अथ श्री ऑक्टोपस कथा

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-आशुतोष

फुटबॉल के करोड़ों प्रशंसकों के प्राण हलक में अटके थे। कोलकाता की बस्तियों से हॉलीवुड की हस्तियों तक हर कोई हलकान था कि आखिर होगा क्या।

हजारों विशेषज्ञ अपने कागज-कलम लिये गुणा-भाग में जुटे हुए थे। पिछले मैचों के आंकड़े तो उन्हें जबानी रट गये थे। सटोरिये स्पेन के जीतने पर भी सट्टा लगा रहे थे, उसके हारने पर भी। भारत के नौजवानों में फुटबॉल का इतना उत्साह पहली बार देखा गया। सिने जगत के महानायक से लेकर बिंदास बालाओं तक सभी ट्विटर पर डायलॉगों के गोल दाग रहे थे।

वातावरण में तनाव व्याप्त हो गया था। विश्वकप में भाग ले रहीं टीमों के बीच संघर्ष इतने नाजुक दौर में पहुंच चुका था कि कोई भी सटीक परिणाम की भविष्यवाणी करने की स्थिति में नहीं था। लोग भ्रमित थे, स्तंभित थे, बेचैन थे। आर्तनाद कर रहे, थे, प्रभु से मार्ग दिखाने की प्रार्थना कर रहे थे। किसी मसीहा की, किसी पैगम्बर की प्रतीक्षा कर रहे थे जो आ कर उन्हें इस भ्रम की स्थिति से बाहर निकाले, सच्चा मार्ग दिखाये।

ऐसे में भक्तों के भ्रम निवारणार्थाय करुणानिधान श्री ऑक्टोपस प्रकट भये। हर मैच से पहले भक्तों ने परिणाम पूछा और ऑक्टोपस महाराज जीतने वाले देश के नाम की पट्टी वाले डब्बे पर जा विराजे। अंतिम मैच के लिये ऑक्टोपस बाबा ने स्पेन की जीत की भविष्यवाणी की जो सच साबित हुई।

भक्तों ने जहां उनकी जय-जयकार की वहीं कुछ दुष्ट प्रकृति के लोग उन्हें मारने की धमकियां देने लगे। जीतने वाले पॉल बाबा की लम्बी उम्र की कामना कर रहे थे वहीं हारने वाले करामाती तांत्रिकों के चरणों में लम्बलेट होकर अगले विश्वकप से पहले उनका जनाजा उठने के इंतजाम करने की गुहार लगा रहे थे।

होनी हो कर रही। कलियुग ने अपना असर दिखाया और जीतने वालों का ‘तुम जियो हजारों साल साल में दिन हों पचास हजार’ का कोरस कमजोर साबित हुआ और हारने वालों की बद् दुआ भारी पड़ी। अक्तूबर के आखिरी सप्ताह में उन्होंने अंतिम सांस ली।

मानवता के प्रति उनका योगदान महत्वपूर्ण था। उनका जीवन छोटा किन्तु यशस्वी रहा। पश्चिम की नास्तिकता की ओर बढ़ रही नयी पीढ़ी को ईश्वरीय चमत्कार का नायाब नमूना दिखा कर श्री आक्टोपस महोदय ने यूरोप में मानो धर्मसंस्थापना का एक छोटा पाउच पैक उंडेल दिया। तीन वर्ष की आयु में इस लोक के समस्त सुखों को भोग कर उन्होंने परलोक को गमन किया। परमपिता से प्रार्थना है कि उन्हें अपने चरणों से सुरक्षित दूरी बनाये रखते हुए स्थान दे।

पश्चिम के लिये इस तरह अवमानवीय सृष्टि के किसी जीव द्वारा सटीक भविष्यवाणी किया जाना सचमुच में अविश्वसनीय हो सकता है लेकिन भारत में यह कोई अजूबा नहीं। हर नगर–गांव में ऐसे अनेक लोग मिल जायेंगे जिनके संकेत पर कहीं नंदी तो कहीं मिट्ठू और कहीं-कहीं कोई अन्य जीव भी भविष्यवाणी करते मिल जायेंगे। अनेक बार इनकी भविष्यवाणियां सही भी साबित होती हैं। लेकिन ऑक्टोपस द्वारा भविष्यवाणी का विचार ही बेहद रोमांचक है।

भारत में किसी के दिमाग में ऑक्टोपस से भविष्यवाणी कराने का विचार नहीं कौंधा वहीं यूरोप वालों को नंदी द्वारा भविष्यवाणी का तरीका नहीं सुहाया। दोनों के पीछे एक ही कारण है। वह है दोनों की समाज-रचना। भारत में गोवंश यानी सज्जनता-सह्रदयता का प्रतीक! बच्चे भी उससे नहीं डरते। उसके द्वारा किया गया भविष्यनिर्देश परिवार अथवा समाज के एक अंग की सहज अभिव्यक्ति। गाय यानि मां! मां ने कही और संतान ने मानी, यही परंपरा। भले ही वह संकेतों में ही क्यों न हो।

दूसरी ओर पश्चिम में किसी अवमानवीय सृष्टि के साथ मां का संबंध ! उसे मां मानना जिसे ईश्वर ने आपके उपभोग के लिये रचा है ! वहां तो यह हास्यास्पद ही नहीं निंदनीय भी है। लेकिन ऑक्टोपस ! वह खुद शोषक है। अपनी आठ भुजाओं में वह जिसे भी जकड़ लेता है वह केवल छटपटाता है, छूट नहीं सकता। अगर वह उसे निगल नहीं सकता तो छोड़ने से पहले उसका पूरा खून चूस लेता है। ठीक वैसे ही जैसे इंगलैंड़ जब भारत को निगल नहीं सका, उसे न्यू इंग्लैंड नहीं बना सका तो उसे छोड़ा जरूर, लेकिन इस कदर चूसने के बाद कि सदियों तक सांस भी न ले सके। इस लिये ऑक्टोपस ही चाहिये। वही यूरोप का प्रतीक हो सकता है।

एक ऑक्टोपस मरा है, लेकिन उसके लाखों साथी महासागरों में अठखेलियां कर रहे हैं। चंगुल में फंसने वाले हर जीव-जंतु का खून चूस रहे हैं, उसे तड़पते देख पर-पीड़ा का आनंद ले रहे हैं। यह भी मरेंगे, लेकिन मरने से पहले अपनी करोड़ों संतानों को जन्म दे कर जायेंगे जो आने वाले वर्षों में शोषण की नयी कहानियां लिखेंगे। ठीक वैसे ही जैसे एक ईस्ट इंडिया कंपनी की जगह आज हजारों-लाखों बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने ले ली है और वे विकासशील और पिछड़े देशों की निर्धन और कुपोषित जनसंख्या का रक्त निचोड़ रही हैं।

ईस्ट इंडिया कंपनी हो या पॉल ऑक्टोपस, शोषण के साम्राज्य के किसी एक प्रतीक के ढ़ह जाने का यह अर्थ नहीं है कि उस प्रवृत्ति पर विजय पा ली गयी है। अन्याय और शोषण की यह राक्षसी प्रवृत्ति नाना रूप-रंग और आकार में सामने आती है। जब तक हम इस मारीचमाया के पीछे छिपे इनके चेहरे पहचानना नहीं सीखेंगे, स्वर्णमृग हमें भरमाते रहेंगे। पीड़ा भी हमें ही मिलेगी और अग्निपरीक्षा देने के लिये भी हम ही विवश किये जाते रहेंगे।

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