ममता माओवादी!

-अमलेन्दु उपाध्‍याय

इस दहर में सब कुछ है पर इन्साफ नहीं है।

इन्साफ हो किस तरह कि दिल साफ नहीं है।

राजनीति के विषय में अक्सर कई कहावतें सुनने को मिलती हैं। जैसे राजनीति में दो और दो चार नहीं होते या राजनीति में कुछ सही गलत नहीं होता या फिर राजनीति और अवसरवादिता एक दूसरे के पर्याय हैं। राजनीति के इन मुहावरों और सिद्धान्तहीन-अवसरवादी राजनीति की ताजा मिसाल रेल मंत्री और तृणमूल कांग्रेस नेता ममता बनर्जी ने हाल ही में पेश की है। एक समय में अटल बिहारी वाजपेयी की राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की आंखों का तारा रहीं और हिन्दू हृदय सम्राट नरेन्द्र मोदी के कारनामों को समर्थन देने वाली ममता दीदी अब संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन पार्ट-2 में प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह और संप्रग मुखिया सोनया गांधी के जिगर का टुकड़ा हैं।

बीती नौ अगस्त को पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में एक रैली में ममता दीदी का प्यार गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के दुश्‍मन न. एक माओवादियों के लिए उमड़ पड़ा। ममता ने लालगढ़ में ऐलान किया कि माओवादी नेता आजाद का फर्जी एनकाउन्टर किया गया है। बात सही भी हो सकती है क्योंकि ममता केन्द्र सरकार में महत्वपूर्ण पद पर आसीन हैं और सरकार के अन्दर जो चलता है उसकी पल पल की जानकारी उन्हें रहती है। क्योंकि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है और लोग अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस की प्रदेश सरकारें अपने हाई कमान के इशारे पर ही चलती हैं। लिहाजा जब दीदी कह रही हैं कि आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ, तो यकीन न करने का भला कौन सा कारण हो सकता है?

लेकिन सवाल यह है कि दीदी जो बात आज सरेआम कह रही हैं वह उन्होंने सरकार के अन्दर क्यों नहीं की? दूसरा जब आजाद का फर्जी एन्काउन्टर करने का षडयन्त्र रचा जा रहा था उस समय दीदी ने आजाद को बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया? इसलिए ममता को अपने गिरेबान में भी झांक कर देखना चाहिए कि आजाद की हत्या के लिए जितने दोशी मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और चिदंबरम हैं, ममता उनसे कम गुनाहगार नहीं हैं। क्योंकि मनमोहन सरकार को बैसाखी अब ममता दीदी की लगी हैं उनके दुश्‍मन माकपाइयों की नहीं। इसलिए अगर आजाद का फर्जी एन्काउन्टर हुआ है, जैसा कि दीदी का आरोप है और अपना भी मानना है, तो आजाद की हत्या के जुर्म से ममता भी बरी नहीं हो सकती हैं।

लोगों को याद होगा कि जब ज्ञानेश्‍वरी एक्सप्रेस हादसा हुआ था उस समय ममता बनर्जी ही वह पहली शख्स थीं जिन्होंने आरोप लगाया था कि ज्ञानेश्‍वरी एक्सप्रेस को विस्फोट से उड़ाया गया है और उन्होंने माओवादियों को इसके लिए जिममेदार ठहराया था। जबकि गृह मंत्रालय ने साफ कहा था कि विस्फोट के कोई सुबूत नहीं है। यानी जब जरूरत होगी तब ममता माओवादियों को हत्यारा भी कहेंगी और जब जरूरत होगी तब उनके समर्थन से रैली भी करेंगी। यह राजनीति की बेशर्म अवसरवादिता का जीता जागता उदाहरण है।

ममता बनर्जी का यह कोई नया कारनामा नहीं है। वह इससे पहले भी ऊट-पटांग हरकतें करती रही हैं। याद है न समाजवादी पार्टी के तत्कालीन महासचिव अमर सिंह के साथ दिल्ली के जामियानगर में ममता गईं थीं और उन्होंने बटला हाउस एन्काउन्टर को फर्जी करार दिया था और मौके पर ही कुछ पत्रकारों की पिटाई भी करवा दी थी। लेकिन लोकसभा चुनाव में वह बटला हाउस फर्जी मुठभेड़ के लिए जिम्मेदार कांग्रेस के साथ ही मैदान में उतरीं।

मीडिया में जो खबरें आई हैं उनके अनुसार ज्ञानेश्‍वरी एक्सप्रेस हादसे के मुख्य आरोपियों में से कई ममता की रैली की कमान संभाल रहे थे। इतना ही नहीं ज्ञानेश्‍वरी एक्सप्रेस की दुर्घटना के लिए जिस पीसीपीए को दोषी ठहराया जा रहा है, ममता की रैली उसी पीसीपीए के बैनर तले हुई।

ममता के बहाने सवाल तो गृह मंत्री पी चिदंबरम और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और माओवादी नेता किशन जी से भी हो सकते हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब चिदंबरम माओवादियों का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवियों को पुलिसिया भाषा में हड़का रहे थे। अब चिदम्बरम साहब माओवादियों की खुलकर हिमायत करने वाली ममता बनर्जी के खिलाफ क्या कदम उठाएंगे? नक्सलवाद को देश का दुश्‍मन न. एक करार देने वाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्या ममता बनर्जी को अपने मंत्रिमंडल से बर्खास्त करने और उनके माओवादियों से संबंधों की जांच कराने की हिम्मत जुटा पाएंगे? लालगढ़ दौरे पर जाकर मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को कानून व्यवस्था का उपदेश देने वाले गृह मंत्री क्या अपनी मंत्रिमंडलीय सहयोगी को भी कुछ ज्ञान देने की जहमत उठाएंगे?

जो अहम सवाल है वह माओवादी नेता किशन जी और पूरे माओवादी नेतृत्व से है। माओवादी लगातार माकपा और भाकपा को इसलिए कोसते रहे हैं कि इन दोनों दलों ने संसदीय जनतंत्र का रास्ता अपना लिया है। जहां तक माकपा-भाकपा और माओवादियों के अन्तिम लक्ष्य का सवाल है, दोनों के लक्ष्य में कोई अन्तर नहीं है, झगड़ा लक्ष्य को पाने के रास्ते का है। क्या किशन जी यह बता सकते हैं कि नरेन्द्र मोदी का समर्थन करने वाली, अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की जिगर का टुकड़ा रहीं ममता बनर्जी का समर्थन करने से देश में साम्यवाद आ जाएगा? क्या जिस संसदीय जनतंत्र को माओवादी लगातार कोसते रहे हैं, उनका यह कदम उसी भ्रष्‍ट व्‍यवस्था को पोशित करने वाला नहीं है? क्या यही नई जनवादी क्रांति है? क्या किशन जी यह गारंटी दे सकते हैं कि माकपा को उखाड़ कर और तृणमूल कांग्रेस को सत्ता में लाकर माओवादियों का लक्ष्य पूरा हो जाएगा? अब यह तय करना माओवादी नेतृत्व का काम है कि क्या वह ममता बनर्जी के साथ खड़े होकर देश भर में अपने समर्थकों को खोना चाहेंगे?

नौ अगस्त की लालगढ़ रैली ने सवाल तथाकथित सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश और मेधा पाटकर के लिए भी खड़े किए हैं। अभी तक दोनों ही लोग स्वयं को सामाजिक कार्यकर्ता घोषित करते आए हैं। लेकिन ममता बनर्जी के साथ उनका मंच साझा करना उनकी नीयत पर भी सवाल खड़ा करता है।

एक आरोप अक्सर लगता रहा है कि देश के अन्दर कम्युनिस्ट पार्टियों के खिलाफ पूंजीवादी ताकतें पिछले दरवाजे से काम कर रही हैं और अब माओवादी भी जाने अनजाने इन ताकतों के हाथ का खिलौना बन रहे हैं। यह आरोप ममता की लालगढ़ रैली के बाद अब काफी हद तक सही लगने लगा है। अगर स्वामी अग्निवेश, मेधा पाटकर, ममता और माओवादी एक साझे मंच पर आते हैं तो क्या कहा जाएगा?

ममता बनर्जी का ताजा बयान सिर्फ राजनीतिक अवसरवादिता की ही बानगी नहीं है, बल्कि यह मौजूदा मनमोहन सरकार के ऊपर कई सवालिया निषान लगाती है। ममता रेल मंत्री हैं और किसी भी मंत्री का बयान पूरे मंत्रिमंडल का बयान समझा जाता है। यूपीए-2 के ही कई मंत्रियों को मंत्रिमंडल की भावना के खिलाफ जाकर बयानबाजी करने के कारण सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी है। क्या प्रधानमंत्री ममता से भी माफी मंगवाएंगे? अगर नही तो यही संदेश जाएगा कि केन्द्र सरकार का भी मानना है कि आजाद का एन्काउन्टर नहीं हुआ है बल्कि हत्या हुई है। अब गेंद प्रधानमंत्री के पाले में है। देखना अब यह है कि प्रधानमंत्री में कितना दम है?

3 COMMENTS

  1. मैं बंगाल से बहुत दुर रहता हुं। हमारे नगर के विकास का ईतिहास जब देखता हुं तो दो बंगालियो ने बडा योगदान दिया यह देखता हुं। बंगाली एक अति उन्नत कौम है। लेकिन वामपंथीयो ने उन्हे बरबाद कर दिया। अगर बंगाल को कुछ वर्षो के लिए वामपंथी पंजो से मुक्त कराया जाए तो वहां युगांतकारी विकास हो सकता है।

    वामपंथी कैडरो ने बंगाल मे गुंडा साम्राज्य खडा कर रखा है जिसके बल पर वह चुनाव मे विजय प्राप्त करते है। उनको अपने आकार मे लाने के लिए एक महागठजोड की आवश्यकता है। सभी गैर-वामपंथी दलो को एक मंच पर लाने का फार्मुला जरुरी है। उसके बगैर काम नही बनने वाला है। उस गठजोड की न्युकिलियस ममता बन सकती है।

  2. Mamta Banerjee’s single point agenda is a decisive win for Trinamool’s in coming West Bengal assembly elections.
    She is already campaigning and she considered it necessary to associate Maoists for success of her Lalgarh rally.
    This does not mean that Mamta is aligned with Maoists. This also does not that she is breaking her ties with any party or person.
    These are steps for win in Bengal assembly elecions
    She is being beloved by those who require her; she loves those who are considered to be useful for her aim in coming assembly,
    This is on the spot business; no rules.

  3. बहुत ही सटीक और सच्चा आलेख लिखा है आपने .अम्लेंदुजी आपने माऔ वादी ममता के बरक्स्स मनमोहन और चिदम्बरम की राष्ट्र निष्ठां ही संदेहास्पद कर दी है .सारा देश नक्सलवादियों के खिलाफ एकजुट हो रहा है .किन्तु विदेशी दलालों -एन जी ओ -पाकिस्तानी आतंकवाद -देश के बिभिन्न हिस्शों में पनप रहे क्षेत्रीतावाद को खाद पानी देने के लिए जो कुख्यात देशद्रोही ताकतें काम कर रहीं हैं -उनमें तृणमूल पार्टी की और उसकी एकमात्र ;महासनकी -नेता ममता बेनर्जी का बड़ा हाथ है ;इस ममता को न तो देश से .न देश की मेहनतकश जनता से और न ही बंगाल की जनता से कोई सरोकार है और न उसे देश के सम्विधान के प्रति ली गई शपथ के प्रति कोई आस्था है .उसने अटलजी .आडवानी जी को भी खून के आंसू रुलाये थे .अब यु पी ऐ को भी वह एक दिन जरूर दगा देगी .यदि बंगाल में कभी दुर्भाग्य से सत्ता मिल गई तो वह माओ वादियों की गोद में बैठकर .कई सिंगुर .और नंदीग्राम पैदा कर देगी -जो लोग उसे वामपंथ के खिलाफ टूल्स की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं ;उन्हें भी ममता की पाखंडपूर्ण हरकतों से प्रमुदित होने के बजाय देश की शांतीकामी जनता के धैर्य की और ज्यादा परीक्षा नहीं लेना चाहिए .

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