मोदी को मुद्दे की तलाश

 modiडॉ. वेदप्रताप वैदिक

प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा भाजपा अभी करे या न करे, उसके दिल्ली अधिवेशन ने मोदी के नाम पर मुहर लगा दी है| कोई अनहोनी हो जाए तो बात दूसरी है, वरना अब भाजपा में मोदी के नाम का विरोध करने की हिम्मत किसी की भी नहीं होगी|संघ की भी नहीं| अब मोदी और संघ के बीच तारतम्य बढ़ने की संभावना बलवती हो जाएगी|

भाजपा में मोदी का विरोध तीन कोणों से आ सकता था| एक तो अन्य मुख्यमंत्रियों की ओर से, दूसरा उनके समवयस्क लगभग आधी दर्जन नेताओं से और तीसरा भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से! इन तीनों वर्गों के नेताओं के भी भाषण हुए| लेकिन किसी भी नेता ने दबे-छिपे ढंग से न तो अपना नाम आगे बढ़ाया और न ही मोदी की आलोचना की! भाजपा-अध्यक्ष राजनाथ सिंह की प्रारंभिक टिप्पणी और असाधारण स्वागत ने ही मोदी का मार्ग प्रशस्त कर दिया|

मोदी के अपने भाषण ने सदन की सराहना पर नई धार चढ़ा दी|गुजरात का चुनाव तीसरी बार जीतकर उन्होंने प्रधानमंत्री पद के द्वार पर दस्तक दे दी थी लेकिन उनका यह भाषण ऐसा था, मानो वे प्रधानमंत्री के द्वार पर अब घूंसे जमा रहे हों| कांग्रेस और इंदिरा-फिरोज गांधी परिवार की इतनी कटु आलोचना इतने कड़े शब्दों में शायद ही कभी किसी जनसंघी-भाजपाई नेता ने कभी की हो| उन्होंने हरित क्रांति का श्रेय भी लाल बहादुर शास्त्री को दे दिया| कांग्रेसी नेताओं की तुलना उन्होंने ‘चौकीदारों’ (चपरासियों से नहीं) से कर दी| उन्होंने भाजपा को’मिशन’ और कांग्रेस को ‘कमीशन’ की पार्टी कह दिया| मोदी के इस तीखे तेवर पर कांग्रेस की लचर-पचर प्रतिक्रिया आखिर किस बात की प्रतीक है? क्या इसकी नहीं कि कांग्रेस ने भी मोदी के आगे हथियार डाल दिए हैं? क्या इसकी गहरी प्रतिक्रिया आम जनता पर नहीं होगी?

ज़रा तुलना करें| कांग्रेस के भावी प्रधानमंत्री की और भाजपा के भावी प्रधानमंत्री की! जयपुर और दिल्ली की! कांग्रेस का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार अपना चेहरा लटकाए हुए ऐसा लगता है, कि मानो विदाई का शोक-गीत गा रहा है और भाजपा का उम्मीदवार विजयश्री के वरण के लिए शेर की तरह दहाड़ रहा हो| लेकिन क्या सिर्फ दहाड़ के नाम पर272 सीटें जीती जा सकती हैं? यह आंकड़ा लोकसभा-चुनावों में जब भी किसी पार्टी ने पार किया है तो उस समय दहाड़ तो थी, दहाड़ मारनेवाला भी कोई न कोई जरुर था लेकिन इनसे बड़ी बात यह थी कि कोई बड़ा मुद्दा था| कभी गरीबी हटाओ, कभी इंदिरा हटाओ, कभी इंदिरा जी की शहादत कभी बोफोर्स और कभी राम मंदिर मुद्दा बना था| 2014के चुनाव के लिए भी एक बड़ा मुद्दा आकार ले रहा था, भ्रष्टाचार का! लेकिन अन्ना आंदोलन ने उसका दम निकाल दिया| उसका खुद का दम भी निकल गया| कांग्रेस अपनी करतूतों से इस मुद्दे को बराबर मजबूत बनाती जा रही है| अब हैलिकाप्टरों में 360 करोड़ की रिश्वत का ताजा मुद्दा उसने देश को दे दिया है| लेकिन विपक्ष के राजनीतिक दल इस तरह के मुद्दों को भुना ही नहीं पा रहे हैं, क्योंकि जब वे सत्ता में रहे हैं तो उनके दामन पर भी छोटे-मोटे ही सही, इस तरह के दाग लगते रहे हैं| इससे भी बड़ी बाधा यह है कि उनके पास भ्रष्टाचार-विरोध का कोई एक ऐसा प्रतीक-पुरुष नहीं है, जैसा कि बोफोर्स के मामले में विश्वनाथ प्रताप सिंह और आपात्काल में जयप्रकाश बन गए थे| क्या नरेंद्र मोदी इस शून्य को भर सकते हैं? शायद नहीं? यदि वे मुख्यमंत्री नहीं होते तो शायद इस मुद्दे पर देश उनके पीछे लग जाता| हालांकि उन पर 10 साल तक राज करने के बावजूद भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं लगे, फिर भी किसी सत्ताधीश को जनता भ्रष्टाचार-विरोध का प्रतीक तभी मान सकती है, जबकि इस मुद्दे पर वह कोई बगावत करे या कुर्बानी करे| क्या नरेंद्र मोदी के लिए कोई ऐसा अवसर बन सकता है? क्या नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार-विरोध की कोई देश-व्यापी लहर खड़ी कर सकते हैं?

यदि नहीं तो कोई लहर खड़ी किए बिना वे कोई सशक्त गठबंधन भी खड़ा नहीं कर सकते| पार्टी की बाधा तो उन्होंने पार कर ली लेकिन यदि उनके नेतृत्व में 200 सीटों का जुगाड़ भी बैठता नहीं दीखता तो भाजपा-गठबंधन के पुराने घटक दुबारा उसकी तरफ कैसे लौटेंगे?संवैधानिक नहीं, शुद्घ पार्टीगत चश्मे से देखें तो आज का भारत लगभग दर्जनभर जनपदों में बटा गणतंत्र बन गया है| अखिल भारतीय समझी जानेवाली पार्टियां कुछ राज्यों में सिमटकर रह गई हैं| ज्यादातर राज्यों पर क्षेत्रीय क्षत्र्पों का कब्जा हो चुका है| इन क्षत्र्पों से सांठ-गांठ किए बिना 272 का आंकड़ा छू पाना असंभव है| इस सांठ-गांठ से बनी सरकार मनमोहन-सिंह-सरकार से भी बदतर सिद्घ हो सकती है| इसका तोड़ यही है कि मोदी कोई बड़ी लहर खड़ी करे, जो वर्तमान भाजपा और कांग्रेस से भी बड़ी हो| वह सचमुच अखिल भारतीय हो| उन्होंने लालबहादुर शास्त्री और प्रणब मुखर्जी की तारीफ करके भाजपा के पाट को थोड़ा चौड़ा तो किया लेकिन वे पीवी नरसिंहराव को क्यों भूल गए? क्या उन्हें दक्षिण भारत को अपने साथ नहीं लेना है?

जो बात श्री लालकृष्ण आडवाणी ने कही, वह सबसे ज्यादा ध्यान देने लायक है| अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतना भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है| खासतौर से तब जबकि भाजपा नरेंद्र मोदी को अपना नेता घोषित करेगी| इस काम का जिम्मा मोदी स्वयं लें और स्वयं जबर्दस्त पहल करें तो उसका चमत्त्कारिक असर हो सकता है| जो भी हो,यह भी ऐसा मुद्दा नहीं है, जो देश-व्यापी लहर पैदा कर सके|

यदि मोदी सचमुच प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो उन्हें एक ऐसे देशव्यापी ज्वलंत मुद्दे की तलाश करनी होगी, जो भाजपा के वोटों को पांच से दस प्रतिशत तक बढ़ा सके| विकास का मुद्दा जरुर है लेकिन उसके दावेदार कई अन्य मुख्यमंत्री भी है| हां, यदि एक बार-गरीबी हटाओ-भ्रष्टाचार मिटाओ- के मुद्दे को वे ठोस आंकड़ों की शक्ल में उठाएं तो शायद जाति, मज़हब और प्रांत की दीवारें ढह जाएं और एक अखिल भारतीय लहर उठ जाए| क्रोध की नहीं, आशा की लहर! जिसे 26 रु. रोज पर गांव में और 32 रु. रोज पर शहर में गुजारा करना पड़ता है, अगर कोई नेता उस ‘गरीब’ को 100 रु. रोज़ की ठोस आशा बंधा दे तो उस नेता को उसकी पार्टी, उसके गठबंधन और उसके देश में प्रधानमंत्री बनने से कौन रोक सकता है ?

1 COMMENT

  1. मंजिल अभी बहुत दूर है,समय भी बहुत बाकी है,इस राजनीती ,में कब कौनसा भूत आकर खड़ा हो जाये कहना मुश्किल है.अब तो राहुल भी प्रधान मंत्री के लिए गोलमाल सा जवाब देने लगें हैं.पर चापलूस उन्हें आसमान पॉर बिठा ही देंगे.मोदी को भी अभी बहुत कुछ सिद्ध करना होगा.इसलिए अभी कयास लगाना दूर की कौड़ी खेलना होगा?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here