कविता

मेरी नानी का घर

–बीनू भटनागर-

poem

बहुत याद आता है कभी,

मुझे मेरी नानी का घर,

वो बड़ा सा आंगन,

वो चौड़े दालान,

वो मिट्टी की जालियां,

झरोखे और छज़्जे।

लकड़ी के तख्त पर  बैठी नानी,

चेहरे की झुर्रियाँ,

और आँखों की चमक,

किनारी वाली सूती साड़ी,

और हाथ से पंखा झलना।

नानी की रसोई,

लकड़ी चूल्हा और फुंकनी,

रसोई में गरम गरम रोटी खाना,

वो पीतल के बर्तन ,

वो काँसे की थाली,

उड़द की दाल अदरक वाली,

देसी घी हींग, ज़ीरे का छौंक,

पोदीने की चटनी हरी मिर्च वाली।

खेतों से आई ताज़ी सब्ज़ियां,

बहुत स्वादिष्ट होता था वो भोजन।

आम के बाग़ और खेती ही खेती।

नानी कहती कि, ‘’बाज़ार से आता है,

बस नमक वो खेत मे ना जो उगता है।‘’

कुएँ का मीठा साफ़ पानी।

 

और अब

पानी के लिये इतने झंझट,

फिल्टर और आर. ओ. की ज़रूरत।

तीन बैडरूम का फ्लैट,

छज्जे की जगह बाल्कनी,

न आंगन न छत

बरामदे की न कोई निशानी,

और रसोई मे गैस,कुकर, फ्रिज और माइक्रोवेव,

फिर भी खाने मे वो बात नहीं,

ना सब्ज़ी है ताज़ी,

किटाणुनाशक मिले हैं,

फिर उस पर ,अस्सी नब्बे का भाव।

क्या कोई खाये क्या कोई खिलाये।

आज नजाने क्यों ,

नानी का वो घर याद आये।