मात भारत को जल्दी से बलवान कर

आत्माराम यादव पीवर

      नवरात्रि पर्व पर करोड़ों हाथ नवदुर्गा के विभिन्न स्वरूपो के समक्ष आकाश की ओर उठे हुये अपने मुखारबिन्द से प्रस्फुटित प्रार्थना में अपने मन को उनके चरणों में लगाए तीव्र ओज भरे समवेत स्वरों में सुनो माता हमारी पुकार पुकार का जयघोष करते हुये गाते है, तब प्रार्थना में शक्ति कि भक्ति  रूप में राष्ट्रभक्ति का अनूठा स्वरूप दिखाई देता है। चैत्र माह में नवरात्रि पर्व की धूम है ओर देश के अधिकांश प्रान्तों के नगरों -गांवों में लोग अपने घरो ओर मंदिरों -मठो में प्रकृति स्वरूप जवाहरे बोकर उनकी सेवा कर नवमी को विसर्जित करते है, इस दरम्यान वे माँ की आराधना में डूबे है। देश में करोड़ों लोग शक्तिपीठों में विराजमान देवी भगवती के स्वरूपों के दर्शन हेतु सेकड़ों किलोमीटर की पैदल यात्रा नंगे पाँव करने चल पड़ते है। हर गली मोहल्ले गाँव के देवी मंदिर के अलावा नवदुर्गा के विभिन्न स्वरूप विराजित कर विजयदशमी को विसर्जित किए जाते है तब इन 9 दिनों में सुबह 4 बजे से स्नानादि के पश्चात साफ सुथरे धुले वस्त्र पहने बच्चों महिलाओं सहित बुजुर्गों कि जल चढ़ाने वालों की लंबी कतारे लग जाती है यह शक्ति की भक्ति का एक सुखद पहलू है। इसका एक पहलू ओर है जिसमे अधिकांश भक्त पूरे मनोयोग से शक्ति के चरणों में खुदकों समर्पित नहीं कर पाते है किन्तु स्थूल शरीर भक्ति में लीन दिखता है पर अंतस मन में अंधकार की घनी काली छाया रहने से उसकी भक्ति अर्थहीन ही रह जाती है। प्रत्येक घट इन दो नेत्रों से पृथक शिव के त्रिनेत्र जैसे एक दिव्य चक्षु भी होता है अगर साधक इस दिव्य चक्षु की उन्मीलन कर ले तो पंचतत्व की यह काया परमतत्व को उपलब्ध हो जाती है फिर उसे कुछ पाने की आवश्यकता नही होती वह ब्रम्ह्मय हो जाती है। अगर शक्ति की भक्ति में इस केंद्र को छू ले तो यह बड़े ही अहोभाव की बात होती है, किन्तु अर्थ काम ओर लोभ में डूबा मनुष्य की पुजा आरती भी इन्ही तुक्ष्य वासनायों के फेर मे होती है। 

      आरति के समय प्रार्थना का चलन अनंतकाल से है जिसमे शीश चरणों मे धरे मात विनय करते है, विजय हो देश कि अरदास यही करते है, के साथ अंतिम पदय में मात भारत को जल्द से बलवान कर, जिससे सुखी हो सारे नारी ओर नर । दास कहते है भारत कि नैया हो पार सुनो माता हमारी पुकार पुकार। शक्ति के साथ राष्ट्रभक्ति श्रेष्ठ चिंतन है किन्तु भक्ति में हमारी प्रार्थना कही तोतारटंत कि तरह प्राणहीन शब्द तो नहीं जो इस अन्तरिक्ष का भार बढ़ाने के साथ हमारी साधना-आराधना को संदेह कि परिधि में लाकर महत्वहीन हो हमारे पुरुषार्थ पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किए है, यह विचारण सभी के लिए आवश्यक है।  

      सनातन धर्म में विभिन्न पर्व है जो पृथक-पृथक देवी देवताओं के यशोगान के है जिसकी मांगलिकवेला में हम सभी आनंदोत्सव मनाते आ रहे रहे है जिसमें यह नवरात्रि पर्व भी है। मातृ शक्ति के साथ राष्ट्र-शक्ति का अंकुरण प्रत्येक नागरिक के हृदय में निवास कर रहा है ओर ओर उसके चित्त की मूलशक्ति बनाने का काम हमारे राष्ट्र में किया जा चुका है किन्तु इसे राष्ट्र की धड़कनों के साथ उसकी धड़कन में प्रवाहित नहीं किया जा सका है। आवश्यकता है कि राष्ट्र शक्ति ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ के रूपमें सबकी आत्मा में विंध जाये किन्तु राष्ट्र के शासकों ने निजी स्वार्थ ओर वोट बैंक कि राजनीति में राष्ट्र कि सर्वोच्चता को दरकिनार रख शासन में बने रहने के लिए अपने दल को ही प्रमुख रख राष्ट्र के नागरिकों को दोयम दर्जे का बना रखा है इसलिए भी प्रार्थनों में तोतारटंत समा सका ? चाहिए था कि कि सब मिलकर  राष्ट्र में सत्य का बोध, शिव का अनुभव और सुन्दर की सृष्टि कर राष्ट्र को विश्वगुरु ही नही अपितु विश्व के सर्वोच्च मंचो का अधिनायक भी बनाए रखते किन्तु राष्ट्र को केवल राजनीति से सीमित समझने की भूल है के कारण हम विश्वमंच पर पिछड़े है।

      हम राष्ट्रीय जीवन को अलग-अलग विभागों में नहीं बाँट सकते, वह सम्पूर्ण जीवन को ढक लेता है, जबकि हमारा प्रयास होना चाहिए कि जिस भाव के स्पन्दन से राष्ट्र का डंका बज उठे यह राष्ट्रीय भाव हमारा सिरमोर बने। सत्य के बोध में राष्ट्र संहार के पदार्थों का वास्तविक रहस्य और व्यक्तियों के आदर्श सम्बन्ध जानने का प्रयत्न करता है। इससे विज्ञान, दर्शन आदि अनेक शास्त्रों का जन्म होता है। शिव के अनुभव में राष्ट्र शक्ति प्रजा को कल्याण मार्ग पर ले चलती है। उच्च आदर्श और तदनुकूल जीवन शिव के अनुभव से ही सम्भव हो सकता है। सुन्दर की सृष्टि कर राष्ट्र आनन्द उठाता है। कलाओं का प्रसव इस सुन्दर के गर्भ से होता है। वास्तुकला, मूर्तिकला, चित्रकला, संगीतकला तथा काव्यकलादि अनेक ललित कलाओं का समावेश राष्ट्र शक्ति के सुन्दर रूप में हो सकता है। सत्यम, शिवम और सुंदर की वृद्धि करना राष्ट्र- शक्ति का मुख्य कार्य है। उसका चरम लक्ष्य इन्हीं का पूर्णतम विकास करना है। जन्म लेने वाला हर व्यक्ति अपनी जन्मभूमि में शक्ति का अनुभव किया है। माता शिशु को जन्म देकर दिव्य प्रेम से उसका लालन-पालन करती है। व्यक्ति इसी क्रिया को एक लम्बे पैमाने पर अपने देश में देखता है। इसीलिए जन्मभूमि को मातृभूमि की उपाधि दी गयी है। मातृशक्ति के अतिरिक्त यह रक्षक शक्ति भी है। भारत माता अथवा भारत शक्ति इसी शक्ति का अवतार है।

      जन्म देने वाली माता श्रद्धा, प्रेम और शक्ति की दात्री भी है उसी प्रकार हमारी मातृभूमि और उसका शक्तिमय स्वरूप, राष्ट्र शक्ति भी है। किन्तु राष्ट्रभक्ति का यह खण्डशः पूजा है। इसकी उपयोगिता है, किन्तु इसमें पूजन की पूर्ति नहीं। जिस प्रकार मातृशक्ति हमारी व्यक्तिगत माता और मातृभूमि से सीमित नहीं है उसी प्रकार राष्ट्रशक्ति एक राष्ट्र से बढ़ी है जिसका पूरा स्वरूप विश्व की राष्ट्रशक्ति है। इस चेतना के साथ ही उसका पूजन होना चाहिये, तभी उसके पुत्र उसके वरद और अभय हस्त के प्रसाद से सम्पन्न और निर्भय रहेंगे । दुर्गासप्तसदी में लिखा है-  या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ ‘जो देबी सब प्राणियोंमें शक्तिरूपसे स्थित है उसको बार-चार प्रणाम है।’ यह श्लोक भगवती दुर्गाके मन्दिरोंमें अथवा धर्मप्राण हिन्दुओंके घरोंमें न जाने कितनी सदियों से पढ़ा जा रहा है ओर आगे भी पढ़ा जाता रहेगा । पढ़नेवाले और सुनने वालों के हृदय में माता दुर्गा के प्रति भक्ति भले ही उत्पन्न हुई हो-परन्तु यह निश्चय है कि खङ्गत्रिशूलधारिणी, सिंहवाहिनी, महिषासुरमर्दिनी आदि माताओं का ध्यान करते हुए भी किसी ने जगज्जननी महाकाली की उस सर्वशक्ति सम्पन्न मूर्ति से कभी शक्ति नहीं ली । यह स्मरण रखना चाहिये कि स्त्री मात्र भगवती दुर्गा का स्वरूप हैं, उन्होंने सृष्टि के आदिकाल से पुत्र और पुत्रियों के रूप में शक्तियां उत्पन्न की हैं। परन्तु उत्पन्न करने मात्र से काम नहीं चलता। माताओं का यह भी कर्तव्य है. कि में अपने बालकोंको केवल जन्म देनेकी ही जिम्मेदारी न ले वरना  उन्हें अपने उदाहरण, उपदेश और शिक्षा से ऐसी शक्ति प्रदान करें कि वे बालक तेजस्वी हो, सदाचारी हो, अन्याय और अत्याचार का दमन करने वाले हो। जिस माता के पुत्र ने दूसरों के हित- के लिये प्राण न दिये वह माता व्यर्थ ही माता बनी। उसके पुत्र का दिव्य शरीर, बलिष्ठ भुजाएँ, प्रशस्त ललाट और प्रसार बुद्धि सब व्यर्थ ही गये।

      सृष्टि के प्रत्येक अणु में शक्ति छिपी हुई है जो उत्पत्ति और संहार करती रहती है। किन्तु जड़ में रहने वाली शक्ति, चेतना में रहने वाली शक्ति से भिन्न है। एक को प्रकृति नियन्त्रित रखती है दूसरी स्वतः नियंत्रित होती है। यही कारण है कि चेतन में रहने वाली शक्ति का प्रायः दुरुपयोग होता है। चेतनाधीन शक्ति को बुद्धि की सहायता की आवश्यकता है। इसलिए बुद्धिहीनता, अज्ञानता और बुद्धि भ्रम के कारण ही चेतन प्राणी अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर डालता है। एक प्राचीन श्लोक में शक्ति के विषय में कहा है-विद्या विवादाय धनं मदाय खलस्य शक्तिः परेषां परिपीडनाय । साधोर्विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ॥ अर्थात साधु और दुष्ट में शक्ति होने से यह अन्तर हो जाता है कि साधु अपनी शक्ति को दूसरों की रक्षा के लिये प्रयोग में लाता है तथा दुष्ट मनुष्य अपनी शक्ति से दूसरों को पीड़ा पहुंचाना है। शक्ति के व्यवहार को संयत और कल्याण भय बनाने के लिए यही उचित है कि हम इसका उचित उपयोग करना सीखे ओर उनकी शिक्षा देते। जब हमें कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान हो जाता है तब किसी भी प्रकार की शिक्षा देना निरर्थक हो जाता है। अतः बचपन में जो संस्कार, आचार और विचार बन जाते हैं वह बड़े होने पर विकसित और विवर्षित हो जाते हैं। यदि उस समय कोई उसमें परिवर्तन कराने का विचार करे तो असम्भव है।

      नवरात्रि में शक्ति कि भक्ति में राष्ट्रभक्ति कि बात शुरू की थी। माता दुर्गा स्वयं शक्ति स्वरूपिणी जगन्माता हैं। उन्होंने ही अपनी मानव-सन्तति को शक्ति प्रदान की है। केवल यही नहीं, बल्कि उन्हें अपने आचरण और उदाहरण से यह भी सिद्ध कर दिया कि हमें अपनी शक्ति को कहाँ और किस प्रकार काम में लेना चाहिये । शक्ति का प्रादुर्भाव केवल पुरुषों के लिये ही नहीं वरन स्त्रियों के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। संसार के इतिहास में माता दुर्गा की अनेकौ सुपुत्रियों ने अपनी शारीरिक शक्ति तथा बुद्धि शक्ति से संसार को चकित कर दिया है। किन्तु यह अवस्था तब आती है जब पुरुष हार मानकर बैठ गये हो अथवा अपनी शक्ति के अतिरिक्त कोई सहायक न हो । देश की शक्ति उसकी मातृ- शक्ति पर निर्भर है। यदि मातृशक्ति का यथार्थ स्वरूप-विकास हो जाये तो हमारा देश फिर महात्माओं, वीरों, तपस्वियों, विद्वानों तथा देश प्रेमियों से भर जायगा। इन माताओं में बड़ी शक्ति है पर ये अपनी शक्ति का प्रयोग करना नहीं जानतीं, गूगलगुरु ओर अँग्रेज़ियत ने इन्हे रानी लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, पन्ना धाय, सीता, उर्मिला, मांडवी, सावित्री जैसी माताये बनने से रोक रखा है। अब भी संभल जाना चाहिये। अभी कुछ बिगड़ा नहीं है। यदि और अधिक विलम्ब किया तो अत्यन्त निकट भविष्य में हम सिर पर हाथ मारेंगे और पछतायेंगे कि वह शक्ति कहाँ चली गयी जो हमे जीवन में नित्य पूजा पाठ आराधना साधना से मिलती थी, फिर लाख गला फाड़कर चिल्लाना मात भारत को जल्द से बलवान कर, जिससे सुखी होंगे नारी ओर नर, तब आपकी प्रार्थनाए हृदय में भावों की रिक्तता के रहते आकाश की महाशून्यता से लौटकर न आए, जागो जागो जागो ओर अपने हृदय में भक्ति की शक्ति को जगाओ ,,शक्ति का महाप्रसाद महाऊर्जा आपके प्राणों को सिंचित करने को उत्सुक है। अवसर मिला है इसे गवाइए नहीं अपना सम्पूर्ण समर्पण कीजिए ओर अपनी प्रार्थना को वरदानों के मोतियों से भर लीजिये ताकि भक्ति की शक्ति से ध्रुव , प्रहलाद  से भक्त बन सको ओर राष्ट्रभक्ति में अजर अमर हो सको।

आत्माराम यादव पीव

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