धर्म-अध्यात्म

महात्मा गांधी की दृष्टि में धर्मांतरण

-समन्वय नंद

धर्मांतरण का क्या अर्थ है। क्या यह केवल किसी व्यक्ति उपासना पद्धति बदलने को धर्मांतरण कहते हैं। क्या केवल यह इतना तक सीमित है। अगर ऐसा हो तो इस पर आपत्ति क्यों जताई जाती है। वास्तव में धर्मांतरण का अर्थ उपासना पद्धति बदलने तक सीमित नहीं है। धर्मांतरण से आस्थाएं बदल जाती है, पूर्वजों के प्रति भाव बदल जाता है। जो पूर्वज पहले पूज्य होते थे, धर्मांतरण के बाद वही घृणा के पात्र बन जाते हैं। खान पान बदल जाता है, पहनावा बदल जाता है। नाम बदल जाते हैं, विदेशी नाम, जिसका अर्थ स्वयं उन्हें ही मालूम नहीं हो ऐसे नाम धर्मांतरण के बाद रखे जाते हैं। इसलिए धर्मांतरण का वास्तविक अर्थ राष्टांतरण है। शायद इसी लिए पूरे विश्व में भारत की ध्वजा को फहराने वाले संन्यासी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अगर कोई धर्मांतरित होता है तो एक हिन्दू घट गया ऐसा नहीं है, बल्कि देश में एक शत्रु बढ जाता है।

पर इस मामले में महात्मा गांधी क्या सोचते थे। महात्मा गांधी धर्मांतरण का तीव्र विरोध करते थे। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि उनके इस पक्ष को लोगों के सम्मुख नहीं लाया गया अथवा इसके लिए ठीक से प्रयास नहीं किये गये। महात्मा गांधी भारत की आत्मा को पहचानते थे। उन्होंने ईसाइय़ों के साथ सर्वाधिक संवाद स्थापित किया था। उनके जीवन में ऐसे कई अवसर आये जब ॉर मिशनरियों ने उन्हें धर्मांतरित करने का प्रयास किया। गांधी जी इससे विचलित नहीं हुए बल्कि तर्कों के आधार पर उन्हें उत्तर दिया।

धर्मांतरण के प्रति उनका भाव क्या था उन्होंने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है। यह तब की बात है जब वह विद्यालय में पढते थे। उन्होंने लिखा कि “ उन्हीं दिनों मैने सुना कि एक मशहूर हिन्दू सज्जन अपना धर्म बदल कर ईसाई बन गये हैं। शहर में चर्चा थी कि बपतिस्मा लेते समय उन्हें गोमांस खाना पडा और शराब पीनी पडी। अपनी वेशभूषा भी बदलनी पडी तथा तब से हैट लगाने और यूरोपीय वेशभूषा धारण करने लगे। मैने सोचा जो धर्म किसी को गोमांस खाने शराब पीने और पहनावा बदलने के लिए विवश करे वह तो धर्म कहे जाने योग्य नहीं है। मैने यह भी सुना नया कनवर्ट अपने पूर्वजों के धर्म को उनके रहन सहन को तथा उनके देश को गालियां देने लगा है। इस सबसे मुझसे ईसाइयत के प्रति नापसंदगी पैदा हो गई। ” ( एन आटोवाय़ोग्राफी आर द स्टोरी आफ माइं एक्सपेरिमेण्ट विद ट्रूथ, पृष्ठ -3-4 नवजीवन, अहमदाबाद)

गांधी जी का स्पष्ट मानना था कि ईसाई मिशनरियों का मूल लक्ष्य उद्देश्य भारत की संस्कृति को समाप्त कर भारत का यूरोपीयकरण करना है। उनका कहना था कि भारत में आम तौर पर ईसाइयत का अर्थ है भारतीयों को राष्टीयता से रहित बनाना और उसका यूरोपीयकरण करना।

गांधीजी ने धर्मांतरण के लिए मिशनरी प्रयासों के सिद्धांतों का ही विरोध किया। गांधी जी मिशनरियों आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति नहीं मानते थे बल्कि उन्हें प्रोपगेण्डिस्ट मानते थे। गांधी जी ने एक जगह लिखा कि “ दूसरों के हृदय को केवल आध्यात्मिक शक्तिसंपन्न व्यक्ति ही प्रभावित कर सकता है। जबकि अधिकांश मिशनरी बाकपटु होते हैं, आध्यात्मिक शक्ति संपन्न व्यक्ति नहीं। “ ( संपूर्ण गांधी बाङ्मय, खंड-36, पृष्ठ -147)

आम तौर पर देखा जाता है ईसाई पादरी व मिशनरी देवी देवताओं को, परंपराओं को गाली देते रहते हैं। ईसाई पादरी व मिशनरी भारत व भारतीय संस्कृति के निंदक होते हैं। वैसे कहा जाए तो उनके धर्म प्रचार का आधार ही यही होता है। उनके मुंह से इस देश के लोगों के प्रति उनके आस्थाओं को प्रति घृणा भाव भरा रहता है और प्रचार के समय वे इसे जाहिर भी करते रहते हैं। गांधीजी पादरियों के भारत निंदक रुख का तीव्र विरोध करते थे।एक बार कलकत्ता में यंग वूमेन क्रिश्चियन एसोसिएशन के सभागार में मिशनरियों की एक सभा हो रही थी। उस सभा का संबोधित करते हुए गांधी जी ने कहा “ ईसाई पादरिययों में जो श्रेष्ठतम लोग हैं, उनमें से एक बिशप हेबर थे। हेबर ने लिखा था कि – भारत वह देश है जहां का सबकुछ सुहवना है, जहां के लोग नीच और निकम्मे हैं। – य़ह पंक्तियां मुझे हमेशा डंक डंक मारती रही है।“ गांधी जी बिशप हर्बर को श्रेष्ठ मानते थे। लेकिन वह भी भारत की निंदा करते थे।

ईसाई मिशनरियों के मन में रहता है कि भारत के लोगों को कुछ नहीं पता होता। हमें भारतीयों को सीखाना है। गांधी जी पादरियों के इस मनोविज्ञान से असहमत थे। गांधी जी ने ईसाई मिशनरियों से कहा कि आपने मन में सोच लिया है कि यहां के लोगों को सीखाना है। लेकिन आप यहां से कुछ सीखें। गांधी जी ने मिशनरियों से कहा – आशा है, आप यहां से कुछ सीखेंगे भी, ग्रहण भी करेंगे। आशा है आप अपनी आंख, कान, हृदय बंद नहीं रखेंगे बल्कि खुले रखेंगे। – परंतु गांधी जी ने देखा कि मिशनरियों के आंख, कान और हृदय बंद ही हैं। वे भारत निंदा का ही अपना स्वभाव बनाये हुए हैं।

इसलिए गांधी जी ने क्रिश्चियन मिशन पुस्तक में कहा है कि “भारत में ईसाइयत अराष्ट्रीयता एवं यूरोपीयकरण का पर्याय बन चुकी है।“ (क्रिश्चियम मिशन्स, देयर प्लेस इंडिया, नवजीवन, पृष्ठ-32)। उन्होंने यह भी कहा कि ईसाई पादरी अभी जिस तरह से काम कर रहे हैं उस तरह से तो उनके लिए स्वतंत्र भारत में कोई भी स्थान नहीं होगा। वे तो अपना भी नुकसान कर रहे हैं। वे जिनके बीच काम करते हैं उन्हें हानि पहुंचाते हैं और जिनके बीच काम नहीं करते उन्हें भी हानि पहुंचाते हैं। सेरा देश को वे नुकसान पहुंचाते हैं। गाधीजी धर्मांतरण (कनवर्जन) को मानवता के लिए भयंकर विष मानते थे। गांधी जी ने बार -बार कहा कि धर्मांतरण महापाप है और यह बंद होना चाहिए।“

गांधीजी ने मिशनरिय़ों द्वारा लालच देकर धर्मातंरण किये जाने के तीखा विरोध किया। उन्होंने कहा कि “मिशनरियों द्वारा बांटा जा रहा पैसा तो धन पिशाच का फैलाव है।“ उन्होंने कहा कि “ आप साफ साफ सुन लें मेरा यह निश्चित मत है, जो कि अनुभवों पर आधारित हैं, कि आध्यात्मिक विषयों पर धन का तनिक भी महत्व नहीं है। अतः आध्य़ात्मिक चेतना के प्रचार के नाम पर आप पैसे बांटना और सुविधाएं बांटना बंद करें।“

धर्मांतरण और ईसाइ पादरियों की मिशनरी गतिविधियों पर कडे रुख के कारण १९३५ में एक मिशनरी नर्स ने गांधी जी से पूछा “क्या आप कनवर्जन (धर्मांतरण) के लिए मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगा देना चाहते हैं।

इस पर गांधी जी ने जो उत्तर दिय उसी से धर्मांतरण व ईसाई मिशनरियों के बारे में वह क्या सोचते थे यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। गांधी जी ने उत्तर दिया “मैं रोक लगाने वाला कौन होता हूँ, अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं, तो मैं धर्मांतरण का यह सारा धंधा ही बंद करा दूँ। मिशनरियों के प्रवेश से उन हिन्दू परिवारों में, जहाँ मिशनरी पैठे हैं, वेशभूषा, रीति-रिवाज और खान-पान तक में परिवर्तन हो गया है। आज भी हिन्दू धर्म की निंदा जारी हैं ईसाई मिशनों की दुकानों में मरडोक की पुस्तकें बिकती हैं। इन पुस्तकों में सिवाय हिन्दू धर्म की निंदा के और कुछ है ही नहीं। अभी कुछ ही दिन हुए, एक ईसाई मिशनरी एक दुर्भिक्ष-पीडित अंचल में खूब धन लेकर पहुँचा वहाँ अकाल-पीडितों को पैसा बाँटा व उन्हें ईसाई बनाया फिर उनका मंदिर हथिया लिया और उसे तुडवा डाला। यह अत्याचार नहीं तो क्या है, जब उन लोगों ने ईसाई धर्म अपनाया तो तभी उनका मंदिर पर अधिकार समाप्त। वह हक उनका बचा ही नहीं। ईसाई मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी का भी मंदिर पर कोई हक नहीं। पर वह मिशनरी वहाँ पहुँचकर उन्हीं लोगों से वह मंदिर तुडवाला है, जहाँ कुछ समय पहले तक वे ही लोग मानते थे कि वहाँ ईश्वर वास है। ‘‘ ( संपूर्ण गांधी बांङ्मय खंड-61 पृष्ठ-48-49)

उन्होंने आगे कहा- ‘‘लोगों का अच्छा जीवन बिताने का आप लोग न्योता देते हैं। उसका यह अर्थ नहीं कि आप उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित कर लें। अपने बाइबिल के धर्म-वचनों का ऐसा अर्थ अगर आप करते रहे तो इसका मतलब यह है कि आप लोग मानव समाज के उस विशाल अंश को पतित मानते हैं, जो आपकी तरह की ईसाइयत में विश्वास नहीं रखते। यदि ईसा मसीह आज पृथ्वी पर फिर से आज जाएंगे तो वे उन बहुत सी बातों को निषिद्ध् ठहराकर रोक देंगे, जो आ लोग आज ईसाइयत के नाम पर कर रहे हैं। ’लॉर्ड-लॉर्ड‘ चिल्लाने से कोई ईसाई नहीं हो जाएगा। सच्चा ईसाई वह है जो भगवान की इच्छा के अनुसार आचरण करे। जिस व्यक्ति ने कभी भी ईसा मसीह का नाम नहीं सुना वह भी भगवान् की इच्छा के अनुरूप आचरण कर सकता है।‘‘ ( संपूर्ण गांधी बांङ्मय खंड-61 पृष्ठ-49)

गांधीजी का सर्वधर्म समभाव के प्रतिमूर्ति थे। उन्होंने धर्मांतरण का जो विरोध किया वह तार्किक था। देश के प्रधानमंत्री से लेकर आम जन तक सभी लोग आज भी गांधी जी की नीतियों को प्रासंगिक बताते हैं। लेकिन उनके विचारों पर न तो लोग अमल करते हैं और न ही सरकारें उनकी विचारों को लेकर नीतियों बनाती है। गांधीवाद मनोरंजन के लिए नहीं है। गांधी केवल उनकी बातों को प्रासंगिक बताने से काम नहीं चलेगा। गांधी जी द्वारा बताये गये धर्मांतरण पर पूर्ण प्रतिबंध का कानून लाकर इस अराष्ट्रीय गतिविधि पर रोक लगाया जाना आज के समय की सबसे बडी आवश्यकता है।