राजनीति

राष्ट्रीय दलों को चुनौती देते क्षेत्रीय दल

Indian-Political-Partiesभारत में जनप्रतिनिधि चुनने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाई जाती है जिसमें बहुदलीय व्यवस्था रखी गई है। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक गणराज्य है इस नाते इस देश में प्रत्येक व्यक्ति, जाति, वर्ग और समाज की आवाज सत्ता के केन्द्र तक पहुंचे इसकी व्यवस्था की गई है। पिछले कुछ दषकों से हो रहे चुनावों के परिणामों पर गौर करें तो यह समझ आता है कि वर्तमान में ये क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों के लिए बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। क्षेत्रीय दलों के कारण इन राष्ट्रीय दलों को कईं राज्यों में इनका सहारा लेना पड़ता है और हालात ये है कि भारतीय जनता पार्टी जो वर्तमान में केन्द्र की सत्ता में उसका कईं राज्यों में वजूद तक नहीं है वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस जिसने सबसे लम्बे समय तक देश में राज किया है वह अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही है। क्षेत्रीय दलों के बढ़े प्रभाव ने इन राष्ट्रीय दलों के समक्ष कईं जगह तो अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी {माक्र्सवादी}, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी जैसे राष्ट्रीय दलों के साथ साथ देश में आप, डीएमके, एआईडीएमके, तृणमूल कांग्रेस, शिरोमणी अकाली दल, नेषनल कांफ्रेस, लोकदल, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा, जनता दल, केरल कांग्रेस, लोक जनषक्ति पार्टी, मणीपुर पिपुल्स पार्टी, मेघालय लोकतांत्रिक पार्टी, नागालैंड पीपुल्स फ्रंट, इलेनो, शिवसेना सहित दर्जनों क्षेत्रीय दल है जो अपने अपने क्षेत्र में अपना पूर्ण प्रभाव रखते हैं। ये क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय दलों को अपने राज्य में चुनाव लड़वाते हैं और राज्य की राजनीति में राष्ट्रीय दलों का सहयोग लेकर सत्ता पर आसीन होते हैं । इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनको अपने राज्य की राजनीति के लिए राष्ट्रीय दलों के सहारे की भी जरूरत नहीं है और जब ये क्षेत्रीय दल राष्ट्र की राजनीति में आते हैं तो ये राष्ट्रीय दल इनके सहारे से अपनी सरकार बनाते हैं। हालात ये रहे हैं कि इस देश में लम्बे समय तक केन्द्र की सत्ता इन क्षेत्रीय दलों के सहारे पर ही चली है। नरसिंहा राव की सरकार से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार और मनमोहन सिंह की सरकार में इन क्षेत्रीय दलों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिनके बिना इन सरकारों का अस्तित्व नहीं हो सकता था।
अगर हम गौर करें तो ये क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय हितों की रक्षा के नाम पर या जाति व्यवस्था के नाम पर उदित होते हैं और इसी कारण ये अपना प्रभाव अपने राज्य में बनाने में सक्षम रहे हैं। जातिय, भाषायी, सांस्कृतिक विभिन्नता एवं देश की विशालता भी क्षेत्रीय दलों के जन्म का प्रमुख कारण रही है। एक बड़ा कारण क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व में आने का कांग्रेस पार्टी भी रही है। कांग्रेस पार्टी में जब जब संगठन में बिखराव हुआ तब तब कांग्रेस के क्षेत्रीय क्षत्रपों ने अपने अपने क्षेत्र में दल बनाए और कांग्रेस से अलग हो गए। ममता बनर्जी, शरद पंवार, स्वर्गीय पी ए संगमा सहित ऐसे कईं उदाहारण है जिन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपने दल बनाए और आज वे कांग्रेस के लिए सरदर्द बने हुए हैं।
इस तरह क्षेत्रीय दल के नेताओं की सोच अपने क्षेत्र विशेष की जाति, समाज व क्षेत्र के विकास की रहती है और इस कारण राज्य स्तर पर तो यह दल खूब विकसित हो जाते हैं परंतु जब देश की राजनीति की बात आती है तो ये दल देश की राजनीतिक सोच के आगे बौने नजर आने लगते हैं। सिर्फ सीट पाने की महत्वकांक्षा के कारण और अपने पास सर गिनाने लायक सीटे होने के कारण इस दल के नेता पद पा लेते हैं, ऐसे हालात में राष्ट्रीय दलों की मजबूरी होती है कि वे इन क्षेत्रीय दलों को महत्व दें और अपनी पार्टी लाइन से हटकर इनके साथ समझौता करें। इसीलिए कईं बार राष्ट्रीय दलों के नेता चुनावी सभाओं में ये कहते नजर भी आते हैं कि अपना वोट राष्ट्रीय स्तर की पार्टी को दे बजाय क्षेत्रीय दलों के। राष्ट्रीय दलों के लिए देश की विशालता और विविधता एक बड़ी चुनौती है जिसको क्षेत्रीय दलों के सामने पार पाना मुश्किल हो गया है। एक समय था जब नेहरू और इंदिरा के युग में नेतृत्व की केन्द्रीय प्रवृत्ति के कारण इन क्षेत्रीय दलों का वो महत्व नहीं था परंतु समय के साथ केन्द्रीय नेतृत्व का अभाव और कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में दोष के कारण क्षेत्रीय दलों का प्रार्दुभाव हुआ और इन दलों ने देश की राजनीति में अपना महत्व बनाया।
हालात ये हैं कि क्षेत्रीय दलों के नेता रेल मंत्रालय, कोयला मंत्रालय सहित केन्द्र के कईं महत्वपूर्ण मंत्रालयों पर काबिज रहे हैं और इसका परिणाम यह हुआ है कि जब लालू यादव रेल मंत्री बनते हैं तो देश की सारी ट्रेनों का रूख बिहार की तरफ होता है और तब ममता बनर्जी ये पदभार संभालती है तो बंगाल रेल से मालामाल हो जाता है। झारखण्ड के शीबू सोरेन जब कोयला मंत्री थे तो बिहार और झारखण्ड के कोयला भण्डार के क्या हाल थे ये देश से नहीं छिपा। कहने का मतलब ये है कि तब भी क्षेत्रीय दल हावी रहे तब देश में असंतुलित विकास हुआ। हां यह सही है कि राष्ट्रीय दलों के पास उचित नीति नहीं होने के कारण भी क्षेत्रीय असंतुलन रहा और इस कारण भी क्षेत्रीय दलों का शिकंजा राष्ट्रीय दलों पर बढ़ा और जब इस कारण से पैदा हुए दल केन्द्र में आए तब केन्द्र में कोई समुचित सुधार नहीं हुआ।
वर्तमान में राज्यों में हुए चुनाव में भी क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व प्रभावी रहा और इन दलों ने राष्ट्रीय दलों के सामने हार नहीं मानी बल्कि अपना वजूद साबित किया। ये इस बात का सबूत है कि वर्तमान में भी असंतुलित विकास और भाषा व जाति की प्रधानता ने अपने आप को कायम रखा है। आजादी के इतने साल बाद भी हम देश में एक सर्वव्यापी और सर्वमान्य नीति व दल या यूं कहे सर्वमान्य नेता नहीं दे पाए हैं और अगर ये ही हालात रहे तो इस देश में अंदर ही अंदर कितने टुकड़े हुए नजर आएंगे इसका अंदाजा भी लगाना मुश्किल है।
जरूरी है कि राष्ट्रीय दल अपनी सोच को जाति, समाज और मुद्दों से हटाकर सर्वव्यापी करें और भारत स्तर की सोच के साथ काम करे ताकि देश के हर कोने में बैठे व्यक्ति को लगे कि केन्द्र में जो दल काम कर रहे हैं भले वे सत्ता में है या नहीं वे दल देश का दल हैं न कि सिर्फ किसी विचार विशेष के। भारत में उत्तर भारत की प्रधानता ने भी क्षेत्रीय दलों को हावी किया है इसलिए ये भी जरूरी है कि देश में राष्ट्रीय पार्टियाँ हर राज्य व राज्य के नागरिक को समान अधिकार के साथ अपनाए और सबके लिए अपनी पार्टी लाईन में जगह बनाएं। चुनाव सुधार के विषय में भी ये बात लागू की जा सकती है कि क्षेत्रीय दल सिर्फ विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए ही योग्य माने जाए और राष्ट्रीय पार्टियाँ ही सांसद का चुनाव लडे़ ताकि सर्वव्यापी व सर्वमान्य सोच के नेता निकल कर आए और सब बातों से उपर उठ राष्ट्रीय चिंतन के विषय पर काम किया जा सके।

श्याम नारायण रंगा ‘अभिमन्यु