मुझमें एक मौन मचलता है,
भावों में आवारा घुलकर मस्त डोलता है,
मुझमें एक मौन मचलता है।
शिशुओं की करतल चालों में,
आवारा यौवन सालों में,
मदिरा के उन्मत प्यालों में,
बुढ्ढे काका के गालों में, रोज बिलखता है।
मुझमें एक मौन मचलता है।
लैला मज़नू की गल्पें सुनकर,
औरों की आँँखों से छुपकर,
भीतर मन की दशा समझकर,
प्रेम वेदना मे आतप हो , रोज दहकता है।
मुझमें एक मौन मचलता है।
कर खाली अपनी झोली को,
पैमानों से पार उतरकर,
पुष्प कँुज का भौरा बनकर,
कलियों की अभिलाषा सुनकर, रोज बहकता है।
मुझमें एक मौन मचलता है।
श्वेद् कणों का परख पऱिश्रम,
खुद में भरता है बल-विक्रम,
आशाओं की लाद गठरिया,
अथक परिश्रम के अश्वों संग,रोज विचरता है।
मुझमें एक मौन मचलता है।
पथिकों को एक राह दिखाकर,
मन का मैला भाव मिटाकर,
विरोचित कार्यों में लगकर,
स्वाभिमान की हुँकारों में, रोज गरजता है।
मुझमें एक मौन मचलता है।
ड्योढी के उस पार मचलता,
शोक सभाओं मे मुरझाता,
पल-पल खुद को पुष्ट बताता,
मूक बधिरो के हाथों में, रोज उलझता है।
मुझमें एक मौन मचलता है।
न्याय सभा से छुपके करते,
कौड़़ी के खातिर जो मरते,
घूस खोर सत्ताधारी संग,
लेकतंत्र की पासवान को, रोज निरखता है।
मुझमें एक मौन मचलता है।
गांधी का दिग्दर्शन पढ़कर,
प्रेमचंद का मर्म समझ कर,
राष्ट्र धर्म की औढ़ चदरिया,
चिकनी चुपड़ी चाट रहे,श्वानों पर रोज बिफरता है
मुझमे एक मौन मचलता है
अति सुंदर भावपूर्ण कविता मन प्रफुल्लित हो गया।
अति सुन्दर वाह करणी दान जी सा
Apne to maun hi kar diya……:D
वाह….सुन्दर अभिव्यक्ति……
अति सुन्दर।
डा० रणजीत सिंह