शमशान के सूने द्वार पर
काले पंख फैलाए
कौए उतरते हैं धीरे-धीरे —
मृत देह के ऊपर
उनकी छायाएँ मंडराती हैं।
बाँस की चिता के पास
हवा काँपती है,
अचानक उठती लपटें —
और कौए
पीछे हटकर
निरखते रहते हैं।
ऊपर पेड़ों पर
वे बैठते हैं —
कर्कश पुकारें,
काली चीखें,
अजीब-सा शोर!
मानो किसी
भयावह उत्सव का
घोष हो रहा हो।
धरती में
एक और जीवन
मिट जाता है,
मगर आकाश में
कौए गाते रहते हैं
अपनी विजय-धुन।
उधर लोग
अर्थियों के पीछे-पीछे
चुपचाप चलते हैं —
चेहरों पर दुःख,
बातों में
अनकही दूरी।
फिर शुरू होते हैं
भाषण,
शोक के शब्द,
लंबी-लंबी बातें —
“वह महान था!”
“समाज का दीपक!”
“सबके दिलों में रहेगा!”
और उसी वक्त
पेड़ की डाली पर बैठे
कौए
एक-दूसरे को देखते हैं,
जैसे कहना चाहते हों —
“कितनी आसान है
मनुष्य की भाषा;
और कितना कठिन
उसका सत्य!”
भाषण खत्म होते हैं,
भीड़ लौट जाती है,
राख ठंडी पड़ती है —
पर दूर कहीं,
किसी और मोड़ पर
फिर उठती है एक अर्थी…
और फिर से
उतर आते हैं
वे ही कौए —
मानो मृत्यु का
अनंत पर्व
मनाते हों।