राजनीति

महाश्वेता, मेधा, अरुंधती और अंधकारमय भारत का भविष्य

-पंकज झा

सवाल तो यह है कि अगर टुच्चे लुटेरों के लिए भारतीय दंड संहिता के पन्ने काम आये तो अरुंधती के लिए गाँधी वांग्मय इस्तेमाल करने का दोहरापन क्यू?

प्रख्यात लेखिका मन्नू भंडारी की आत्मकथा है ‘एक कहानी यह भी’. इस कृति के बहाने यूं तो वह अपने और राजेन्द्र जी के सबंधों में रहे उतार-चढाव को ही मुख्य रखने की कोशिश की है. लेकिन प्रसंगतः उस किताब में वह महाश्वेता देवी के बारे में एक बड़ी बात कह जाती हैं. बकौल मन्नू जी, वह पहली बार महाश्वेता जी के नेतृत्व में एक साहित्यिक शिष्टमंडल को लेकर जर्मनी के दौरे पर थी. वहां पर महाश्वेता जी का दिन भर का कार्यक्रम यही रहता था कि किस तरह भारत की गरीबी, दुर्दशा, अराजकता, बेकारी, महामारी को व्यक्त कर, अपने ही देश को बदनाम करते हुए और वहां के (या वो जहां भी हो तहां के) मीडिया की सुर्खियां बटोरती रहे. वहां के मीडियाकर्मियों के देश के प्रति हिकारत का भाव तथा देश के तमाम विसंगतियों को ‘बेचने’ की जद्दोज़हद में लगी हज़ार चौरासी की आदरणीय मां. उसी प्रसंग में मन्नू जी आगे लिखती हैं कि जब उन्होंने महाश्वेता जी से इस बाबत असहमति दर्ज की तो वही भाव चेहरा पर लिए उन्होंने प्रतिप्रश्न किया…क्या मैं झूठ बोल रही हूं? ऐसा नहीं है क्या? जबकि इसके उलट मन्नू जी से जब हिंसा को लेकर सवाल पूछा गया तो वहां के मीडिया के लिए उलटा सवाल था इनका कि क्या हिटलर के देश के लोग, करोडों की क्रूरतम हत्या के जिम्मेदार देश के लोग अब गांधी के देशवासी को अहिंसा सिखाएंगे?

तो यह वास्तव में दो तरह की भावनाएं हैं और दोनों ही सही है अपनी जगह. तय करना केवल आपको होता है कि आप अपना नज़रिया क्या रखना चाहते हैं. कम से कम जब आप कहीं और अपने देश का प्रतिनिधित्व कर रही हों तो आपका नागरिक बोध क्या कहता है? पक्ष भले ही आपके हिसाब से सच का हो लेकिन ‘विभीषण’ की तारीफ़ कही नहीं होनी चाहिए. अभी जब कनाडा ने जब एक सिपाही को बीएसफ द्वारा कथित तौर पर मानवाधिकार हनन किये जाने के बहाने से अपने देश में आने की अनुमति नहीं दी तब महाश्वेता जी जैसों का दुष्प्रचार याद आता है. यह सही है कि महाश्वेता जी का इतना विशाल स्ट्रेचर है कि उनकी आलोचना ढेर सारी समस्यायों को दावत देना है लेकिन अभिव्यक्ति के खतरे तो उठाने ही होंगे. बात चाहे उनकी हो या मेधा पाटकर या अरुंधती राय की. सबमें एक साम्य यही है कि इन सबों ने देश की तमाम तकलीफों को एक ‘उत्पाद’ मान लिया है. ज़रूरी नहीं कि इस उत्पाद को बेच कर केवल पैसा ही कमाया जाय. हो सकता है कि दौलत, शोहरत, इज्ज़त, अपने होने का मतलब, अपनी बौद्धिकता को स्थापित करने की आकांक्षा, या चर्चा में बने रहने का शिगूफा…आप जो चाहें मान सकते हैं लेकिन तथ्यों के आलोक में बात बस इतनी ही दिखती है. निश्चित तौर पर डेढ अरब के करीब होने जा रहे देश में सबकुछ अच्छा ही अच्छा नहीं हो सकता. समस्यायों के विरुद्ध आवाज़ उठाना, लड़ने का ज़ज्बा पैदा करना निश्चित ही एक जीवंत लोकतंत्र की निशानी है. लेकिन उसका क्या किया जाय जब, जिस लोकतंत्र ने आपको अभिव्यक्ति का यह अवसर मुहय्या कराया है उसी का जड खोदने में आप लग जाय.

अभी अरुंधती की बात करें तो खबर के अनुसार उसने अब घोषित तौर पर सशत्र संघर्ष का समर्थन करते हुए देश को यह चुनौती दी है कि वह चाहें तो राय को जेल भेज दें. वह नक्सलियों के हिंसा का समर्थन करती रहेंगी. साथ ही यह भी कि गांधीवाद आज बिलकुल अप्रासंगिक हो गया है. जो भी हासिल हो सकता है आज वह केवल हिंसा से ही. हालाकि जैसा की उन लोगों की रणनीति रहती है, बयान का खंडन भी आ गया. जिस कार्यक्रम में यह कहा गया था उसके आयोजकों का कहना है कि राय को गलत तरह से उद्धृत किया गया है. लेकिन अपनी जानकारी के अनुसार ‘यु ट्यूब’ पर भी अरुंधती का पूरा व्याख्यान उपलब्ध है. हालाकि कुछ देर के लिए अगर ऐसा मान भी लिया जाय कि वैसा कुछ वहां नहीं कहा उन्होंने तो क्या अब वह ‘आउटलुक’ में लिखे लेख का जिनमें राज्य का मजाक उड़ाते हुए जी भर कर नक्सलियों को महिमामंडित किया गया है उससे भी इनकार कर देंगी? उस लेख पर भी अगर आप गौर करें तो पता चलेगा कि किस तरह अरुंधती हर स्थापित संस्थाओं और कानुनों का उल्लंघन करती नज़र आती है. चुकि सम्बंधित हर बातों पर पहले ही काफी कुछ लिखा जा चुका है तो उसको दुहराने का कोई मतलब नहीं है. लेकिन सवाल कुछ नए और पैदा हो रहे हैं.

लगभग मुख्यधारा के हर लेखकों ने अरुंधती की आलोचना करते हुए उनके गैरकानूनी और देशद्रोही कृत्यों की आलोचना की है. लेकिन लेखकों का यह कहना कि बावजूद उसके इन सबसे गांधीवादी तरीके से ही निपटा जाय, क्या यह उचित है? यह पक्ष ठीक हो सकता है कि अगर अरुंधती जैसे लोगों को जेल भेज दिया जाय तो भला तो उसका ही होगा. ज़ाहिर है ऐसा ही वह चाहती भी हैं कि एक वाहियात सा मामूली चीज़ों को अगर देवता बना कर बुकर ले आती हैं.ऐसे ही कुछ दिन जेल में रह जाने पर एक सामान्य ग्रामीण डॉक्टर भी ‘जोनाथन’ ले आता है और कथित तौर पर बाईस नोबेल विजेताओं का समर्थन भी. तो क्या पता साल भर जेल में बंद रहने के बाद तो राय के भी नोबेल का सपना ही पूरा हो जाय.उस नोबेल का जिसे ‘सार्त्र’ ने बोरे भर आलू से भी कम महत्वपूर्ण माना हो. लेकिन क्या इस आशंका के कारण हम उस पर कोई कारवाई ना करें? राज्य का तो यह दोहरा चरित्र ही कहा जाएगा कि वह सामान्य से जेबकतरों या सड़क छाप गुंडों को तो दण्डित करती है. सरे-आम उन छोए-छोटे अपराधियों का जुलुस निकालती है. और अरुंधती को खुले जानवर की तरह ऐसे ही दुष्प्रचार कर मदनवाडा, दांतेवाडा से लेकर मिदनापुर तक नरसंहार की पृष्ठभूमि तैयार करते रहने दे. सवाल तो यह है कि अगर टुच्चे लुटेरों के लिए भारतीय दंड संहिता के पन्ने काम आये तो इतनी बडी अपराधी के लिए गाँधी वांग्मय इस्तेमाल करने का दोहरापन क्यू? निश्चय ही अगर अपराध है (और है भी) तो राज्य को चाहिए कि बिना किसी बात का परवाह किये सबको सामान समझे, आदमी चाहे कितना भी बड़ा हो क़ानून का साफल्य इसी में है कि वह अपने तराजू पर एक ही समझे हर अपराधी को. साथ ही इस बात का ध्यान रखना भी उचित होगा कि ‘दंड’ वास्तव में दंड जैसा लगे. किसी भी सजायाफ्ता या विचाराधीन को एक सामान्य कैदी को मिली सुविधाओं को ही भोगने की आजादी हो. ‘कलम’ जब अपने ही लोगों को मारने का हथियार बन जाय तो ऐसे कलमकारों के हाथ से कलम छीन लेना ही सबसे बड़ा उपाय है. वास्तव में भारतीय लोकतंत्र के वैचारिक अपराधी को ‘खत्म’ करने का यही एकमेव उपाय है.