मानव समाज के प्रारम्भिक काल से ही मीडिया किसी न किसी शक्ल में मौजूद रहा है। एक अर्थ में कहा जाय तो आदिकाल से आधुनिक काल तक मानव समाज का जो विकास रहा है, वह इसी मीडिया पर की गई सवारी का प्रतिफल है। मीडिया का विकास मानव समाज के विकास के समानान्तर चलता रहता है। देश, काल और समाज में आये संरचनागत आर्थिक बदलाव के अनुरूप मीडिया के रूप-स्वरूप में भी हमेशा बदलाव होता रहता है। पर यदि आदिकाल से आघुनिक काल तक मीडिया की विकास यात्रा का अध्ययन किया जाय तब एक बात स्पष्ट हो जाती है कि मीडिया के मूल चरित्र में कभी कोई बदलाव नहीं आया। मीडिया हमेशा-हमेशा सामाजिक अभिजनों का टूल्स बना रहा। इसका इस्तेमाल सामाजिक अभिजनो के आघिपत्य को कायम रखने और उसकी किलेबन्दी को मजबूत करने कि लिए किया जाता रहा है।
मीडिया विमर्श के केन्द्र में आम आदमी कभी रहा ही नहीं। आम आदमी हमेशा परिधि पर रहा। यही कारण है कि हमारा इतिहास राजा-महाराजाओ का इतिहास है, उनके जीवन की गतिविघियां हैं। जिस वर्ग के हाथों में मीडिया की ताकत रही उसने अपने और अपने वर्ग-चरित्र की कालिमा को मीडिया की ताकत से छुपाया और अपने विरोधियों की जायज मांगों को भी अनैतिक, अमर्यादित, अधार्मिक और असामाजिक करार दिया। अब चूंकि सामाजिक अभिजनों के हाथों में मीडिया की ताकत रही है, इसलिए उसने हमेशा यहां के मूलवासियों के नायकों के चरित्र को एक सुनियोजित-सुविचारित तरीके से कलंकित किया, चरित्र-हनन की कोशिश की, उस पर तोहमत लगाये, उनके उज्जवल चरित्र को भी संदेहास्पद एवं दागदार बनाया, क्योंकि कल का इतिहास आज की मीडिया के द्वारा ही लिखा जा रहा होता है, इसलिए कल की पीढ़ी आज की किसी घटना या व्यक्तित्व को किसी रूप में देखेगी, वह आज की मीडिया की निरपेक्षता और वस्तुनिष्ठता पर निर्भर करता है पर जैसा कि स्पष्ट है। मीडिया हमेशा सामाजिक अभिजनों का एक टूल्स रहा है। इसलिए इससे निरपेक्षता और वस्तुनिष्ठता की आशा करना बेमानी है। यह हमेशा सामाजिक रूप से सशक्त समूह के साथ होता है, उसकी चाकरी करता है, उसके हितों व स्वार्थों का हिफाजत करता है। इसीलिए समाज के वंचित, शोषित, उत्पीड़ित समूह का नायक हमेशा खलनायक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद और अन्य सभी धर्मग्रन्थ तात्कालिक समाज का मीडिया ही है और इनके लेखन पर सामाजिक अभिजनों की सोच हावी रही है। इनके उद्देश्यों से समाजिक अभिजनों का हित, सोच और स्वार्थ मुखरित होता है। यह समाजिक अभिजनों के दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करती है। इसलिए इन ग्रन्थों में चित्रित खलनायकों का वास्तविक चरित्र का अध्ययन करते समय यह बात हमेशा हमारे दिमाग में रहनी चाहिए कि जिस मीडिया के द्वारा इन कथित खलनायकों के संबंध में सूचना दी जा रही है। वह एकहरी है, एकपक्षीय है। अपने जल, जंगल, जमीन, और जमीर की लड़ाई लड़ते नायकों को बहुत ही सुनियोजित तरीके से खलनायक की छवि प्रदान कर दी गई है और यह काम आज भी जारी है। आज भी दलित-आदिवासी एवं अन्य वंचित समूहों के नायकों की छवि दुष्प्रचारित की जा रही है, उन्हें खलनायक के बतौर प्रस्तुत किया जा रहा है।
मीडिया की ताकत आज भी सामाजिक अभिजनों -के हाथ में है और मीडिया की इसी ताकत के कारण सामाजिक अभिजनों की यह सुनियोजित-सुविचारित कोशिश रहती है कि दलित आदिवासी समुह के युवक-युवतियों की भागीदारी मीडिया के क्षेत्र में नहीं हो सके, मीडिया में उसके भागीदारी को हतोत्साहित किया जाए। कम से कम प्रिंट मीडिया की स्थिति यह है कि शायद ही किसी अखबार ने किसी दलित-आदिवासी युवक-युवती को अपने यहां स्टाफर के बतौर रखा हो जबकि उनकी रचनाएं हर अखबार से प्रकाशित होती है। उसकी गुणवत्ता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता, एक पत्रकार के लिए आवश्यक नैसर्गिक प्रतिभा की उनमें कोई कमी नहीं है, उधमशीलता एवं जोखिम लेने की प्रवृति भी इनमें प्रचुरता में विद्यमान है, अगर पत्रकारिता को एक मिशन माना जाए तब भी इसे एक मिशन के बतौर अपनाने वाले दलित-आदिवासी पत्रकारों की कमी नहीं है, योग्यता के किसी भी मापदंड के ख्याल से ये कमतर नहीं है। फिर भी इनकी उपेक्षा की जाती है और यह सिर्फ उपेक्षा का मामला नहीं है यह तो एक साजिश का परिणाम है।
दलित-आदिवासी पत्रकारों की अखबार के दफतरों से गैर-मौजूदगी महज होई इत्तेफाक नहीं है, एक दीर्घकालीन राजनीति व रणनीति का हिस्सा है और में सभी तरह के अखबार शामिल हैं। चाहे उनकी विचारधारा, ऊपरी व घोषित पक्षधरता कुछ भी हो। अपने को समाजवादी विचारधारा से प्रभावित मानने वाले अखबार हो या दक्षिणपंथ विचारधारा के झंडावदार। समाजवाद और दक्षिणपंथ दोनों ही सामाजिक अभिजनों के ही दो चेहरे है। एक समाजवादी विचारधारा के नाम पर अपनी खपत बढ़ाना चाहता है तो दूसरा दक्षिणपंथी विचारधारा के नाम पर अपनी मार्केटिंग चाहता है। इनका समाजवाद की दक्षिणपंथी विचारधारा से कम संकीर्ण नही है और दोनों विचारधाराओं की मार्केटिंग एक ही सामाजिक समूहों के द्वारा किया जाता है। हर तरफ उन्हीं का वर्चस्व है और इनकी एक समान रणनीति है।
दलित-पिछड़ा व आदिवासी समुदाय को पत्राकारिता के क्षेत्र में प्रवेश कर कठोर अंकुश लगाना और इसका एक तरीका है। अखबारों से इन्हें दूर रखना, इन्हें नियमित नहीं करना, नहीं तो क्या कारण है कि सवर्ण जातियों के सामान्य युवक-युवतियों को भी अखबारों में सहजता से रख लिया जाता है, पर ज्योंही एक दलित-आदिवासी इसकी कोशिश करता है, उसकी योग्यता पर प्रश्न चिह्न खड़ाकर उसे अनाप-शनाप सवालों में उलझाया जाता है, उसके मेरिट को एक साजिश के तहत डीवल्यूवेट कर उसमें हीनता की ग्रंथी पैदा करने की कोशिश की जाती है और यह सब कुछ किया जाता है, स्वतंत्र प्रतियोगिता के नाम पर। दलित-आदिवासी युवकों को बौद्धिक-आतंक कायम कर दबाने की कोशिश की जाती है, द्रोणाचार्य के समय से चली आ रही दलित-आदिवासी छात्रों को अपंग बनाने की प्रथा आज भी जारी है। हां, तरीके बदले हैं, रणनीतियां बदली हैं, पर दलित-आदिवासी छात्रों को नाकामयाब बनाने का कार्य योजना विराम नहीं लगा है।
कारण स्पष्ट है मीडिया भी इस समाज का एक हिस्सा है। जैसी समाज की संरचना होगी वैसी ही मीडिया की संरचना। चूंकि समाज में दलित-आदिवासी आज हाशिए पर है तो मीडिया में इनका हाशिए पर होना अस्वाभाविक नहीं है। मीडिया की ताकत उन्हीं सामाजिक अभिजनों के पास है जिसने दलित-आदिवासी व पिछड़ों को हाशिये पर ढकेला है। रही बात कभी-कभार दलितों के संबंध में लिखने की तो उसका कारण बाजार का दबाव है, क्योंकि दलित-आदिवासी समुदाय में एक बड़ा हिस्सा आज पढ़-लिख रहा है, उनकी क्रय क्षमता बढ़ी है, अब उपभोक्ता वस्तुओं का वहां उपभोग भी होने लगा है, दलित-आदिवासी समुदाय में अखबारों की बिक्री दिन पर दिन बढ़ती जा रही है और इसलिए दलित-आदिवासी के संबंध में कभी-कभार कुछ फीचर-आलेख व रिपोर्ट लिखवाकर बाजार की इस संभावना को टटोला जाता है पर इसके साथ ही दलित-आदिवासी समुदाय का वास्तविक मुद्दा सामने नहीं आ पाये, इसकी रणनीतियां भी बनाई जाती है। यही कारण है कि दलित-आदिवासी समुदाय के जो युवक-युवतियां आज स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहे हैं जिनके रिपोर्ट-आलेख मुख्यधारा के पत्रों में छपते रहते हैं उनसे भी मानवीय स्टोरी लिखने की फरमाइश की जाती है, उसे राजनीतिक सामाजिक आलेखों के लेखन से हतोत्साहित किया जाता है, क्योंकि बढ़िया से बढ़िया ह्यूमन स्टोरी भी शासकीय नीति पर बदलाव के लिए दबाव नहीं बना सकता।
इस प्रकार आदिवसी-दलित समुदाय का जो युवक-युवतियां स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता कर रहे हैं, उनकी भी स्वतंत्रता सीमित है, वहां अपने बुनियादी मुद्दे को नहीं उठा सकता, क्योंकि वह जानता है वह प्रकाशित नहीं होगा, उसे वह लिखना है जो अखबार चाहता है, उस तरह की रिपोर्टिंग करनी है जिस तरह की रिपोर्ट की जरूरत अखबर को है। और अखबार को जरूरत वैसी रिपोर्टिंग की है जिससे सामाजिक अभिजनों की असुरक्षा खत्म हो, उसकी किलेबन्दी मजबूत हो, अखबार को जरूरत उस तरह की रिपोर्ट की भी है जिससे दलित-आदिवासी एवं अन्य वंचित समूहों के वास्तविक मुद्दे को डायवर्ट किया जा सके और यदि यही काम एक दलित-आदिवासी रिपोर्ट करे तो इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता बढ़ जाती हैं, पर दलित-आदिवासी की समस्याओं पर कभी-कभार कुछ हल्के-फुल्के लिखवाने के लिए जिसका प्रयोग फिलर के रूप में किया जा सके। स्थाई पत्रकार की आवश्यकता नहीं होती, उसे स्टाफ के बतौर रखने की जरूरत नहीं होती। इसलिए दलित-आदिवासी पत्रकारों को नियमित करने की जरूरत ही महसूर नहीं होती और इसके खतरे भी हैं, क्योंकि ज्योंही दलित-आदिवासी पत्रकार को रखा जायेगा, वह मीडिया की आंतरिक रणनीति को समझने लगेगा। धीरे-धीरे वह दलित-आदिवासियों की मूल समस्याओं को सामने लाने की कोशिश करेगा।
विस्थापन को अवैध बतायेगा जल-जंगल-जमीन पर आदिवासी समाज की मालिकाना स्थिति को सामने लाने की कोशिश करेगा। जन हक स्थापित करने की दिशा में चल रहे विभिन्न जनान्दोलनों को लीड खबर बनायेगा, आदिवासी क्षेत्रों में खनिज संपदा पर आदिवासियों का हक बतलाएगा, आदिवासी समाज को जबरन मुख्य धारा में शामिल करवाने के बजाय वह आदिवासी समुदाय की सामुदायिक जीवन पद्धति व आत्म-निर्भरता को प्रोत्साहित करेगा। आदिवासी समुदाय की जीवन पद्धति, रीति-रिवाज, परंपरा, सभ्यता एवं संस्कृति पर विजातीय संस्कृति के दबाव को सामने लायेगा और आदिवासी समाज में मौजूद प्रतिरोध की संस्कृति को सही परिपेक्ष्य में स्थान दिलायेगा और तब मीडिया भी उसके लिए प्रतिरोध करने का एक कारगार हथियार बन जायेगा और यदि यह हुआ तो सामाजिक अभिजनों का जो आधिपत्य व आतंक है, उसमें दरार पड़ना प्रारंभ हो जायेगा, इनका बौद्धिक प्रपंच बेनकाब हो जाएगा।
आज आदिवासी-दलित सामाजिक अभिजनों की अंतिम ताकत है जिसपर दलित-आदिवासी राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं ने समुचित ध्यान नहीं दिया, उसकी ताकत को नहीं समझा, उसका तोड़ विकसित करने की कोशिश नहीं की और इसी कारण उन्हें आत तक पूरी कामयाबी नहीं मिल सकी, पर अब दलित-आदिवासी युवक-युवतियों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने प्रवेश की मंशा जाहिर कर इस कमी को पूरा करने की कोशिश नहीं की है। वह एक फूलटाइम के रूप में पत्रकारिता को अपनाने की इच्छा जाहिर कर रहे हैं।
अखबारों में नौकरियों की खोजकर रहे हैं, पर मुख्य धारा की मीडिया पर काबिज सामाजिक अभिजन इस कोशिश को नाकामयाब बनाने के लिए हर तिकड़म का सहारा ले रहे हैं, क्योंकि मीडिया की ताकत को दलित-आदिवासी एवं अन्य वंचित समूहों ने भले ही न पहचाना हो, सामाजिक अभिजन मीडिया की इस ताकत से परिचित है और मीडिया की सभी ताकत के बुते उनका पूरा का पूरा साम्राज्य खड़ा है। भला कौन बेवकूफ अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा, पर इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि दलित-आदिवासी पत्रकारिता पर अब पूर्णविराम लग जाएगा। हां ! उन्हें मीडिया के नये रूप-स्वरूप की खोज करनी पड़ेगी। इस मुख्यधारा की मीडिया के समानान्तर एक नयी और दुरूस्त मीडिया की संरचना कायम करनी होगी। आदिकाल से आधुनिक काल तक दलित-आदिवासी समुदाय ने हमेशा मुख्य धारा मीडिया के समानान्तर एक जन-मीडिया को बनाये रखा है। हमें इस जन-मीडिया की ताकत को पहचानना होगा और इसे और भी परिष्कृत कर मुख्य धारा की मीडिया को चुनौती देनी होगी, पर इसके साथ ही मुख्य धारा की मीडिया में स्थान बनाने के लिए सामुहिक पहलकदमी को भी तेज करना होगा। हर मौके एवं अवसर का उपयोग करना होगा। यह लड़ाई इतनी आसान नहीं है और इसमें सफलता एक-दो दिनों मे नहीं मिल सकती। हमें एक लंबी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा।
जैसा समाज होगा वैसा ही मीडिया भी होगा लेखक ने ये बात तो खुद ही मानी है. शिकायत की बजाय बेहतर ये है के दलित आदिवासी और वंचित वर्ग नीयू मीडिया का इस्तेमाल करें लेकिन योग्यता और साधन तो उसके लिए भी ज़रूरी है.