नक्सलवाद: इस नए महाभारत के शिखंडियों को पहचानें

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-पंकज झा

नक्‍सलवाद के पैरोकार तथाकथित बुद्धिजीवी किस तरीके से छद्म लबादा ओढे भारतीय लोकतंत्र और समाज व्‍यवस्‍था पर चोट कर रहे हैं, इस विषय पर लिखित निम्‍न लेख हमारी आंखें खोलनेवाला है। पंकजजी ने यह लेख एक पत्रिका के लिए लिखा है। जाहिर है लेख लंबा है। सामान्यतः नेट पर लोग बड़ा पोस्ट पढ़ना पसंद नहीं करते हैं, इसलिए हम इसे ‘प्रवक्‍ता’ पर दो भागों में प्रकाशित करेंगे। प्रस्‍तुत है पहला भाग-

पौराणिक काल से लड़े गए या लड़े जा रहे युद्धों में “खबर” सबसे बड़े हथियार के रूप में अपनी महत्ता साबित करती रही है. बात चाहे लंका के युद्ध की तैयारी हेतु हनुमान का सीता की खबर लाने की जद्दोजहद में अपनी जान तक की बाज़ी लगा देने की हो या महाभारत में अंधे शासक के लिए इलेक्ट्रोनिक पत्रकारिता कर आँखों देखा हाल सुनाते संजय. वर्तमान दुनिया (ओं) के युद्ध में सर कटा लेने वाले डेनियल पर्ल हों या बस्तर के घने जंगलों में मौज कर, आतंक पर्यटन करते हुए रिपोर्टिंग कर केन्द्रीय सुरक्षा बल के 76 जवानों के शहादत की पृष्ठभूमि तैयार करती अरुंधती राय जैसी मां भारती की बिगड़ी औलाद. भूमिका चाहे नकारात्मक हो या सकारात्मक लेकिन ‘ख़बरों’ से बच कर आप किसी युद्ध की कल्पना नहीं कर सकते. आज अगर बस्तर में भी नक्सली सफल हो रहे हैं, तो उचित ही राज्य पर सबसे बड़ा आरोप यही लग रहा है कि उनके पास खुफिया खबरें पहुच ही नहीं पाती. जबकि नक्सलियों के पास अद्यतन जानकारी पहुच जाया करती है. उनके शहरी खैरख्वाह हर तरह की जानकारी से उनको अपडेट रख लोकतंत्र के विरुद्ध युद्ध में गरीब आदिवासियों एवं सुरक्षा बलों के मौत का सामान उपलब्ध करवाते रहते हैं.

संदर्भवश अगर केवल बस्तर की ही चर्चा करें तो आपको आश्चर्य होगा यह जानकार कि देश के समक्ष इन चुनौतियों में राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया के कुछ “मीडियेटर” किस तरह से अपने ही भाई बंधुओं को मरवाने की पृष्टभूमि तैयार कर अपनी दूकान चलाने में मगन हैं. देश के आजादी का गौरवमयी इतिहास जहां तब के साधान विहीन भारतीय समाचार माध्यम की गाथा उसके सचरित्र एवं स्वाभिमानी उपलब्धि के बिना अधूरा है. वही जब भी भारतवर्ष के इस नए अवश्यम्भावी नक्सल मुक्ति का इतिहास लिखा जाएगा तो अफ़सोस “माध्यम” के नाम पर कुछ जयचंद सरीखे दलालों की भी चर्चा की जायेगी. जहां उस ज़माने में स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकारों में फर्क करना मुश्किल था. गांधी, नेहरु प्रभृति हर नेता कब पत्रकार और कब सेनानी बन जाते थे यह यह समझना आसान नहीं था, वही नए इतिहासकारों की चुनौती यह होगी कि वह पत्रकारों और अपनी ही मातृभूमि के दलालों में अंतर स्थापित करे.

कुछ मामले में तो ऐसी निराशाजनक स्थित है कि देश का आत्मविश्वास ही डगमगा जाय. लाल मीडिया के दुष्प्रचारों के कारण तो कई बार जन-सामान्य भी यह समझने लगता है कि हो सकता है शायद नक्सली ही सही हो. ऐसा कोई बड़ा समाचार माध्यम, कोई एजेंसी ऐसी नहीं बची है जहां बांग्लादेशी घुसपैठिये की तरह पत्रकार का बाना धरे अभागे ना बैठे हो. अपने करतूतों से समाज में भ्रम फैला देने वाले इन धुरंधरों से निपटना तो कई बार नक्सलियों से निपट पाने से भी मुश्किल लगता है. जैसे आप युद्ध भूमि में नक्सलियों और सामान्य आदिवासियों की पहचान आसानी से नहीं कर पाते वैसे ही दिल्ली में बैठे कलम के नक्सली और देशभक्त पत्रकार में फर्क करना मुश्किल हो जाता है. गेहू में घुन की तरह चिपके ये अभागे कब कहाँ से कैसे वार कर दें, एक नए तरह के झूठे समाचारों का ‘एम्बुश’ लगा कब आपको चित्त कर दें समझना मुश्किल है. हर ईमानदार एवं निष्ठित व्यक्ति को किसी भी तरह कठघरे में खडा करने की इनकी हिमाकत से वास्तव में लोकतांत्रिक अस्तित्व के समक्ष सवाल पैदा हो गया है.

अभी पीटीआई में गोविन्दाचार्य के हवाले से खबर आयी कि १९८८ तक वो भी नक्सली थे. और कई बार वो पुलिस के साथ नक्सल मुठभेड़ में बाल-बाल बचे हैं. जैसा कि विशेषज्ञ जानते थे इस खबर का खंडन भी होना था हुआ भी. लेकिन इन दो दिनों में ही लाल मीडिया को जो चाहिए था वह उसे मिल गया, यानी बड़े स्तर का राष्ट्रीय कवरेज. मुश्किल यह है कि इतने बड़े-बड़े बदतमीजी कर जाने के बाद भी कोई उनका बाल बांका नहीं कर पाता. कई बार तो ऐसा लगता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही लोकतंत्र पर भारी पड़ जाता है. बाद में भले ही खबर का खंडन आ जाय लेकिन चूँकि इस मामले में सामान्यतः इन्हें दण्डित नहीं किया जाता तो इस तरह का खुराफात कर ये अभागे बिना किसी जिम्मेदारी के उल-जुलूल खबर देकर नक्सल विरोधी अभियान को कमज़ोर करने फिर से किसी अन्य शिकार की तलाश में निकल पड़ते हैं. ज़ाहिर है इन कुटिल रणनीतिकारों को बेहतर पता होता है कि कम से कम जनसामान्य का ध्यान इस तरफ नहीं जाएगा कि जिस कालखंड में ये गोविन्दाचार्य पर नक्सल समर्थक होने की खबर उन्ही के हवाले से दे रहे हैं उस समय बीजेपी का गठन हो गया था और तब वे पार्टी में सबसे बड़े कार्यकारी पद पर नियुक्त थे. तो भला वो कैसे उस समय नक्सली हो सकते हैं? या उसी खबर में जब जेपी को उद्धृत किया है उससे काफी पहले लोकनायक दिवंगत भी हो गए थे. तो जहां देश इस तरह से एक नए युद्ध में प्राण-पण से जुटा हो, जहां देश का लगभग एक तिहाई क्षेत्र इन छुपे दुश्मनों से मुक्ति की जद्दोजहद में लगा है. जहां केरल से बड़ा 29000 वर्ग किलोमीटर का बस्तर अंचल उनके कब्जे से मुक्ति हेतु कसमसा रहा हो. जहां के 4000 वर्ग किलोमीटर के अबूझमार पर सांप की तरह फन काढे ये लुटेरे बैठे हो. जहां अभी हाल ही में हुए हमले में देश को अपने 76 जवानो की बलि चढानी पडी हो. जहां चीन तक से मदद लेकर, विदेशी हथियारों के द्वारा 2000 करोड की सालाना वसूली की जाती हो, वहाँ इस तरह का शरारत कर भी कोई पत्रकार या संस्था बेदाग़ बच जाय, हम इस विडम्बना को आखिर क्या कहें? इस तरह का कोई पहला मामला हो तो आप गफलत भी मान सकते हैं. लेकिन जब ऐसे हरकतों को संगठित रूप से अंजाम दिय जाने की बात हो तो देशभक्तों को सावधान तो हो ही जाना चाहिए.

इससे पहले “वार्ता” ने भी ऐसी ही हरकत की थी. करीब साल भर पहले की बात है. ‘सलवा-जुडूम’ मामले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई थी. डेट आगे बढ़ जाने के सिवा उस दिन कुछ नहीं हुआ था. लेकिन पूर्वान्ह में ही एजेंसी द्वारा खबर जारी कर दी गयी कि कोर्ट ने मानवाधिकार हनन के मामले में सरकार को लतार लगाते हुए इस आन्दोलन को बंद करने का आदेश जारी किया है. शाम के समाचार माध्यमों की वह बड़ी खबर थी. कुल 4 घंटे के बाद उस खबर को एजेंसी द्वारा वापस भी ले लिया गया. लेकिन उनका जो मंसूबा था उसमे भी वह कामयाब रहे. ज़ाहिर सी बात है इस तरह की झूठी खबर भी पहले पन्ने पर जगह पा लेता है जबकि उसका खंडन कही कोने में जगह पाता है. उच्चतम न्यायालय का इतना भीषण अवमानना किये जाने के बाद भी ना ही एजेंसी को दण्डित किया गया और ना ही किसी पत्रकार की इस मामले में जिम्मेदारी तय की गयी. भाई लोग फिर दुगने उत्साह के साथ किसी अन्य शिकार की तलाश में निकल पड़े. हर बार की तरह तब भी कुछ माध्यम जान-बूझ कर तो कुछ अनजाने में इस्तेमाल कर लिए गए. जबकि बाद में कोर्ट द्वारा ही नियुक्त मानवाधिकार कमिटी के रिपोर्ट के आधार पर सरकार को क्लीन-चिट् दे दी गयी.

इसी तरह अभी एक ‘आज़ाद’ नाम का नक्सली कहीं अपने साथियों को बिना खबर किये हुए या जान-बूझ कर गुप्त सैर पर निकल पड़ा और फिर प्रशांत भूषण जैसे वकील अपने पूरे गिरोह के साथ समाचार माध्यमों का उपयोग कर आन्ध्र सरकार को बदनाम करने में जुट गए. कोर्ट में याचिका दायर कर यह आदेश देने की मांग की गयी कि आन्ध्र को कहा जाय कि वह ‘आजाद’ को ‘नहीं मारे’ . बाद में खुद उस नक्सली ने बयान जारी कर कहा कि वह अपनी मर्जी से गया था और अब सही सलामत है. अब आप सोचें…. राष्ट्रीय कहे जाने वाले समाचार माध्यमों में जहां दिल्ली के अलावा कहीं और की खबर का स्थान मिलना मुश्किल हो, वहाँ ऐसे झूठी ख़बरों से पेज का पेज रंग दिया गया. करोड़ों मुकदमों के बोझ तले जहां आम न्यायालय दबा हुआ है वहाँ ऐसे वाहियात ख़बरों के आधार पर कोर्ट का कीमती समय बर्बाद कर लोकतंत्र को बदनाम करने का काम किया गया. ऐसे-ऐसे उदाहरणों की असंख्य शृंखला है. आप गौर करेंगे तो खून खौल जाएगा कि कि तरह झूठ पर झूठ गढ़ देश को नस्तनाबूत करने का काम आज का ‘गोरा मीडिया’ कर रहा है.

…लेख का शेष भाग कल प्रकाश्‍य।

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  1. कहना गैर-मुनासिब नहीं होगा कि भारत की जनता भ्रष्टाचार को हर प्रकार से अंगीकार कर चुकी है. इसे सत्ता, मीडिया और उद्योगपतियों का संरक्षण हासिल है. रही-सही कसर शर्म-निरपेक्षता का लबादा इसे संरक्षित करने में जुटी है. सरकार ने 2जी, चावल, चीनी, गेहूं, हसन अली, आईपीएल, कॉमनवेल्थ, नरेगा जैसे घोटाले किए और करवाएं, दल-दल में फंसी सरकार को शर्म-निरपेक्षों की जरूरत है, जो लालू-मुलायम, माया जैसे घोटालेबाज शर्म-निरपेक्ष, शर्म-निरपेक्षता की सरकार को मदद करने के लिए तैयार है. ऐसे में नक्सलवाद का शिगूफा सरकार के घूंटी का काम कर रही है. जाहिर है कि वह उसे खत्म नहीं करना चाहती है. इस काम में लाल कलम से सिपाही मदद के लिए मानवाधिकार संगठनों की फौज खड़ी कर रखे हैं. कौन बचाएगा इस देश को. विदेशी बैंकों में जमा कालेधन की बात तो छोड़ों, साढ़े चार लाख करोड़ का नया घोटाला है. इसके बावजूद सरकार आम आदमी की है.

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