मोदी बनाम गुमनाम का पीएम कुर्सी वार

narendramodiहालिया भाजपा की राष्ट्रीय परिषद बैठक में नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति ने पीएम कुर्सी द्वंद्व के बादल और भी गहरे कर दिये हैं। बहुत समय से भाजपा में कद के लिए द्वंद्व जारी है। भाजपा के किले में वीरो का कभी अस्त्र प्रयोग तो कभी पोस्टर प्रयोग तो कभी अनुपस्थिति, उपस्थिति की गूढ़ विद्या तो कभी बयानबाजी के रूप में सामने आते रहना कोई नया नही है। भाजपा के किले में वीरो की एक पूरी जमात है और इसमें सबसे बड़े वीर का अधिकारिक घोषणा सार्वजनिक तौर पर होना बाकी है जिसको यदि भाजपा जीतती है तो प्रधानमंत्री पद को सुशोभीत करना हैं। दूर के ढोल सुहावने तो होते ही है। अभी लोकसभा चुनाव होने में समय है और भाजपा में अनेकों धुरंधर महाभारत के द्रोणाचार्य, अर्जुन और चिडि़या की आंख वाले अध्याय का मनन कर रहे हैं। हां यह दीगर है कि कुछ पर्दे के पीछे से निशाना बेध रहे है तो कुछ खुलेआम मंच पर आसीन होकर। कुछ समय पहले भाजपा में जब प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के कसीदे गढ़े जा रहे थे तब आखिर राजनीति के मुख्यधारा के नेता कहां तक चूप रहते सबने अपना-अपना माईक लेकर गोले दागने शुरु कर दिये और इन्हें चुप रहना भी तो नहीं आता। जहां बोलना चाहिये ये चुप रहते हंै और जहां नहीं बोलना चाहिये वहां इनका माईक आॅटोमेटिक रायफल की तरह चलने लगता है। जदयू अध्यक्ष शरद यादव ने कहा था ”जातिवाद देश में अन्य स्थानों की तरह गुजरात में भी है। देश का कौनसा हिस्सा जाति के प्रभाव से अछूता है। गुजरात किसी व्यक्ति के कारण आर्थिक तरक्की में आगे नहीं है बल्कि ऐसा भौगोलिक स्थिति के चलते है। गुजरात का विकास आज नहीं बल्कि इसका विकास समुद्र किनारे बसे अन्य शहरों की तरह ब्रिटिश शासनकाल में ही हुआ था।“ फिर लालू ने कहा ”देश का पूंजीपति वर्ग ही नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाना चाहता है।“ उसके बाद नीतीश कहां चुप रहते उन्होंने कहा ”वह प्रधानमंत्री के रूप में किसी धर्मनिरपेक्ष नेता को ही समर्थन देंगे।“ और रही सही कसर दिग्विजय सिंह ने पूरी की और कहा कि ”खुद को ‘विकास पुरूष’ बताने वाले मोदी को अपने अभिमान को त्याग देना चाहिए। मोदी को यह समझना चाहिए कि लंकापति ने भी सोने की लंका बनाई थी लेकिन उसके बाद रावण के साथ क्या हुआ।“

भाजपा को पूरा जानने के लिए थोड़ा अतीत में जाना होगा और पहले लोकसभा से प्रकाश में आई भारतीय जनसंघ पार्टी को इतिहास के आइने के समक्ष रखना होगा। इसका चुनाव चिन्ह लैंप हुआ करता था। 1947 का पाकिस्तान आक्रमण, बढ़ती हुई भारतीय सेना को रोक देने सहित युद्ध विराम करना और संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर के विलय को ले जाकर बचकानापूर्वक उलझा देना जैसे मामले श्यामा मुखर्जी सरीखे लोगो को राष्ट्रहित की क्षति लग रही थी। उसी समय पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं के खिलाफ दमन चक्र भी चल रहा था और हिन्दू शरणार्थी भारत भी आ रहे थे। पाकिस्तान के प्रति नरम रूख से असंतोष पैदा हो रहा था। और इसी वजह से श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने मंत्रीपरिषद से त्यागपत्र दे दिया था। और फिर मुखर्जी ने 21 अक्टूबर 1951 को नई दिल्ली में भारतीय जनसंघ पार्टी की शुरुआत की। भारतीय जनसंघ की स्थापना के पूर्व मुखर्जी आरएसएस के द्वितीय सरसंघ चालक गोलवलकर जी से मिलने गये थे और संघ से समर्थन की अपेक्षा की थी। संघ राजनीति में आने के पक्ष में नही था और गोलवलकर जी ने प्रस्ताव मानने से इंकार कर दिया था। लेकिन सहयोग का आश्वासन जरूर दिया। और इसी तारतम्य में गोलवलकर ने संघ में तपे-मंझे दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे कुछ अन्य कार्यकर्ताओं को श्यामा प्रसाद मुखर्जी को दिये ताकि पार्टी को मजबूत बनाया जा सके। संघ और मुखर्जी के विचारों में परस्पर मेल भी था। और उस समय संघ भी नेहरू की नीतियों से आहत था। 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 3 सीटो के जीत से आगाज किया जिसमें मुखर्जी भी थे। कश्मीर के राजा हरी सिंह ने भारत में विलय का समझौता किया और नेहरू ने नेशनल कांफ्रेस के शेख अब्दूल्ला को जम्मु-कश्मीर में नियुक्त किया। और अब्दुल्ला ने वहां नया विधान नया निशान लागू किया। और इस अलग विधान और निशान पर प्रजा परिषद ने आन्दोलन भी किया था और नारा था ”एक देेश में दो प्रधान, दो विधान और दो निशान नहीं चलेंगे“ और यह एक आन्दोलनकारी रूप अख्तियार करने लगा। मुखर्जी ने बिना परमिट वाले जम्मू कश्मिर में प्रतिबंध को दरकिनार कर प्रवेश किया लेकिन 23 जुन 1953 को शेख अब्दुल्ला के कारागार में उनकी विवादस्पद ऐतिहासिक मृत्यू हुई जिसे इतिहास आज भी पचाने में विफल है। फिर 1957 में पार्टी को 5.9 प्रतिशत वोट, 4 सीट, 1962 में 6.4 प्रतिशत वोट और 14 सीट तथा 1967 में 9.4 प्रतिशत वोट तथा 35 सीट प्राप्त हुये। 25 जून 1975 को देश में आपात काल लागु हुआ और फिर शुरू हुआ निर्ममता का दौर। अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं को जेलो में जबरन ठूसना, मीसा जैसे कानूनो का दुरुपयोग, न्यायालयों पर दबाव पैदा करना, आरएसएस पर प्रतिबंध और नौकरशाहीक सिद्धान्तों के पालन ने लोकतंत्र का गला घोंटना शुरू किया। इसके विरोध में लाखों लोगो ने विद्रोह का दामन पकड़ा और आन्दोलन शुरू हो गये। संतोष भारतीय ने अपने पत्रकारिता के नये आयाम में इस बारे लिखा है कि “उस समय के अधिकतर समाचार पत्र आपातकाल के पक्षकार बन गये थे।” इंदिरा गांधी अपने तानाशाही को यथैव बरकरार रखना थी और 1977 के आरंभ में इन्होंने लोकसभा चुनावों की घोषणा भी की। जेल में बंद विपक्षी नेताओं ने परस्पर एक होकर इंदिरा गांधी जनित तानाशाही मिटाने के लिए चुनाव में भाग लेने पर सहमत हो गये। और फिर जनता पार्टी का गठन हुआ। फिर भारतीय जनसंघ ने अपने को जनता पार्टी में विसर्जित कर दिया और जनता पार्टी नाम से चुनाव लड़ा। जनता पार्टी जीती। इंदिरा गांधी पराजित हुईं और गांधी का तानाशाही अध्याय समाप्त हुआ। नव निर्वाचित जनता पार्टी ने गांधी से इतर प्रभावी कदम भी उठाये। लेकिन जनता पार्टी में जनसंघ से शामिल मेम्बरों की दोहरी सदस्यता पर प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया गया। और इसी दोहरी सदस्यता को लेकर जनसंघ जनता पार्टी से अलग हो गया। फिर जनता पार्टी की सरकार गिर गई और इंदिरा गांधी फिर सत्तासीन हुई। और अलग हुये जनसंघ ने कुछ घटक दलों के साथ भाजपा की नीव रखी थी।

80 के दशक में कुछ महत्वपूर्ण घटनायें हुई भारतीय जनता पार्टी को सुदृढ़ करने के लिए देशभर में प्रमुख कार्यकर्ताओं का दौरा, एवं इसी बीच इंदिरा गांधी की हत्या, राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बनना, इसके तुरन्त बाद लोकसभा चुनावों की घोषणा, इंदिरा जी की हत्या के पश्चात् हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता प्राप्त होना, भारतीय जनता पार्टी का लोकसभा चुनावों में केवल दो सीटों पर विजयी होना, राजीव गांधी का धीरे-धीरे वोट बैंक की राजनीति में फंसते जाना, शाहबानो प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को कानून में संशोधन करके बदल डालना, 1986 में राम मंदिर के द्वार खुलवाना, 1987 में शिलान्यास करवाना, बाद में वोट बैंक की तुष्टिकरणवादी राजनीति के दबाव में राम मंदिर मुद्दे से अपने हाथ खींच लेना, 1989 में पालमपुर (हिमाचल प्रदेश) में भारतीय जनता पार्टी द्वारा राम मंदिर आंदोलन के लिए प्रस्ताव पारित करना, बाद में वी.पी.सिंह का राजीव गांधी का साथ छोड़ कर बाहर आना, बोफोर्स खरीद में भ्रष्टाचार का प्रकरण उठना, भाजपा के सहयोग से वी.पी. सिंह के नेतृत्व में सरकार बनना, वी.पी. सिंह द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करना, राम मंदिर मुद्दे के प्रश्न पर भाजपा द्वारा वी.पी. सिंह सरकार से समर्थन वापिस लेना, श्री लालकृष्ण आडवाणी की राम रथ यात्रा और पूरे देश में राम लहर का निर्माण होना और पी. वी. नरसिंह राव की सरकार का कार्यकाल समाप्त होने के बाद 1996 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी का सबसे बड़े राजनीतिक दल के रूप में उभर कर आना आदि महत्वपूर्ण घटनाये घटी जो भारतीय राजनीति में परिवर्तन की साक्षी रही।

अटल बिहारी वाजपेयी का संन्यास हो चुका है और भाजपा को एक कर्णधार की कमी सताये जा रही है जिसपर उसे प्रधानमंत्री का मोहर लगाना है। मोदी और गुमनाम के द्वंद्व के बीच मोदी का पलड़े का वजन बढ़ता ही जा रहा है। संघ, कार्पोरेट वल्र्ड, टाईम पत्रिका, सिनेमा की दुनिया से लेकर फेसबुक पर एक पूरी फौज नायक मोदी के कसीदे गढ़ रहे है। इससे इतर भाजपा समय की नाव यथास्थिति बनाये हुये है। मनमोहन सरकार को आगामी लोकसभा चुनावों में इसके असर की संभावनायें भी दिखने लगी है। भाजपा में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी हेतु राजनीतिक दांव-पेंच और जोरआजमाइस हो ही रही है। असल में भाजपा अपने स्थापना वर्ष से ही विरोधाभाषों के रास्ते पर चली है और जबतक वाजपेयी जैसे नेता थे तबतक पार्टी फली फूली लेकिन आज पार्टी में एक अदद सर्वेसर्वा नेता की पूर्ति नही हो पा रही है। भाजपा के लिए सबसे बड़ा विरोधाभास उसके स्वयं के विश्वास में है। वह कटटर हिन्दू राष्ट्रवादी आरएसएस के लिए बनी रहे अथवा जिन्ना को सेकुलर बनाने की दौड़ करें। 2009 का चुनाव भाजपा ने लालकृष्ण आड़वाणी के रथ पर सवार होके लड़ा था। लेकिन पार्टी को पूर्व चुनाव के तुलना में खासा नुकसान उठाना पड़ा। 2004 के लोकसभा चुनाव में जहां भाजपा को 138 सीटे मिली थी। वही 2009 में यह घटकर 116 पर आ गई। आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य ने 2009 के लोकसभा चुनाव में हार के लिए न सिर्फ आड़वाणी को जिम्मेदार ठहराया बल्कि इसमें कहा गया था ”आडवाणी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना और पूरे चुनाव अभियान को आड़वाणी केन्द्रित करना बहुत बड़ी राजनीतिक भूल थी।“ देवेन्द्र स्वरूप लिखित लेख में यह भी कहा गया था कि “उन्होंने अपनी आत्मकथा का विभिन्न भाषाओं और देश के अनेक नगरों में जितनी धूमधाम के साथ लोकापर्ण कराया, उससे आभास होता है कि वे स्वयं को भारतीय राजनीति के नियति पुरुष के रूप में देखने लगे थे।” आर.एस.एस. के सर संघ चालक ने कहा था ”हम सिर्फ पार्टी को सलाह दे सकते हैं, वो भी बिन मांगी सलाह नहीं, बाकी क्या फैसला करना है उन पर निर्भर करता है। चुनावों में बुरी हार के बाद भाजपा को एक झटका लगा है। किसी का ये कहना कि वह कटी पटंग हो गई, ठीक नहीं, मुझे लगता है कि पार्टी संतुलित हो जायेगी।“ जिन्ना प्रकरण पर मोहन भागवत ने पत्रकारों से कहा था कि ”सबको पता है कि जिन्ना ने ही डाईरेक्ट एक्शन (सीधी कारवाई) का नारा बुलंद किया और कहा कि हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ नहीं रह सकतें, भारतीय इतिहास में उनका यही स्वरूप रहा है और हम यही मानते हैं”।

आर.एस.एस. भी मानती है कि ”2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी को अगर कांग्रेस को पटखनी देनी है तो ऐसा केवल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगवाई में ही किया जा सकता है। पूर्व के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह मोदी में देश में भाजपा के वोट आधार को विस्तार देने की काबिलियत और करिश्मा है।“ कुछ समय पहले आरएसएस के मुखमंत्र आर्गनाइजर के अंक में कहा गया था ”कांग्रेस पार्टी का भाग्य तेजी से गिर रहा है लेकिन भाजपा के नेतत्व वाले राजग का कांग्रेस के इस हास का फायदा उठा पाना भी बहुत मुश्किल नजर आ रहा है। मोदी भाजपा के ऐसे चेहरे हैं, जिनमें पार्टी की अपील और देश भर में उसके वोट आधार का विस्तार करने की वैसी क्षमता है जैसी अटल बिहारी वाजपेयी ने नब्बे के दशक में करके दिखाया था।”

1996 और 1999 में भाजपा और उसके सहयोगी दल सिर्फ इसलिए बढ़े थे क्योंकि क्षेत्रीय दलों का वाजपेयी क्षमता पर पूर्ण विश्वास था। नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध राजनीतिक गलियारे में बयानबाजियों का दौर अभी भी चल ही रहा है। मोदी भी अपनी क्षमता का अहसास समय-समय पर करा ही रहे हैं।

सोशल नेटवर्किंग साइट पर चहुंओर मोदी समर्थन के पोस्ट दिख रहे है। मोदी के पक्ष में फेसबुक के अनेक ग्रुपों में पोस्ट निरंतर जारी भी है। यह सत्य है कि वर्तमान परिवेश में सोशल नेटवर्किंग को दरकिनार नहीं किया जा सकता और इसके ताकत को हम अभी मनु सिंघवी सेक्स कांड से जांच सकते है। जिसका श्रेय सौ प्रतिशत फेसबुक को जाता है। खैर यह तो आने वाला समय ही बतायेगा की भाजपा में पीएम का तमगा किसके सिर लगता है लेकिन मोदी दौड़ में सबसे आगे है।

विकास कुमार गुप्ता

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