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मनमोहन-मुशर्रफ करार का आधिकारिक सच जानना जरूरी

-वीरेन्द्र सिंह चौहान-  manmohan singh- parvez musharraf

विदाई गीत की धुन पर तनी-बुनी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की हालिया पत्रकार वार्ता में प्रधानमंत्री के मुख से जम्मू-कश्मीर को लेकर निकले गिने-चुने अल्फाज हैरत और चिंता में डालने वाले हैं। प्रधानमंत्री ने कहा कि पड़ोसी देशों के साथ संबंध सुधारने की कोशिशों में उनकी टीम जम्मू-कश्मीर की समस्या के स्थायी हल के बहुत करीब पंहुच गई थी। पाकिस्तान की आंतरिक उथल-पुथल में परवेज मुशर्रफ की कुर्सी न हिली होती तो मंजिल दूर नहीं थी। ऐसा कहते हुए प्रधानमंत्री कश्मीर समस्या का समाधान तलाशने के लिए अपनी पीठ थपथपाते हुए प्रतीत हुए। मगर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के मुखिया ने उस अधर में रह गए हल का विवरण नहीं दिया जो कई बरस से एक ऐसे गुप्त करार के रूप में चर्चित रहा है जिस पर बस हस्ताक्षर होने बाकी थे।

अब विपक्ष चीख-चीख कर पूछ रहा है कि प्रधानमंत्री डॉ. सिंह ने मुंह खोला है तो जरा देशवासियों को यह भी बताएं कि उनके और मुशर्रफ के बीच छह बरस पहले कौन सी खीर-खिचड़ी पककर तैयार हो गई थी ? कश्मीर के हल रूपी वह कौन से हलवा था जो दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र के प्रधानमंत्री ने एक फौजी तानाशाह के साथ मिलकर बनाया था और जो तानाशाह की विदाई के कारण बंट नहीं पाया? लगभग मौन रहकर दस साल दिल्ली की सुल्तानी का लुत्फ लेने के बाद अब कुर्सी को अलविदा कहने के लिए उठ खड़े हुए मौन-मोहन सिंह शायद ही कभी सीधे तौर पर इस बात का खुलासा करें कि आखिर वे और मुर्शरफ करने क्या जा रहे थे। यदि वे कायदे से मौन तोड़ऩे का जोखिम उठाते हैं तो उन्हें स्वीकार करना होगा कि वे तो समाधान के नाम पर भारत की भौगोलिक व क्षेत्रीय अखंडता को ताक पर रखने के लिए राजी हो गए थे। स्वयं मुर्शरफ ने अपनी आत्मकथा में मनमोहन-मुर्शरफ समझौते के नाम से चर्चित इस अलिखित समझौते के बारे में जिक्र किया बताते हैं। जनरल परवेज के साथ विदेश मंत्री रहे कसूरी ने भी मीडिया के समक्ष इस बात का स्वीकार किया था। भारत की ओर से आधिकारिक रूप से अब तक इस बारे में कुछ नहीं कहा गया था। यह दीगर बात जबकि जम्मू-कश्मीर में बीते कुछ वर्षों के दौरान केंद्र सरकार के इशारे पर जो दाल पक रही थी उसमें जानकारों को काफी कुछ काला नजर आ रहा था।

अब जबकि प्रधानमंत्री ने भी अपने मुंह से जम्मू-कश्मीर के समाधान की दहलीज पर पहुंचे होने की बात कबूल कर ली है तो देश को यह जानने का भी हक है कि अमरीका के दबाव में किस तरह भारत के संविधान और संसद के प्रस्तावों की धज्जियां उड़ाने की तैयारी हो गई थी। दरअसल, इस शर्मनाक समाधान की नींव तो शर्म-अल-शेख में अमरीका के दबाव में हुई मनमोहन-मुशर्रफ वार्ता में रखी गई थी। इस वार्ता में प्रधानमंत्री ने यह कहते हुए एशिया में जेहादी आतंकवाद की अम्मा पाकिस्तान को भारत की तरह आतंक का पीड़ित मानते हुए उसे उसके आतंक संबंधी अपराधों से बरी कर दिया था। कौन नहीं जानता कि बाद में ट्रेक-टू डिप्लोमेसी के नाम पर पर्दे के पीछे चली बातचीत में मनमोहन और उनकी टीम जिन चार बिंदुओं पर सहमत हुई थी, वे सब पूरी तरह भारत-विरोधी और पाकिस्तान को लाभ पंहुचाने वाले थे।

दोनों देशों के नेताओं के बीच हुए जिस कथित करार पर गुपचुप सहमति बनी थी, उसकी पहली शर्त थी यह थी कि वे एक-दूसरे द्वारा शासित जम्मू-कश्मीर पर एक दूजे की संप्रभुता को मान्यता दे देंगे। ऐसा हो गया होता तो पाकिस्तान ने भारत के राज्य जम्मू-कश्मीर का जो हिस्सा कई दशकों से नाजायज तरीके से हड़पा हुआ है, उसे उसका हुआ मान लिया जाता। भारत के प्रधानमंत्री अगर इसी समाधान-सूत्र के लिए अपनी पीठ थपथपाना चाह रहे हैं तो देश को जान लेना चाहिए कि उसके मौजूदा मुखिया देश की एकता और अखंडता को लेकर किस हद तक झुकने को तैयार थे।

संविधान, कानून और भारत की संसद की निगाह में जिस प्रांत की एक एक इंच भूमि भारत की है, हमारे प्रधानमंत्री उसका एक बड़ा भाग नापाक पड़ोसी को देने को राजी हो गए थे। यदि यही मनमोहन-मुर्शरफ करार था तो डॉ. सिंह के सिंहत्व पर अब तक उठे तमाम सवालों में दम नजर आना स्वाभाविक है। क्या भारत के प्रधानमंत्री को यह याद नहीं था कि जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराजा हरि सिंह द्वारा विलय पत्र दस्तखत किए जाने के बाद से गिलगित-बल्टिस्तान तक फैला समूचा प्रांत भारत का अभिन्न अंग है ? इसमें पाकिस्तान द्वारा आजाद जम्मू-कश्मीर कहकर पुकारे जाने वाला गुलाम कश्मीर भी शुमार है। ध्यान रहे कि यह बात अंतरराष्ट्रीय कानून के हिसाब से ही नहीं भारत के संविधान के निगाह में भी जस की तस है, वैधानिक है। समूचा जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, यह राग अलापते हुए देश की कई पीढ़ियां चली गईं और हमारे सिंह साहब विदेशी आकाओं के दबाव में उसके एक हिस्से को विधिवत पाकिस्तान को सौंपने चले थे। इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए उन्हें पीवी नरसिंहा राव की अगुआई वाली केंद्र सरकार की पहल पर भारत की संसद द्वारा 1994 में एकमत से पास किया गया, वह प्रस्ताव भी याद नहीं रहा होगा जिसमें संसद ने पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाला इलाका खाली कराने का भारत के जन-जन का संकल्प दोहराया था।

तथाकथित मनमोहन-मुशर्रफ करार में ही जम्मू-कश्मीर में सेना की मौजूदगी घटाने और दोनों देशों के बीच बंटने वाले राज्य की सीमाओं को धीरे-धीरे अर्थहीन बनाने जैसे देशघाती तत्व शामिल थे। प्रधानमंत्री के आधे-अधूरे खुलासे के बाद बीते कुछ सालों के दौरान जम्मू-कश्मीर के मामले में भारत सरकार द्वारा उठाए गए संदिग्ध कदमों या भारत-विरोधी पहल कदमियों के पीछे छिपी भावनाएं समझना आसान हो गया है।

मसलन, कुछ लोग घाटी में हुए सेना व सुरक्षा बल विरोधी पत्थरबाजी आंदोलन के पीछे सरकारी एजेंसियों का हाथ होने का आरोप लगाते रहे रहे हैं। अब इस आरोप में दम लगने लगा है कि चूंकि अमरीका व अन्य विदेशी ताकतों के दबाव में तैयार हुए कश्मीर के जिस समाधान का जिक्र प्रधानमंत्री जाने-अनजाने में कर गए, वह कश्मीर से सैन्य बल विशेष शक्तियां अधिनियम (अफस्पा) हटाए बिना संभव नहीं था। पत्थरबाजी उसके लिए माहौल बनाने की साजिश का अंग थी और इस साजिश में अलगाववादियों के साथ एक से अधिक ऐसे राजनीतिक दल भी शामिल थे जो खुद को मुख्यधारा की पार्टी करार देते हैं। प्रधानमंत्री द्वारा गठित विभिन्न वर्किंग ग्रुपों और वार्ताकारों की तिकड़ी का हिड्डन एजेंडा भी उसी देशघाती समाधान के लिए आधार तैयार करना था जिस पर मनमोहन और मुशर्रफ के बीच सहमति बन गई थी। सरहद के उस पार सिंहासन से जनरल परवेज को न उतारा गया होता और बाद में जम्मू में राष्ट्रवादी शक्तियों का अमरनाथ भूमि के लिए दमदार आंदोलन न हुआ होता तो कश्मीर के मामले में अनहोनी हो गई होती। देश की अखंडता पर करारा आघात करने वाला वह सीक्रेट फॉर्मूला कहीं न कहीं कागजों में जरूर उतर आता जिसके सिरे न चढऩे का मलाल विदाई की दहलीज पर खड़े डॉ. मनमोहन सिंह को है।