- ललित गर्ग-

कोरोनारूपी महामारी एवं महाप्रकोप से जुड़ी हर मुश्किल घड़ी का सामना हमने मुस्कराते हुए किया। हालात ने जितना भी गिराने की कोशिश की, हम हर बार उठने में कामयाब रहे। दुख हर किसी को तोड़ता भी नहीं है। टूटते वे हैं, जो नाउम्मीदी में उम्मीद पाने, निराशा में से आशा का संचार करने एवं तकलीफों को सीख बनाने के लिए तैयार नहीं होते, खुद पर भरोसा नहीं करते। कहावत है कि मुसीबत के समय हिम्मत हार कर बैठ जाने वाले बैठे ही रह जाते हैं। लेकिन दुनिया में लॉकडाउन के समय इंसानों में ही नहीं, पर्यावरण एवं पंछियों की दुनिया में भी अच्छे एवं सकारात्मक बदलाव हुए हैं। हर प्रतिकूलता में अनुकूलता का जन्म होता है, यह बात हमें पंछियों ने इस संक्रमण दौर में सिखायी है। पंछियों की दुनिया पहले से ज्यादा हसीन, खुशनुमा और रहने लायक हुई है। इसका असर उनकी आवाज में महसूस होने लगा है और इसी बदली आवाज पर हुए एक शोध के परिणामों ने हमें सुखद अहसास दिया है।
व्यवहार पारिस्थितिकी विज्ञानी लिज डेरीबेरी की टीम को इन पंछियों का अध्ययन करते हुए दिलचस्प नतीजे मिले हैं। यह वही डेरीबेरी हैं जो करीब एक दशक तक सफेद कलगी वाली गौरैया का अध्ययन कर चुकी हैं। उन्होंने विस्तार से इस बात को सामने रखा था, समय के साथ बढ़ रहे ध्वनि-प्रदूषण एवं शहरी शोर ने संवाद करने की पंछियों की क्षमता को कैसे बाधित किया है। ऐसे में, यह एक खुशखबरी है कि लॉकडाउन के वक्त पंछियों की आवाज ज्यादा खुशनुमा हुई है। जब महामारी के कारण सैन फ्रांसिस्को के लोग घरों के अंदर थे, तब यह अध्ययन शुरू किया गया। पंछियों और विशेष रूप से गौरैया की आवाजों का पीछा किया गया, उन्हें रिकॉर्ड किया गया। महामारी के पहले की उनकी रिकॉर्ड आवाज से नई आवाज की तुलना की गई और पाया गया कि पंछियों के स्वर पहले की तुलना में ज्यादा मधुर और मुखर हुए हैं। महामारी से पहले मानवी शोरगुल में उनकी आवाज वैसे ही दबी जा रही थी, जैसे नक्कारखाने में तूती। बात केवल पंछियों एवं गौरैया की ही नहीं है, हमारा पर्यावरण, प्रकृति, नदी, झरने एवं वादियां भी पहले की तुलना में अधिक स्वच्छ, साफ-सुथरी, मोहक एवं आकर्षक बनी है। इसका अर्थ यही है कि मनुष्य की सुविधावादी जीवनशैली ने समूची सृष्टि, पर्यावरण एवं जीवनशैली को बदनुमा किया है, प्रदूषित किया है। कृत्रिम साधनों, भोगवादी जीवनशैली एवं प्रकृति के अति दोहन ने जीवन पर पहले ही संकट के बादल मंडरा रखे हैं, इन संकटों का हमें आभास भी नहीं है। कोरोना के कारण बदली जीवनशैली से हुए सकारात्मक परिवर्तनों को देखते हुए हमें वास्तविक प्रकृति के नजारों का साक्षात्कार हुआ है, पंछियों की आवाज का जादू हमें अब सुनाई दे रहा है, नदी-झरने स्वच्छ जल से सराबोर है, प्रकृति एवं पहाड़ हंसते-मुस्कुराते हुए दूर से देखें जा सकते हैं।
सैन फ्रांसिस्को की सूनी पड़ी सड़कों पर पंछियों की आवाज रिकॉर्ड करके डेरीबेरी और उनके सहयोगियों ने खुलासा किया कि लॉकडाउन के समय पक्षियों की आवाज की गुणवत्ता व दक्षता, दोनों में व्यापक रूप से सुधार हुआ है। खासकर नर पक्षी ज्यादा सुरीले हुए हैं, उन्हें अपने क्षेत्र की रक्षा व नया साथी खोजने के लिए अपने गीत-संगीत का सहारा लेना पड़ता है। टेनेसी यूनिवर्सिटी के शोधार्थी बताते हैं कि जितना अनुमान था, उससे कहीं ज्यादा पंछियों की आवाज बदली है। इससे पता चलता है, ध्वनि प्रदूषण किस तरह पंछियों की आवाज और दुनिया को नुकसान पहुंचाता है। यदि हम अनावश्यक शोर-गुल और प्रदूषण पर लगाम लगा दें, तो पंछियों की पुरानी दुनिया फिर गुलजार हो जाएगी, जिससे हमें भी लाभ होगा। साइंस पत्रिका में प्रकाशित शहरी वन्य जीवों पर महामारी के प्रभावों का वैज्ञानिक रूप से मूल्यांकन करने वाला यह पहला शोध है। यह अनुसंधान के एक जटिल क्षेत्र पर प्रकाश डालता है व संकेत करता है कि मानव निर्मित शोर ने कैसे पूरी प्रकृति को बाधित कर दिया है।
बात शोर प्रदूषण की ही नहीं है, बल्कि अन्य तरह के प्रदूषणों ने भी जीवन को बाधित किया है। आज मानव सभ्यताएं एवं विकास की तमाम योजनाएं हरेक प्रकार के प्रदूषण बढ़ाने में जुटी हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि कुछ ही महीनों में पंछियों के व्यवहार-आवाज में बदलाव महसूस किया जा सकता है, तो लंबे समय तक यही माहौल मिले, तो पूरे जीव जगत को कितना फायदा होगा। दुनिया मधुर ध्वनियों से सराबोर हो सकती है। सैन फ्रांसिस्को में यदि गौरैया नए गीत गाने लगी हैं, तो जाहिर है, दुनिया के दूसरे शहरों में भी पंछी अब मीठे स्वर में बातें कर रहे होंगे। शोध से यह भी संकेत मिलता है कि पंछियों में तनाव का स्तर घटा होगा, जिससे खासकर शहरी पंछियों की जिंदगी पहले की तुलना में लंबी होने का अनुमान है। गांव में जो पंछी रहते हैं, उनसे जुड़ा अध्ययन बताता है कि लॉकडाउन से पहले और उसके दौरान उनकी आवाज समान बनी रही है। एक और सकारात्मक सुधार यह हुआ है कि ऐसे लोगों की संख्या बढ़ी है, जो अपने आंगन या बगीचे में पंछियों का आनंद ले रहे हैं। बेशक, पंछियों की खुशी केवल उनके ही नहीं, बल्कि हम इंसानों के भी काम आएगी, हमारे जीवन में भी खुशहाली, शांति एवं सकारात्मक परिवर्तन का माध्यम बनेगी।
हमारी जीवनशैली का दुर्भाग्य है कि पंछियों की आवाज तो दूर की बात है सूरज की प्रथम किरणों से भी हम वंचित हैं, क्योंकि हम सूरज की दस्तक पर जागकर भी नहीं जागते, फिर सो जाते हैं बिस्तर पर करवटें बदलकर। यह चिन्तनीय बिन्दु है कि आजकल सूरज उतरता कहां है आंगन में? आदमी ने जमीं को इतनी ऊंची दीवारों से घेर कर तंगदील बना दिया कि धूप और प्रकाश तो क्या, हवा को भी भीतर आने के लिये रास्ते ढूंढ़ने पड़ते हैं। न खुला आंगन, न खुली छत, न खुली खिड़कियां और न खुल दरवाजे, सूरज की रोशनी एवं गौरैया की मधुर आवाज भीतर आए भी तो कैसे? सुविधावादी एवं भौतिकवादी जीवनशैली से जुड़ी स्थितियां कोरोना महामारी से अधिक घातक एवं जानलेवा है, यदि इस पर शोध हो तो उसके परिणाम गौरैया की बदली आवाज से अधिक चैंकाने वाले होेंगे। कोरोना के प्रकोप एवं उससे बचने की स्थितियों ने हमारी जीवनशैली को एक बड़ा संदेश दिया है कि कोरोना तो समय-सापेक्ष है, लेकिन आपकी अस्त-व्यस्त जीवनशैली स्थायी है, न सही समय पर खानपान, न भ्रमण, न व्यायाम, न कार्य का संतुलन, न अपनों के बीच संवाद, संपर्क, सहवास। ऐसी भागती जिन्दगी में हम कहां बटोर पाते हैं पंछियों का कलरव एवं सूरज का प्रकाश? जीवनशैली ऐसी बन गयी कि आदमी जीने के लिये सबकुछ करने लगा पर खुद जीने का अर्थ ही भूल गया।
कोरोना महामारी एक सबक है जीवनशैली को बदलने का, पर्यावरण एवं प्रकृति के प्रति जागरूक होने का। शरीर, मन, आत्मा एवं प्रकृति के प्रति सचेत रहने का। हर कोई अपना और अपनों का ध्यान रखें। स्वस्थ जीवनशैली अपनाएं। अच्छा सोचें। दूसरों को माफ करें। दूसरों की मदद करें। खुद पर भरोसा रखें। नियमित ध्यान और स्वाध्याय करें। समभाव और सहजभाव में रहना सीखें। अपनी वस्तुओं की देखभाल एवं उन्हें प्यार करें। उन्हें बेकार न करें। जरूरतमंदों में बांटें। प्रकृति, पर्यावरण एवं आसपास को साफ-सुथरा रखें। जीव मात्र का ध्यान रखें। ऐसा करने से गौरैया की ही नहीं, सभी पंछियों की आवाज एवं प्रकृति खुशनुमा बन जायेगी, सूरज के आंगन में उतरने से सम्पूर्ण जीवन जीवंत हो जायेगा। यही वह क्षण है जिसे हमें समझना हैं, पकड़ना हंै और जीना हैं।