उदार लोकतांत्रिक विचारों का मंच है ‘प्रवक्ता’ / संजय द्विवेदी

संजय द्विवेदी जी हिंदी पत्रकारिता के यशस्वी युवा हस्ताक्षर हैं। कम समय में ही उन्‍होंने अपनी निर्भीक लेखनी से प्रिंट, इलेक्‍ट्रॉनिक और वेब में विशिष्‍ट पहचान बनाने में सफलता प्राप्‍त की है। राजनीति, मीडिया, संस्‍कृति, नक्‍सलवाद आदि विविध विषयों पर उनका व्‍यवस्थित विश्‍लेषण उल्‍लेखनीय है। इन दिनों वे अध्‍यापन कार्य को चुनकर पत्रकारिता में सजग पत्रकारों की नयी पीढ़ी बनाने के महती कार्य में जुटे हैं। संजयजी का लेख प्रवक्‍ता पर केवल प्रकाशित ही नहीं होता अपितु वे प्रवक्‍ता के आधारस्‍तंभों में से एक हैं। हम उनसे जब-तब मार्गदर्शन लेते रहते हैं। यहां प्रस्‍तुत है उनका अद्भुत संस्‍मरण :  

pravaktaप्रवक्ता डॉट काम की सफलता को देखना और अनुभूत करना मेरे जैसे साधारण लेखक के लिए सुख देने वाला है। एक खास विचारधारा से जुड़े लोग इसे चलाते हैं जो अब मेरे मित्र भी हैं। किंतु प्रवक्ता ने संवाद की धारा को एकतरफा नहीं बहने दिया। प्रवक्ता के संचालकगण अपनी सोच और विचारधारा के प्रति खासी प्रतिबद्धता रखते हैं। उनके लेखन, आचरण और संवाद में उनकी इस वैचारिक निष्ठा का हर क्षण प्रमाण मिलता है। संजीव सिन्हा को जानने वाले इस अनुभव करते ही होंगें। किंतु प्रवक्ता एक विमर्श का मंच बना, एक उदार लोकतांत्रिक विचारों का संग्रह आपको यहां दिखता है।

मुझे याद है कि मैंने एक बार राहुल गांधी की यात्राओं और उस बहाने उनकी देश को जानने की तड़प की चर्चा करते हुए ‘शाहजादे’ की तारीफ में काफी कुछ लिख दिया। मुझे लगा शायद यह प्रवक्ता में न लग सके, पर यह मेरा नियमित मंच है इसलिए मेल किया और वह लेख बिना संपादित हुए जस का तस प्रकाशित हुआ। यह मेरे लिए चौंकाने वाली ही बात थी। किंतु भरोसा कीजिए कि प्रवक्ता में प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी जैसै वामपंथी, गिरीश पंकज जैसे गांधीवादी चिंतक भी लिखते हैं। सही मायने में यह लेखकों का एक ऐसा मंच है जिसने बाड़ नहीं लगाई, खूंटा नहीं गाड़ा और विचारों को उदार और स्वस्थ मन से जगह दी। इस विचारहीन समय में विचारों के लिए ऐसी उदारता मुख्यधारा के मीडिया में कहां है? कारपोरेट मीडिया में बाजारू विचारों और नारों के लिए खासी जगहें हैं, किंतु गंभीर राजनीतिक-सामाजिक विमर्शों के लिए उनके पास स्थान कहां है? नए मीडिया के ‘प्रवक्ता’ जैसे अवतार हमें आश्वस्त करते हैं और आम लेखक को मंच भी देते हैं।

प्रवक्ता ने दी पहचानः 

मैं लगभग चौदह साल सक्रिय पत्रकार रहा, पांच सालों से अध्यापन में हूं। किंतु राष्ट्रीय स्तर पर मुझे न्यू मीडिया ने ही पहचान दिलाई। प्रवक्ता डॉट काम, भड़ास फॉर मीडिया डाट काम, हिंदी डॉट इन, सृजनगाथा, विस्फोट के माध्यम से मेरा लेखन छत्तीसगढ़ और मप्र की सीमाओं को पार देश के तमाम पाठकों तक पहुंचा। प्रवक्ता का इसमें विशेष योगदान है। मेरे लगभग 140 से अधिक लेख छापकर प्रवक्ता ने मुझे जो सम्मान दिया है, उसे मैं भूल नहीं सकता।

मुझे लगता है काश न्यू मीडिया हमारी पूर्व की पीढी को भी मिला होता तो हिंदी के पास न जाने कितने नायक होते। मैं आज भी सोचता हूं हजारों- लाखों पत्रकार आंचलिक पत्रकारिता में अपना चिमटा गाड़े बैठे रहे और उनको देश सुन और पढ़ नहीं सका। किंतु आज हमारे जैसे नाकाबिल और अल्पज्ञानियों को भी देश में एक पहचान मिली क्योंकि न्यू मीडिया हमारे समय में उपस्थित है। न्यू मीडिया के इस जादू ने कितने लेखक और पत्रकार गढ़े यह कहना कठिन है, किंतु न्यू मीडिया के ना होने के दौर में कितनी प्रतिभाओं के परिचय से हिंदुस्तान वंचित रह गया वह सोचने की बात है। क्योंकि उस दौर में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पत्रकारिता की सीमाएं बहुत स्पष्ट थीं। दिल्ली गए बिना, वहां संपादक बने बिना, मोक्ष कहां मिलता था? आप कल्पना करें राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी ने इंदौर से दिल्ली की दौड़ न लगाई होती और धर्मवीर भारती और सर्वेश्वर इलाहाबाद में चिमटा गाड़े रहते तो देश उन्हें क्या इस तरह जानता? किंतु आज देश के किसी भी कोने में बैठा युवा दिल्ली के कान में अपनी आवाज पहुंचा देता है तो इस न्यूमीडिया को सलाम करने को जी चाहता है। हमारे आशीष अंशू की उमर क्या है-पूरे देश उसे जानता है, पंकज झा रायपुर से किसी पर भी तोप मुकाबिल करते हैं और अखबार निकाले बिना। अनिल सौमित्र का वार्षिक आयोजन चौपाल देश भर में चर्चा का केंद्र बन जाता है। गया (दिल्ली) गए बिना फेसबुक ही आपको मोक्ष दिला देता है। ‘जो रचेगा वही बचेगा का नारा’ अब सच हो रहा है।

सब कुछ छप जाने का समयः 

कितना भी लिखो सारा कुछ छपने का यह समय है। कचरा भी, अब कचरा नहीं रहा, वरना पहले तो अपने लेखों की हस्तलिखित पांडुलिपियों को देखते हुए ही लोग बुढ़ा जाते थे। आज वे ब्लॉग पर अपने लिखे चमकीले अक्षरों को कम्प्यूटर स्क्रीन पर देखकर मुग्ध होते हैं। एकाध लाइक, कमेंट पाकर निहाल होते रहते हैं। भाई जिंदगी को जीने के लिए और क्या चाहिए। न्यू मीडिया ने चाहे-अनचाहे हमें मुगालते ही नहीं दिए हैं, हमारी दुनिया भी बहुत बड़ी कर दी है।आज हर लेखक अंतर्राष्ट्रीय हो सकने की संभावना से भरा है। ऐसे तमाम लेखकों को संजीव सिन्हा, भारतभूषण और उनकी टीम ने एक मंच दिया है। आकाश दिया है। मैं अपने को भी उन्हीं लेखकों की सूची में रखता हूं जो न्यू मीडिया के चलते अखिल भारतीय हैं। क्योंकि दिल्ली शहर से मेरी सक्रिय पत्रकारिता की जिंदगी में कुल तीन-चार मुलाकातें हुयी हैं एक (सन् 2000 में) सुधीर अग्रवाल से उनके सैनिक फार्म हाउस के मकान में भास्कर की नौकरी मांगते वक्त, दो (सन् 2002) भारतीय विद्या भवन के दीक्षांत समारोह के समय डा. नामवर सिंह के सुखद सानिध्य में बैठकर व्याख्यान देते हुए और तीन पिछले दिनों गुरूदेव स्व. डा.सुरेश अवस्थी की बेटी श्रुति की शादी के वक्त। चौथी बार प्रवक्ता के आयोजन में शामिल होने 18 अक्टूबर ,2013 को दिल्ली आ रहा हूं। मैंने दोस्तों के बीच में अपना यह जुमला दुहराना भी अब बंद कर दिया है कि “संजय द्विवेदी और बाल ठाकरे दिल्ली नहीं जाते।“ आदरणीय ठाकरे जी अब रहे नहीं, अब अकेला ही मैं इस संकल्प को कितना ढो सकूंगा? वैसे भी प्रवक्ता के 18 अक्टूबर के आयोजन में मेरा आना साधारण नहीं है,यह एक आभार भी है उस मंच का जिसने मुझे मेरे कद,पद और लेखन से ज्यादा जगह दी, प्यार दिया । इस प्यार की डोर ही दिल्ली से डरने वाले, दिल्ली जाने में संकोच से भरे एक इंसान को दिल्ली ला रही है- आमीन!

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