कविता

जीवन में आगे ही बढ़ें

poem

वो तूफ़ान में फंसी, हमारी डूबती नैया

एक लकड़ी के सहारे,

हम किनारा ढूँढ़ने निकले

वो डरावनी अंधेरी रात, जंगल में फंसे थे जब

कहीं चमके कई जुगनू, उसी की रौशनी में हम

रस्ता ढूँढ़ने निकले।

वो ऊंची सी खड़ी चट्टान, काई में फिसलते पांव

हमे जाना था उसके पार, एक रस्सी के सहारे ही

हम गंतव्य तक पंहुचे।

एक छात्र था सुकुमार, दरिद्र अति बुद्धिमान

लैम्प पोस्ट के नीचे, पढ़कर बना वो महान।

उसी को देख-देख कर।

हम जवां हुए और बढ़े, कम साधनों में भी हम

जीवन से यों ही लड़े, न रुके कभी कहीं

न झुके कभी कहीं।

बढ़ते ही बढ़ते गये, चलते ही चलते गये

मंजिल मिली कुछ रुके, फिर छोड़कर निशा

किसी और मंजिल की तरफ, बढ़ गये अपने क़दम