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दाल उत्पादन में आत्मनिर्भरता के उपाय

प्रमोद भार्गव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नानाजी देशमुख ने जयप्रकाश नारायण की जयंती पर दो प्रमुख कृषि योजनाओं की शुरुआत की है। धन-धान्य और दलहन आत्मनिर्भरता मिशन नाम से की गई ये योजनाएं यदि खेत में खरी उतरती हैं तो किसान की माली हालत तो सुधरेगी ही देश दाल उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर भी हो जाएगा। इन योजनाओं के लिए 35,440 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। ये योजनाएं खासतौर से पिछड़े सौ जिलों में कृषि उत्पादकता बढ़ाने और विविध फसलों की पैदावार को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से आरंभ की जा रही हैं। दलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर होने के लिए वर्ष 2030-31 तक उत्पादन को 252 लाख टन से बड़ाकर 350 लाख टन करने का लक्ष्य तय किया है। इस हेतु 35 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त भूमि दलहन उत्पादन के दायरे में लाई जाएगी। विडंबना देखिए, भारत दुनिया का सबसे बड़ा दलहन उत्पादन और उपभोक्ता देश है, लेकिन दालों की आपूर्ति आयात पर निर्भर हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी के 11 साल के कार्यकाल में कृषि निर्यात दोगुना हो गया है। लेकिन दालें आयात करनी पड़ती हैं।      

आहार में पौश्टिक तत्वों का कारक मानी जाने वाली दालें,बढ़ते दामों के कारण गरीब की शारीरिक जरूरत पूरी नहीं कर रही हैं। ये हालात मानसून के दौरान औसत से कम या ज्यादा बारिश होने से तो उत्पन्न होते ही हैं, किसान के नकदी फसलों की ओर रुख करने के कारण भी हुए हैं। यही नहीं यह स्थिति इसलिए भी बनी, क्योंकि कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार की गलत नीतियों के चलते किसान को खाद्य वस्तुओं की बजाय, ईंधन, प्लास्टिक और फूलों की फसल उगाने के लिए, कृषि विभाग ने जागरूकता के अभियान चलाए। यही वजह रही कि भूमंडलीकरण के दौर में दालों की पैदावार लगातार कम होती चली गई। दाल उत्पादन का रकबा लगभग 15 हजार हेक्टेयर कम हो गया। भारत में दालों की सालाना खपत 220 से 230 लाख टन है। मांग और आपूर्ति के इस बड़े अंतर के चलते जमाखोरों और दाल के आयातक व्यापरियों को भी बारे-न्यारे करने का मौका मिल जाता है।
पौश्टिक आहार देश के हरेक नागरिक के स्वस्थ जीवन से जुड़ा अहम् प्रश्न है। संविधान के मूलभूत अधिकारों में भोजन का अधिकार शामिल है। चूंकि दालें प्रोटीन और पौश्टिकता का महत्वपूर्ण जरिया हैं। चूंकि दालें आयात करनी होती हैं, इसलिए इनके भाव भी बीच-बीच में बढ़ जाते हैं। इस कारण मध्यवर्गीय व्यक्ति की थाली से दाल गायब होने लगती है। चुनांचें दाल व्यक्ति की सेहत से जुड़ी हैं और बीमारी की हालत में तो रोगी को केवल दाल-रोटी खाने की ही सलाह चिकित्सक देते हैं। वर्श 1951 में प्रतिव्यक्ति दालों की उपलब्धता 60 ग्राम थी,जो वर्ष 2010 में घटकर 34 ग्राम रह गई। जबकि अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार यह मात्रा 80 ग्राम होनी चाहिए। दालें भारत में प्रोटीन का प्रमुख स्त्रोत मानी जाती हैं। लेकिन स्थानीय मांग पूरी करने के लिए दाल उत्पादन में किसान को बड़ी मशकक्त करनी पड़ती है। तुअर दाल की फसल आठ माह में तैयार होती है। बावजूद किसान को उचित दाम नहीं मिलते हैं। गोया,किसान साल में एक फसल उगाने में रुचि कैसे लें ? विदेशों में रहने वाले भारतीय भी सबसे ज्यादा तुअर की दाल खाना पसंद करते हैं। देश में सबसे अधिक चने और अरहर की खेती होती है। इनके अलावा मूंग और उड़द की दालें पैदा होती हैं। देश में 10 राज्यों के किसान दालों की खेती करते हैं। इनमें सबसे अधिक उत्पादक राज्य महाराष्ट्र है। दालें मुख्य रूप से खरीफ की फसल हैं,जो वर्षा ऋतु में बोई जाती हैं। इस ऋतु में करीब 70 प्रतिशत दालों का उत्पादन होता है।

केंद्रीय उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय के अनुसार दालों के तात्कालिक भाव 85.42 प्रति किलो से लेकर 112.88 रुपए किलो तक हैं। भावों में इस उछाल का कारण जमाखोरी और सट्टेबाजी के साथ आयात का कुचक्र है। टाटा, मंहिद्रा, ईजी-डे और रिलांइस जैसी बड़ी कंपनियां जब से दाल के व्यापार से जुड़ी हैं,तब से ये जब चाहे तब मुनाफे के लिए दाल से खिलवाड़ करने लग जाती हैं। जब कंपनियां बड़ी तादाद में दालों का भंडारण कर लेती हैं,तो भावों में कृत्रिम उछाल आ जाता है। हालांकि केंद्र सरकार ने दालों का भंडारण सितंबर 2024 से सीमित किया हुआ है। इस कारण भाव नियंत्रण में हैं। मीडिया दाल के बढ़ते भावों को गरीब की थाली से जोड़कर उछालता है। तब सरकार दाल के आयात के लिए विवष हो जाती है। मसलन देषी-विदेषी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हर हाल में पौ-बारह बने रहते हैं। इन कंपनियों का दबदबा इतना है कि कोई भी राज्य सरकार इनके गोदामों पर छापे डालने का जोखिम उठाने का साहस नहीं जुटा पाती। लिहाजा कालाबाजारी बदस्तूर रहती है। ये कंपनियां मसूर और मटर की दाल कनाडा से,उड़द और अरहर की दाल बर्मा के रंगून से,राजमा चीन से और काबुली चना आस्ट्रेलिया से आयात करती हैं। इनके अलावा अमेरिका, रूस, केन्या, तंजानिया, मोजांबिक, मलावा और तुर्की से भी दालें आायात की जाती हैं। कनाडा ने मसूर दाल के भाव पिछले साल की तुलना में दोगुने कर दिए हैं। कनाडा एशि याई देशों में सबसे ज्यादा दालों का निर्यात करने वाला देश है।
इस नाते यह कहने में कोई दो राय नहीं कि विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बात तो छोड़िए,देशी कंपनियां भी भारतीय कृषि को बदहाल बनाए रखना चाहती हैं। आयात की जब इन्हें खुली छूट मिल जाती है तो ये जरूरत से ज्यादा दाल व तेल का आयात करके भारत को डंपिंग ग्राउंड बना देती हैं। तय है,कालांतर में भारत की तरह दूसरे देशों में यदि मौसम रूठ जाता है तो दाल और प्याज की तरह खाद्य-तेल के भाव भी आसमान छूने लग जाते हैं। सस्ते तेल का आयात जारी रहने की वजह से ही भारत में तिलहन का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। बावजूद हमारे नेता ऐसी नीतियों को बढ़ावा देने की कोशिशों में लगे रहे हैं कि दलहन और तिलहत के क्षेत्र में भारत पूरी तरह परावलंबी बना रहे। इस परिप्रेक्ष्य में मनमोहन सरकार के कृषि मंत्री बलराम जाखड़ ने सलाह दी थी कि भारत अफ्रीका में दालें उगाए और फिर आयात करे। इसी तरह संप्रग सरकार में कृषि मंत्री रहे शरद पवार म्यांमार और उरुग्वे में दालें पैदा कराकर आयात करना चाहते थे। ये सुझाव समझ से परे हैं। आखिर ऐसे क्या रहस्य हैं कि हमारे नीति-नियंता विदेशी धरती पर तो दाल उत्पादन को प्रोत्साहित करना चाहते हैं, किंतु देश के किसानों को लाभकारी मूल्य देना नहीं चाहते ? ऐसी मंशाएं देश की खाद्य सुरक्षा को जान-बूझकर संकट में डालने जैसी लगती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस नाते 100 पिछड़े जिलों में दालों के उत्पादन का दायरा बढ़ाकर आत्मनिर्भरता की दिशा में महत्वपूर्ण पहल की है।

प्रमोद भार्गव