परंपरा इसीलिए डाली गयी थी कि वन को भी ‘उपवन’ मानो और इस संसार को भी। इसलिए हमारे राजा वन जाने को सहर्ष तत्पर रहते थे। वनों से ‘ मुक्ति ‘ मिलती थी।
रानी सारंधा भी निभा रही थी साथ
चंपतराय भी मुक्ति का साधक बनकर वनों में घूम रहे थे। साथ में रानी सारंधा अपना पत्नी-धर्म निभा रही थीं, और कर्त्तव्य मार्ग पर चल रहे पति का उत्साहवर्धन करने में तनिक भी पीछे नही रहती थीं। वह स्वतंत्रता की देवी बन गयी थीं और अपने देव (पति) की आराधना को अपने जीवन का ध्येय ही मान बैठी थीं। यही कारण था कि रानी ने संकट के समय में पति के साथ रहना उचित माना। उन्होंने मन में ठान लिया था कि यदि पतिदेव की रक्षा करते-करते प्राण भी देने पड़े तो भी वह पीछे नहीं हटेगी।
औरंगजेब ने राजा चंपतराय को बंदी बनाने के लिए अनेक प्रयास किये। कितने ही लोगों को इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए नियुक्त भी किया, परन्तु सभी प्रयास असफल रहे। तब अंत में चंपतराय की गिरफ्तारी का दायित्व बादशाह ने स्वयं अपने ऊपर लिया। बादशाह ने अपनी योजना को सिरे चढ़ाने के लिए छल और कपट का सहारा लिया। मुगल बादशाहों ने ऐसा एक बार नहीं अनेक बार किया, जब हमारे वीरों को उन्होंने छल और कपट से या तो गिरफ्तार किया या उन्हें मरवा दिया। अपनी योजना के अंतर्गत औरंगजेब ने बादशाही सेना हटा लिया। जिस राजा को भ्रम में डाला जा सके। अन्त में यही हुआ। राजा को लगा कि संभवत: बादशाह ने हार मान ली है और अब उसके लिए कोई भय नही रह गया है।
रानी सारंधा की कूटनीति
राजा अपने किले में ओरछा आ गया। राजा की ओरछा लौटते हैं औरंगजेब ने ओरछा दुर्ग का घेरा डाल दिया। इस बार उसकी पूरी योजना थी कि शिकार को छोड़ना नहीं है। उसने ओरछा में आकर भारी विनाश मचाया। किले में भीतर लगभग 20,000 व्यक्ति बंद थे, लगभग तीन सप्ताह किले की घेराबंदी को हो गये थे। राजा की शक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होती जा रही थी। राजा इस समय ज्वर से पीडि़त थे, उन्हें एक दिन लगा कि जैसे शत्रु आज किले में आ जाएंगे। उन्होंने सारंधा के साथ विचार-विमर्श किया। सारंधा ने किले से बाहर निकल जाने का प्रस्ताव राजा के समक्ष रखा। परंतु राजा अपनी प्रजा के लोगों को इस दशा में छोडक़र जाने की रानी के परामर्श से सहमत नही थे। रानी ने भी समझा कि संकट के समय अपने सहयोगियों को यूं ही छोड़ जाना उचित नही है। रानी ने अपने पुत्र छत्रसाल को बादशाही सेना के पास संधि प्रस्ताव लेकर भेजा, जिससे कि निर्दोष लोगों के प्राण बचाये जा सकें। अपने देशवासियों की रक्षा के लिए रानी ने अपने प्रिय पुत्र को संकट में डाल दिया। छत्रसाल स्वेच्छा से बादशाह के शिविर में चला गया।
बादशाह औरंगजेब का प्रतिज्ञापत्र
बादशाह ने छत्रसाल को अपने पास रख लिया और प्रजा से कुछ न कहने का प्रतिज्ञा- पत्र भिजवाना सुनिश्चित किया। रानी को यह प्रतिज्ञा-पत्र उस समय मिला, जब वह प्रात:काल में मंदिर जा रही थी। रानी ने प्रतिज्ञा-पत्र पढ़ा, पढक़र उसे प्रसन्नता हुई, पर पुत्र छत्रसाल के खोने का दुख भी हुआ। रानी ने राजा को प्रस्ताव दिखाया, राजा चंपतराय को छत्रसाल के विषय में सुनकर असीम दुख हुआ, वह मूर्छित होकर गिर पड़े। परन्तु सारंधा तो मां होकर भी शेरनी बनी खड़ी थी। रानी ने असीम धैर्य का प्रदर्शन करते हुए राजा को संभाला। यद्यपि स्वाभिमानी रानी के लिए भीतर से यह विषय अत्यंत वेदना का था। पुत्र को मुस्लिम बादशाह के यहां गिरवी रख देना रानी के लिए अत्यंत कष्टकारी था, परंतु उस समय जनता को संकट में न डालकर तात्कालिक आधार पर रानी ने ऐसा करना ही अपना धर्म समझा था।
संकट ने आ घेरा रानी को
अब रानी ने चंपतराय को अंधेरे में किले से निकालने की योजना बनाई। आज उसे शीतला से किये गये वचन भी स्मरण आ रहे थे। रानी राजा को लेकर पश्चिम की ओर लगभग दस कोस निकल गयी थी। राजा पालकी में अचेतावस्था में थे। जो लोग साथ में थे, उन सबको प्यास ने घेर लिया था। अचानक पीछे से एक सैनिक दल आता दिखाई दिया। रानी ने देखा कि वह बादशाह के सैनिक थे।
रानी ने संकट को भांप लिया। रानी ने समझ लिया कि संकट अब अत्यंत निकट आ चुका है। राजा की स्थिति को देखकर रानी यह भी समझ गई कि अब अंतिम समय भी आ चुका है। साहसिक निर्णय लेते हुए रानी ने डोली रूकवा दी। राजा डोली में से किसी प्रकार बाहर निकले पर रूग्णावस्था के कारण शरीर अशक्त हो चुका था। इसलिए बाहर आकर खड़े हुए तो गिर पड़े। वह युद्ध करने की स्थिति में नहीं थे, परन्तु निश्चेष्ट रहकर कायरों की भांति चुपचाप शत्रु के हाथों मर जाना भी अच्छा नहीं मान रहे थे। राजा युद्ध के लिए लालायित थे, परन्तु इस समय उनका शरीर साथ नहीं दे रहा था।
रानी की अंतिम समय की वीरता
रानी की आंखें सजल हो उठीं। उसे ज्ञात हो गया कि स्वतंत्रता और सम्मान के लिए जो सबसे बड़ा मूल्य चुकाया जाता है, आज उसे देने का समय आ गया है। राजा ने परिस्थिति को देखा, समझा और तुरंत निर्णय लिया। रानी से बोले-”सारन! तुमने सदा मेरे सम्मान को द्विगुणित करने का काम किया है। एक काम करोगी?”
रानी ने आंखों से आंसू पोंछते हुए साहस के साथ कहा-”अवश्य महाराज।”
राजा ने कहा-‘मेरी अंतिम याचना है-इसे अस्वीकार मत करना।’
रानी ने अपनी तलवार अपने हाथों में ले ली। बोली-‘महाराज यह आपकी आज्ञा नहीं मेरी इच्छा है कि आपसे पहले मैं संसार से जाऊं।’
रानी राजा का आशय नही समझ पायी थी। तब राजा ने कहा – मेरा आशय है कि अपनी तलवार से मेरा सिर काट दो। मैं शत्रु की बेडिय़ां पहनने के लिए जीवित नही रहना चाहता।
रानी ने कहा-‘नही महाराज! मेरे से यह अपराध नही हो सकता।’
इसी समय रानी के सैनिकों में से अंतिम सैनिक को भी शत्रु ने समाप्त कर दिया। रानी ने कठोर निर्णय लिया और अपने पति का अपने हाथों से हृदय छेद दिया।
स्वयं भी विदा हो गयी रानी
बादशाह के सैनिक रानी के साहस को देखकर दंग रह गये। सरदार ने आगे बढक़र रानी से कहा-
” हम आपके दास हैं, हमारे लिए आपका क्या आदेश है। मुंशी प्रेमचंद जी लिखते हैं-सारंधा ने कहा-”अगर हमारे पुत्रों में से कोई जीवित हो, तो ये दोनों लाशें उसे सौंप देना। यह कहकर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली। जब वह अचेत होकर धरती पर गिरी, उसका सिर राजा चंपतराय की छाती पर था।”
यह है हमारे देश का इतिहास। यहां के वीरों और वीरांगनाओं के वीरोचित कृत्य जिनके कारण यह देश लंबे काल के संकट (जिसे हम अज्ञानतावश अपना पराधीनता का काल कह देते हैं) से मुक्त होकर आज स्वतंत्र है। स्वतंत्रता की बलिवेदी पर जब-जब कोई पुष्प चढ़ाने जाएगा, तब-तब उसे चंपतराय और रानी सारंधा का प्रेरक जीवन अवश्य ही प्रेरित करेगा कि झुकना नही है और स्वतंत्रता के लिए चाहे जो बलिदान देना पड़े उसे सहर्ष दिया जाए।
(यह लेख मुंशी प्रेमचंद जी की ऐतिहासिक कहानी ‘ रानी सारंधा ‘ के आधार पर तैयार किया गया)
डॉ राकेश कुमार आर्य