विनोद बंसल
श्रीयुत् श्री कान्त जोशी जी का स्मरण करते ही एक सहज स्वभाव का स्वछंद मन, हंस मुख चहरा व अपनी ध्येय साधना के प्रति एक धृण निश्चयी व्यक्तित्व स्वत: मेरी आखों के सम्मुख आ जाता है। शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो उनसे मिलने के बाद निराश लौटा हो। ध्येय साधना और कर्तव्य परायणता का इससे अनुपम उदाहरण और क्या हो सकता है कि उनके प्रचारक जीवन के अभी तीन वर्ष भी नहीं बीते थे कि उन्हे सन् 1963 में असम भेज दिया गया जहां बेहद विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्य को अनेक नये आयाम दिये। उनकी जीवन यात्रा यूं तो अनेक सफ़लताओं से भरपूर थी किन्तु, सरकारी दमन कारी नीतियों का कोप-भाजन बनी पूरी तरह से तहस-नहस ‘हिन्दुस्थान समाचार’ को देश की एक मात्र बहु भाषी समाचार एजेन्सी के रूप में पुन: स्थापित करना उनकी बडी विजय थी। गत एक दशक में उन्होंने न सिर्फ़ इस समाचार एजेन्सी को तेरह भाषाओं में सफ़लता पूर्वक संचालित किया बल्कि नेपाल, मारीशस, थाईलेण्ड व त्रिनीडाड सहित देश विदेश में दो दर्जन से अधिक स्थानों पर इसके ब्यूरो कार्यालय खुलवा कर इसे सैंकडों ग्राहकों व लाखों पाठकों के दिल की धडकन के रूप में स्थापित कर गए। कर्मठता और राष्ट्र प्रेम का आलम यह था कि अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में भी वे देश व समाज का चिन्तन किया करते थे और अपने आप को सदा व्यस्त रखते थे।
२१ दिसम्बर १९३६ को महाराष्ट्र के रत्नागिरी ज़िले के देवरुख गाँव में जन्मे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक श्रीयुत् श्रीकान्त शंकर जोशी जी 76 वर्ष की आयु में आठ जनवरी को प्रातः काल पाँच बजे इस नश्वर शरीर से तो विदा हो लिए किन्तु अपने व्यक्तित्व व कृतित्व की अमिट छाप हमारे हृदय पर सदा सदा के लिए अंकित कर गए। पिता श्री शंकर जोशी के चार बेटे और एक बेटी थी जिनमें से श्री कान्त जी सबसे बड़े थे । मुम्बई के गिरगांव में ही आप राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयंसेवक बने और १९६० में नौकरी से त्यागपत्र देकर आजीवन ब्रह्मचारी रह कर राष्ट्र सेवा का व्रत धारण किया। प्रचारक जीवन का प्रारम्भ महाराष्ट्र के नान्देड से हुआ। यह वही पवित्र स्थान था जहां दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी ने अपनी इहलीला समाप्त की थी। १९६३ में संघ कार्य हेतु आपको असम भेजा गया। जहां अत्यन्त विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आपने पच्चीस वर्षों तक कार्य किया। इस दौरान असम के चप्पे-चप्पे में संघ की एक नई पहचान बनाई तथा पूर्वोत्तर भारत की समस्त समस्याओं का गहनता के साथ अध्ययन किया और उनको सुलझाने में अहम भूमिका निभाई। १९७१ से १९८७ तक वे असम के प्रान्त प्रचारक रहे । उनके माध्यम से अनेक लेख, विचार गोष्ठियों व संवाद सम्मेलनों का आयोजन असम की समस्याओं के समाधान के हेतु किया गया तथा वे राज्य व केन्द्र की सम्बन्धित सरकारों तक निरन्तर जनता की बात पहुंचाते रहे। १९६७ में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित गुवाहाटी जनजाति सम्मेलन की सफलता की बात हो या फ़िर 1969 में स्वामी विवेकानन्द जी की स्मृति में स्मारक हेतु पूर्वोत्तर के अपार योगदान की बात हो या फ़िर जनजातियों में शिक्षा के व्यापक प्रसार की बात हो सभी स्थानों पर जोशी जी को आज भी याद किया जाता है।
विद्या भारती के माध्यम से जनजातियों तक शिक्षा के प्रचार प्रसार में जोशी जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही । उनका मानना था कि यदि पूर्वोत्तर में राष्ट्रीय क्रियाकलापों को त्वरित करना है तो संघ के अपने स्थायी कार्यालय होने चाहिये गुवाहाटी, मणिपुर और अगरतल्ला इत्यादि स्थानों पर संघ कार्यालयों के निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
असम के इतिहास में असम आन्दोलन ( १९७९-१९८५) का कालखंड अत्यन्त संवेदनशील माना जाता है । क्षेत्रीयता की भावना ध्रुवान्त तक न जाये और राष्ट्र भाव ओझल न हो पाये, इसके साथ साथ असम के साथ हो रहे अन्याय का सफलता पूर्वक प्रतिरोध भी हो, इन सभी के बीच श्री जोशी ने संतुलन बिठाना था।
सन् १९८७ से 1996 तक उन्होंने संघ के तृतीय सर-संघचालक माननीय बाला साहेब देवरस जी के सहायक के रूप में बखूबी निभाया। इसके बाद 1997 से 2004 तक आप ने संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख का दायित्व संभाला और २००४ में वे संघ की अखिल भारतीय कार्यकारिणी के सदस्य बनाये गये ।
इसी दौरान सन् 2002 में सरकारी दमन कारी नीतियों का कोप-भाजन बनी पूरी तरह से तहस-नहस हिन्दुस्थान समाचार को देश की एक मात्र बहु भाषी समाचार एजेन्सी के रूप में पुन: स्थापित करने का बीडा उन्हें सौंपा गया। चहुं ओर के निराशाजनक वातावरण के बावजूद इसे पुन: स्थापित करना उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। गत एक दशक में उन्होंने न सिर्फ़ इस समाचार एजेन्सी को तेरह भाषाओं में सफ़लता पूर्वक संचालित किया बल्कि नेपाल, मारीशस, थाईलेण्ड व त्रिनीडाड सहित देश विदेश में दो दर्जन से अधिक स्थानों पर इसके ब्यूरो कार्यालय खुलवा कर इसे सैंकडों ग्राहकों व लाखों पाठकों के दिल की धडकन के रूप में स्थापित कर गए।
पिछले कुछ दिनों से दिल्ली में बढी प्रचंड सर्दी के फ़लस्वरूप हुए उनका स्वास्थ्य कुछ ढीला था। वे विश्राम के लिये दो दिन पहले ही दिल्ली से मुम्बई पहुँचे थे । आठ जनवरी को प्रातःकाल उनके सीने में अचानक दर्द हुआ । और अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही पक्षाघात के कारण उन्होंने अपना शरीर छोड दिया।
श्रीयुत् श्रीकान्त जी की इस संसार से विदाई ने हमसे एक ध्रण निश्चयी, ध्येयनिष्ठ, कुशल संगठक व एक बहु आयामी राष्ट्र प्रेमी व्यक्तित्व हमसे छीन लिया है। प्रभु से कामना है कि वह हमें ऐसी शक्ति व ज्ञान प्रदान करे जिससे हम उनके पथ पर चल सकें और इस जगती का कल्याण तथा भारत को परम वैभव तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभा सकें।
१९८६-८७ में भाऊ राव जी ने मुझे गुमला में कहा आब आबाजी तुम्हारे लिए (नेशनल मेदिकोस आर्गेनाईजेशन ) के लिए और श्रीकांत जी बाला साहेब के साथ रहेंगे..
उन्ही दिनों मैं हिन्दू डाक्टरों के एपह्ली टीम लेकर नागालैंड किया.. एक ठोस आधार श्रीकांतजी का कहदा किया काम,
अब वे हीरातरासनेवाले प्रचारक कहाँ है?
हमारी श्रद्धांजलि ..
डॉ धना कर ठाकुर.
संस्थापक, नेशनल मेदिकोस ओर्गेनैजेसन १९७७
संस्थापक, अंतरराष्ट्रिय मैथिली परिषद् १९९३