“बाल ठाकरे के वर्चस्व की विदाई का शोकगीतः माई नेम इज़ खान”

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आखिरकार शाहरूख की फिल्म ‘माई नेम इज़ खान’ रिलीज हो ही गई। देश के अन्य हिस्सों की तरह मुंबई में भी यह हाउसफुल गई। हर तरफ फिल्म का स्वागत किया गया। बर्लिन फिल्म फेस्टिवल में भी यह फिल्म क़ामयाब रही। अमेरिका, पाकिस्तान और अन्य देशों में भी यह स्थिति है। लेकिन इस फिल्म के रिलीज के पहले और रिलीज के दौरान भी कई तरह की राजनीति चल रही थी। हिन्दुत्ववादी मुद्दा हिन्दुस्तान में और ज्यादा नहीं चल सकता शिवसेना को भी यह समझ लेना चाहिए। फिल्म की सफलता को देखकर यही कहा जा सकता है कि जनता सबसे बड़ी है। जनता से ऊपर कुछ नहीं है। जनता ने अपना फैसला कर लिया। जनता का हीरो बाल ठाकरे नहीं शाहरूख खान हैं, यह जनता ने साबित कर दिया। भेदवादी दृष्टि को एक सिरे से नकार कर साबित कर दिया कि वह परिपक्व है और अपने फैसले लेना जानती है। बस मौका और समय का इंतजार करती है। बालीवुड ने भी इस मुद्वे पर अपनी एकजुटता दिखाई। बालीवुड की नामी हस्तिया फिल्म देखने गईं। कइयों को लौटना पड़ा क्योंकि फिल्म हाउसफुल थी। कबीर बेदी जैसे अनेक कलाकार टिकट न मिलने के कारण लौटने पर मज़बूर हुए।

चाहे यह कहा जाए कि फिल्म मुंबई और हिन्दुस्तान के अन्य जगहों पर सुरक्षा के साए में कहें तो हमलों की आशंका के बीच रिलीज हुई। लेकिन फिल्म को लेकर जनता के उत्साह और भारी संख्या में मल्टीप्लेक्स और सिनेमाघरों की तरफ उसके रूख ने भय और आतंक की राजनीति को धता बता दी। जनता ने समझा दिया कि सेलेक्ट या रिजेक्ट वही करेगी। यह हक किसी और को नहीं देगी। जनता के रवैय्ये के कारण मल्टीप्लेक्स मालिकों को भी अपने रूख में परिवर्तन करना पड़ा। एक दिन बाद ही सही कई मल्टीप्लेक्सों ने अपने यहा¡ फिल्म रिलीज की। हमें यह देखना चाहिए कि बाल ठाकरे बनाम शाहरूख खान के इस पूरे विवाद में मूल मुद्वा न तो ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है न ही सस्ती लोकप्रियता हासिल करना बल्कि यह है कि बाल ठाकरे और शिवसेना की जो हेज़ेमनी मुम्बइया फिल्मों पर है उसे शाहरूख मानते हैं कि नहीं मानते।

हमेशा सांप्रदायिक ताकतें सामान्य और गैर ज़रूरी मुद्दों पर हंगामा शुरू करती हैं और पूरा का पूरा स्पेस अपने लिए ले लेती हैं। शाहरूख के धर्मनिरपेक्ष रवैये और टेलीविजन चैनलों के अहर्निश सहयोग ने शाहरूख को नैतिक तौर पर बाल ठाकरे की तुलना में ऊपर रखा उससे टेलीविजन चैनल का एक नया स्वरूप सामने आ रहा है। चैनलों ने आम तौर पर बाल ठाकरे और उनके अनुयायियों के खिलाफ नरम रूख़ रखा है कि ऐसा पहली बार हुआ है कि वे शाहरूख के साथ एकजुट रहे। यह ठीक है कि फिल्म व्यवसाय के लिए ही तैयार की गई है। लेकिन शाहरूख और बाल ठाकरे का विवाद बुनियादी तौर पर शिवसेना के वर्चस्व के खिलाफ जो अंतर्विरोध जो फिल्म उद्योग में बन रहा है उसकी मुखर अभिव्यक्ति है।

फिल्म को रिलीज न करने के पीछे मल्टीप्लेक्स मालिकों की यूनियन का सांप्रदायिक नजरिया व्यक्त होता है जो पहले भी अनेक मौकों पर अपनी इस वैचारिक पक्षधरता को अभिव्यक्त करता रहा है। उल्लेखनीय है कि मुम्बई के मल्टीप्लेक्स मालिकों ने बाल ठाकरे के दबाव में आकर यह निर्णय लिया। बालठाकरे और शिवसेना ने जब ये देखा कि तथाकथित ‘जनता’ और हिंसा के दबाव से फिल्म को प्रदर्शित होने से नहीं रोक पा रहे हैं तो उन्होंने मल्टीप्लेक्स मालिकों की लॉबी पर दबाव डाला ओर मुम्बई के बड़े हिस्से में और खासकर मल्टीप्लेक्सों में फिल्म को रिलीज होने से रोका। शिवसेना के वरिष्ठतम नेता मनोहर जोशी स्वयं एक मल्टीप्लेक्स में फिल्म बंद कराने पहुँचे। उल्लेखनीय है कि मनोहर जोशी बाल ठाकरे के बाद शिवसेना में सबसे बुजुर्ग नेता हैं। राजनीतिक इतिहास में किसी भी दल के इतने बड़े राष्ट्रीय नेता के द्वारा सिनेमाघर बंद कराने की घटना अपने आप में अनूठी घटना है। इससे यह भी पता लता है कि महाराष्ट प्रशासन ने जिस सख्ती के साथ शिवसेना के कार्यकताओं की धरपकड़ की, उन्हें थानों में बंद किया उसके चलते शिवसेना के पास हॉल बंद कराने के लिए कार्यकर्ताओं का भी अकाल पड़ गया। बाल ठाकरे और उनके अनुयायी कम से कम एक सबक लें कि जनता और राज्य अगर मिल कर कार्रवाई करते हैं तो सांप्रदायिक शक्तियों को आसानी से अलग-थलग किया जा सकता है। दूसरा सबक शाहरूख के रवैय्ये से लेना होगा कि कलाकार को अपने विचारों के लिए किसी भी हद तक कुर्बानी देने के लिए तैयार रहना चाहिए और सांप्रदायिक ताक़तों की प्रेशर पॉलिटिक्स के सामने झुकना नहीं चाहिए। उल्लेखनीय है कि यही बाल ठाकरे मणिरत्नम की ‘बाम्बे’ और अमिताभ की ‘सरकार’ फिल्म में भी अपनी दबाव की राजनीति के चलते दर्जनों दृश्यों को कटवा चुके हैं। कम से कम शाहरूख खान ने अभी तक न तो माफी मांगी और न ही किसी भी क़िस्म के दबाव के आगे समर्पण किया है। शाहरूख खान का बाल ठाकरे के खिलाफ़ खड़े होना इस बात का भी संकेत है कि अब शिवसेना का मुम्बई फिल्म उद्योग में प्रभाव घटना शुरू हो गया है और ये भविष्य के लिए सिर्फ एक ही चीज का संकेत है कि मुम्बई फिल्म उद्योग में बाल ठाकरे के दिन अब लदने शुरू हो चुके हैं।

(सुधा सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय)

14 COMMENTS

  1. mujhe achha laga ki amitabh jase mega star ke thakare charanchumban se hat kar shahrukh ne is sandesh se bhari hui film ke liye jhukane se inkar kiya . aise aalekho se ghina kee rajneeti karne walo ko sabak milega aur bal thakare jaisi marati hui takato ke chita me eak lakadi aur badegi.
    P.C.RATH

  2. सुधाजी,आपका लेख कांग्रेस के प्रेस विज्ञप्ति का एहसास महसूस होती है जिसे किसी खास मकसद से लिख गस्य लगता है क्योकि जबतक बालठाकरे क्यों सक्रिय हुए इसपर विचार नहीं होगा आपका लाख एक्पचिया ही होगा,यद् कीजिये सबसे पहले सत्तारूढ़ दल दुओरा राजठाकरे को छुट दे कर पुरबियो को गलिय दिलाई गयी या उनकी उपचा केर राजठाकरे को हीरो बनाने का अपराध करने वाले कांग्रेस नीट सर्कार को क्यासे माफ़ किया जा सकता है.हिन्दुस्ता में वोट बैंक की राजनीत की मज़बूरी है की अपने वोट बैंक के लिए और विरोधियो को कमजोर करने के लिए कांग्रेस हमेश ही यही कराती रही है और इसीलिए मज्बोर हो केर बालठाकरे भी बाद में पुरबियो को गली मारपीट करने को बाध्य हुए,और रहा सवाल साम्प्रदायिक राजित की तो कांग्रेस इसकी चमोइयन है वो चाहे रामजन्म भूमि का टला खुलवाने की बात हो या सर्वोच्च अदालत से मुओत की सजा पाए अफ्जल्गुरु के फासी को स्थगित करने का,देश की सम्पतियो में पहला हक़ अल्पसंख्को के अधिकार होने का या अभी द्ग्विजई शिंह द्वारा बतला हाउस एन्कोउन्टर की जाँच करने का.अप जैसे लोग ही तुस्टीकरण को बढ़ावा दे कर बल्त्झाकारे जैसे लोगो को खाद पानी उपलभ्द करते है.अगर हिंदुस्तान का बुधजिवी तबका ईमानदारी से सबको बराबरी से देखे तो समोर्दयिता को कोई जगह न मिले सोचने की बात है की कश्मीर के लाखो हिन्दू सालो से अपने देश मेही सर्दार्थी बन जलालत की जिनगी जी रहे है उन्हें विदेशी फुओज ने नहीं हिंदुस्तान के ही कश्मीरी मुसलमानों ने घटी से मर भगाया लेकिन उनके बारे में कुछ लिखने में अपलोगो को शर्म अति है या लेखनी में टला लग जाता है.पाकिस्तान और बागला देश में बाबरी से अधिक महत्वा के दरजनो मंदिर नेस्नाबुद कर दिया जाता है और अप लोगो को सवाज उठाने में शर्म अति है लेकिन जब डेनमार्क का कार्टूनिस्ट मुहमद साहेब का cartunbanata है और uske virodh में हिंदुस्तान में hinsak virodh pradarshan hota है tab भी अप khamosh rahte हो.sumvidhan की avahalena कर bar bar high court द्वारा kharij kiye jane के बाद andhra सर्कार द्वारा musalmano को arkchad दिया जा रहा है तो apko कुछ galat नहीं लगता.किसी भी samaj में बुधजिवी wachdog की bhumica में hota है wah vyavsth की nigarani karta है galat होने per awaj uthata है,लेकिन हिंदुस्तान का yah तबका paltu kutte की bhumika nibha रहा है अपने mali का talwa chatata nazar ata है isi लिए अप bhuk रहे हो लेकिन कोई notice नहीं le रहा है.gujrat के बारे में bhul कर भी 54karsewako के jinda jalane की ghatana bhul,jisaki kabhi charcha नहीं karta और न police द्वारा dange में goliyo से mare gaye hinduo की बात karta है.azadi के बाद लगता hinduo के dharm parivartan से या safaye से पाकिस्तान और bagla देश के khali हो jane को kabhi mudda नहीं banata,सर्वोच्च nyayalaya द्वारा bagla deshiyo को bahar करने के adesh के बाद भी unaki tarafdari करने वाले लोगो को dharmnirpech ghoshit karata है.akhi ye virodhabhas क्यों ise kya sagya di jai ye aplog khud से puche. क्योकि hamare जैसे dalvihin लोग कुछ kahege तो hame tatkal samoradayicta की गली से nawaja jayeg.sarm अति है अप लोगो के dharmnirpechata dekh कर.

  3. भारत राजकिशोर जी की बात से हम शत पतिशत सहमत हैं कि क्या वन्देमातरम के मुद्दे पर भी लोग इस तरह सामने आयेंगे ? क्या हुसैन की पेंटिंग्स के विरोध पर प्रशासन इस तरह शामिल होगा ? नहीं ऐसा हरगिज़ नहीं होगा . धर्म निरपेक्ष केवल वह है जो मुसलमान के दुःख दर्द की बात करे! बिरले ही देश – हित के असली मुद्दों पर मुंह खोलने की सामर्थ्य रखते हैं !यह एक बहुत बड़ा सच है . . .

  4. सुधाजी,

    आपने लेख में यह तो दिखाया की जनता और राज्यशक्ति के संगठित प्रयास से सांप्रदायिक सक्तियों का विरोध संभव है. किन्तु यह मुस्तैदी आम आवाम की नहीं बल्कि मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखनेवालों ,फिल्म-इंडस्ट्री और जनता के बीच रसूख रखनेवालों ने दिखाई व्यापारिक लाभ-हानि के प्रत्यक्ष और परोक्ष –दोनों प्रकार के ख्याल से भी यह विरोध संचालित था. एक जनतांत्रिक देश में आम जनता की ओर से ऐसा प्रयास होता तो और अच्छा था …दरअसल ,ऐसी परिस्थिति गांवों और छोटे शहरों में नहीं बन पाती. प्रशासन और मीडिया यहाँ सांप्रदायिक तत्वों की आवाज इस तरह प्रस्तुत करते हैं गो की आम आवाम को इससे टकराने की कोई औकात ही न हो . फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा की सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ ऊँचे तबके के लोग और शासन मुखरित हुआ –इसकी सराहना की जानी चाहिए . किन्तु, हमें यह नहीं भूलनी चाहिए की आज की तारीख में भी सबसे ज्यादा लोग गांवों और छोटे shahron में ही रहते हैं . आम जनता की साम्प्रदायिकता विरोधी समझदारी और विरोध में सीधी भागीदारी के बिना इस पर काबू नहीं पाया जा सकता . यूँ भी आम जनता प्रायः सांप्रदायिक नहीं हुआ करती . धर्मं -मजहब के लोग जो कुछ अंट-शंट सिखाते हैं ,ऊससे वे भ्रमित अवश्य हो जाते हैं .समय-समय पर भ्रम -निवारण और सांप्रदायिक सहिष्णुता की चेतना का विकास कैसे हो, इस पर भी सोचिये. प्रेम प्रभाकर

  5. “ब्लॉग पढ़ा कोई बहुत अच्छा इसलिए नहीं लगा क्योंकि मुंबई तो इन्हें नज़र आयी पर उत्तर प्रदेश जिसके पूर्वांचल का ज्यादा आदमी मुंबई में पर ‘माई नेम इज पुरबिया’ कभी कहा होता तो उसका भी विरोध नहीं होता ! पर उत्तर प्रदेश का वह पुरबिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी बाहरी है, पर दिक्कत यही है कि जब मुसलमान चुनौती देता है तब ठाकरे हो या देश का कोई हिस्सा हो वही मिलेंगे विरोध कराने वाले जिनमे दम होता है, यही कारण है कि मुसलमान ‘खान’ इज खान ‘मुंबई’ इज मुंबई एंड ठाकरे इज ओनली ठोकरें,”

  6. सुधा जी जरा पीछे मुडकर भी देख लिया कीजिए। याद करिए जब करण जौहर ने राज ठाकरे के दर पर मत्था टेकने पहुंचे थे। और इस बार शिवसेना के खिलाफ अंगद की तरह पांव जमाए शाहरूख से साथ खडे है। शाहरूख ट्विटर पर माफी मांगने के बाद किस दबाव में मांफी पर सफाई देते है। पवार को कांग्रेस महंगाई के लिए जिम्मेदार बता रही है। केन्द्रीय मंत्री बीरभद्र का बयान इसका उदाहरण है। पवार भी शिवसेना प्रमुख से मिलकर नहले पर दहला मारा। दरअसल कांग्रेस बाल और राज ठाकरे के बीच मदारी की भूमिका निभा रही है। राहुल गांधी को भी मराठी मानुष मुद्दा बिहार चुनाव पर याद आ रहा है, वो भी तब जब आरएसएस प्रमुख भागवत ने शिवसेना के खिलाफ मोर्चा खोल दिया तब। जब मुंबई में उत्तर भारतीय पिट रहे थे तब राहुल गांधी कहां थे। रही बात मीडिया की तो सुधा जी जरा कुछ हेटलाइन आपकी नजर करना चाहता हू-कहां गई ठाकरे की हेकडी। शाहरूख हिट ठाकरे फ्लाप। नहीं चली ठाकरे की दादागीरी। आज होगा ठाकरे की दादागीरी का इम्तहान। ठाकरे बनाम शाहरूख। सुधा जी क्या ये वाक्य शिवसेना को उकसा नही रहे। यहां भी मीडिया मदारी की भूमिका में है। यही नही इस फिल्म का मीडिया पार्टनर स्टार न्यूज था। एनडीटीवी की मैनेजिंग एडिटर बरखा दत्त का दर्शन भी फिल्म में होता है। राजीव शुक्ला और शाहरूख के संबंध जग जाहिर है। न्य्ज २४ राजीव शुक्ला के संबंध भी जगजाहिर है।सुधा जी इसलिए ठाकरे नही कांग्रेस और मीडीया को सलाह की जरूरत है। बाकी आप प्रोफेसर हैं खुद ही समझ लीजिए।

  7. Shahrukh was termed a traitor by
    Shiv Sena because he said that Pakistan is a GREAT neighbour.
    शासन ने पुलिस बल का दुरुपयोग करते हुए शिवसेना के कार्यकार्तोको मारा है !

  8. अगर वन्देमातरम नाम से कोई फिल्म बने तो भी आप से ऐसे लेख की हम उम्मीद करेंगे या फिर कोई आतंकवादी हमला हो तो या फिर एम् ऍफ़ हुसैन कोई देविदेवता पर अश्लील पेंटिंग बनाये या फिर पाकिस्तान की जीत का भारत मैं जश्न मनाया जाए या फिर धर्मांतरण के मुद्दे पर, पर अफ़सोस चूँकि आप सकारी नौकरी मैं हैं सरकार के विरोध मैं कैसे लिख सकती हैं चूँकि आपकी सरकार भी इन मुद्दों पर आँख बंद कर लेती है तो आपसे क्या उम्मीद | चलो इस लेख से आपके पॉइंट तो बढ़ गए होंगे प्रमोशन भी मिल जाए| भय दहशत और पैसे कारण जो भी हो, अंतरात्मा के साथ छोड़ने पर मेरी संवेदनाएं |

  9. सुन्दर आलेख, हालातों से पूरा-२ राफ़्ता रखते हुए लिखा गया खेल……..यकीनन बाम्बे से मुम्बईकर टाइप के बुर्जवा लोगों का राज़ खत्म हो गया है।

  10. बाल ठाकरे वैसे बूड़े हो चुके है. उनकी शिव सेना भी दो धडों में विभक्त हो चुकी है. एम् ,एन .एस. का विरोध नंही था. भारतीय जनता पार्टी ने भी बल ठाकरे का समर्थन करना उचित नहीं समझा. ऐसे में बाल ठाकरे समय की नब्ज को पकड़ने में चूक करके केवल खान के नाम का विरोध करके भारतीय धर्मनिरपेक्ष जनता को उद्वेलित किया. फलतः जनता ठाकरे की अपील को ठुकरा कर इस फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर भारी कामयाबी की और अग्रसर कर रही है. यह सही है की अब बाल ठाकरे एवं उनकी शिव सेना के दिन लदने शुरू हो गए है.

  11. सुधाजी के लेख से यह बात तो समझ मे आती है कि यह बात साम्प्रदायिकता के मद्देनजर जनता ने रखते हुये फ़िल्म को चलने में अपना पूरा योगदान दिया,लेकिन एक और बात जो अन्दरूनी कही जा सकती है कि अगर कहीं से बालठाकरे और फ़िल्म निर्माता की मिली भगत से इस फ़िल्म के प्रदर्शन के लिये पहले से ही राजनीति वाली घालामेली हुयी हो,और फ़िल्म को बिना किसी अन्य पब्लिसिटी के साधन के जनता के अन्दर फ़िल्म को देखने की भावना कि आखिर इस फ़िल्म में ऐसा क्या है,जिससे इसे प्रदर्शन से रोका जा रहा है,और इस भावना से जनता के द्वारा करोडों अरबों रुपये की आवक मिलना भी माना जा सकता है। क्योंकि इस फ़िल्म के लिये संदेह का घेरा तब और मजबूत हो जाता है कि मीडिया ने भी इस फ़िल्म के उन द्रश्यों को जनता के सामने प्रसारित नही किया जिनके बलबूते पर इस फ़िल्म को देखने से मना किया जाता रहा है। दूसरी बात एक और भी सामने आती है कि बालठाकरेजी की पुरानी रंजिस जो यूपी और बिहार के लोगों के लिये लगातार चली जा रही है,और किसी भी बात के लिये जनता के रूप में जो भी काम बालठाकरेजी चाहते थे,हंगामा सडकें रोकना,उपद्रव करना,बलप्रयोग के द्वारा किसी भी बात को मनवा लेना वह सब लोग अन्दरूनी बातों से केवल यूपी और बिहार के लोगों से जल्दी पूरी करवा ली जाती थीं। हिन्दुत्व के रूप में मराठी व्यक्ति कभी भी अपने को कुर्बान करने के लिये सामने नही आता था,केवल मुंबई के चौराहों पर अपनी नेतागीरी और बालठाकरे जी के विजिटिंग कार्ड को देकर ही अपनी खाना पूरी कर लेता था,वह यूपी बिहार का समाज अब विलगाव वाली बातों से दूर होता जा रहा है। अधिकतर मामलों में मुंबई का मुसलमान आज भी एक जुट है और वह अपनी बात को रखने के लिये किसी भी हद तक जा सकता है। यह बात भी अधिकतर समुदाय निर्माताओं को जान लेनी चाहिये।

  12. १) दुनिया जानती है की पाकिस्तान भारतीय फिल्म और अन्य उत्पादों की पाइरसी का दुनिया में सबसे बड़ा अड्डा है
    २) पाकिस्तानी वेबसाइट songs.pk भारतीय गानों के पाइरेटेड वर्षन्स ऑनलाइन डाउनलोडिंग के लिए होस्ट करती है इसका एक दिन का रेवेन्यू १२ करोड़ रुपए हैं जिसे बतौर टॅक्स वह पाकिस्तानी सरकार को चुकाती है और भारतीय फिल्म कंपनी , और संगीत कंपनियों को सीधा चूना लगता है.
    ३) भारतीय गायकों के होते हुए फिल्म के प्रमुख गाने , शफाक़त अमानत अली ख़ान , अदनान समी और राहत फ़तेह अली ख़ान जैसे पाकिस्तानी गायकों से गवाए गये हैं जो आम तौर पर शंकर एहसान लॉय के लिए नही गाते.
    ४) सच्चाई तो यह है कि शुक्रवार को शिवरात्रि की छुट्टी के बावजूद इसका कलेक्शन बमुश्क़िल ४०-४५% सदी है , जो किसी भी ख़ान फिल्म के लिहाज़ से काफ़ी खराब प्रदर्शन है.

    सचमुच सेकुलरिज़्म के कथित रखवाले या तो मंदबुद्धि हैं, या पाकिस्तान को फ़ायदा पहुँचाने वाले देशद्रोही अथवा झूठे प्रचार में माहिर…

  13. बहुत सही कहा अपने सुधा जी, काफी अच्छा लिखा है और खास कर शीर्षक तो बहुत ही उम्दा है. अपने राजनिति के द्वारा शाहरुख़ खान के नाम पर रोटी सेंक कर खाने की यह चाह शिव सेना को बहुत महंगी पड़ी. सच तो ये है की जनता भी अब ये समझ गयी है की इन खोखले और दकियानूसी विचारों का समर्थन करके कोई फायदा नहीं है. अपने समर्थन के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त शिव सेना को मुंह की खानी पड़ी और ये बात साबित हो गयी की जनता जनार्दन का फैलसा ही आखिरी होता है.

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