राजनीति

नक्सलवाद: इस नए महाभारत के शिखंडियों को पहचानें-2

-पंकज झा

नक्‍सलवाद के पैरोकार तथाकथित बुद्धिजीवी किस तरीके से छद्म लबादा ओढे भारतीय लोकतंत्र और समाज व्‍यवस्‍था पर चोट कर रहे हैं, इस विषय पर लिखित निम्‍न लेख हमारी आंखें खोलनेवाला है। इस लेख का पहला भाग आप पढ चुके हैं। प्रस्‍तुत है अंतिम भाग- संपादक

अभी 3-4 महीने पहले लेखिका और नक्सल समर्थक “अरुंधती राय” दांतेवाडा आ कर अपने रिपोर्टों के द्वारा नक्सलियों को प्रोत्साहित कर देश के 76 जवानों की शहादत का पृष्ठभूमि तैयार कर गयी. जाहिराना तौर नक्सलियों के महिमामंडन का कुकर्म करने के लिए हमले के बाद अरुंधती का हर लोकतांत्रिक मंच से भर्त्सना किया गया. कथित तौर पर एक व्यक्ति ने पुलिस में शिकायत भी दर्ज करवाया. कोई कारवाई भले ही इन शिकायतों पर नहीं हुई लेकिन भाई लोग जिनमें प्रशांत जैसे अभागे वरिष्ठ वकील के साथ एक पूर्व सेनाध्यक्ष तक शामिल थे आसमान सर पर उठा लिया. लेकिन इन लुच्चों के पास उन 76 जवानों की शहादत पर चंद शब्द भी नहीं थे. जबकि अगर आप अरुंधती के लिखे रिपोर्ट पर गौर करेंगे तो किसी भी देशभक्त के लिए अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रख पाना मुश्किल होगा. जिस तरह से उस रिपोर्ट में भारतीय राज्य का मजाक उड़ा कर नक्सलियों को महिमामंडित किया गया है. यह पढ़ कर भी अरुंधती की जूबान को हलक में ही रहने देने वाला प्रशासन नपुंसक ही कहा जाएगा. आप अगर हमले के बाद नक्सलियों के प्रेस रिलीज और अरुंधती की रिपोर्ट का मिलान करेंगे तो दोनों में समानता देख आप हतप्रभ रह जायेंगे. जिस आदवासी गांव का (चिनारी पहले इनारी) जिसी रूप में रिपोर्ट में जिक्र किया गया है उसी गांव का नाम हज़ारों गांव वाले बस्तर में नक्सलियों के अधिकृत प्रेस विज्ञप्ति में आना क्या महज़ संयोग होगा? इसके अलावा हमले के बाद जारी विज्ञप्ति में नक्सलियों ने अपने हमले को “भूमकाल विद्रोह” के सौ साल होने का जश्न मनाना लिखा है. तो जिस उद्धरण से शुरुआत कर हमले के बाद विज्ञप्ति जारी की गयी उसी “भूमकाल विद्रोह” से अरुंधती भी अपनी बात कहना शुरू करती है. जैसे नामों का जिक्र “राय” के रिपोर्ट में है उसी तरह के नाम नक्सलियों द्वारा जारी दस्ताबेज में भी है. तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इन नागिनों द्वारा इस तरह नंगा नाच कर देश को कमज़ोर करने, 76 परिवारों को बर्बाद कर देने वाले दलालिनी के हाथ तोड़ देने का क्या कोई उपाय देश के पास बचा नहीं है? सरकार के नाक के नीचे से जाकर, भारी भीड़-भाड वाले में इलाके दंतेश्वरी मंदिर के पास खड़ा रह अरुंधती जैसी कुख्यात हस्ती नक्सलियों का इंतज़ार करती रहती है लेकिन मीडिया को क्या कहें पुलिस को भी इसकी भनक नहीं लगती? ऐसे ही एक कलम का दुकानदार कभी सरगुजा आता है. वहाँ मोटे तौर पर नक्सल समस्या समाप्त जैसा हो गया है. लेकिन वहाँ के एक रिपोर्ट के आधार पर पत्रकारिता का एक बड़ा पुरस्कार कबाड लेता है. लेकिन कोई स्थानीय आदमी अगर उस रिपोर्ट को पढ़े तो उसको आश्चर्य होगा कि आखिर कितना झूठ गढना जानते हैं ये अभागे. वहाँ पर सरगुजा को इस तरह उद्धृत किया गया है मानो वहाँ की हालत बोस्निया-हर्जोगोबिना या अफगानिस्तान से भी खराब हो.

हालाकि शुरुआती दौर में प्रदेश के कुछ मीडिया समूह भी इन गिरोहों के झांसे में आकार जाने-अनजाने नक्सलियों के पक्ष में इस्तेमाल होते रहे. लेकिन अब छत्तीसगढ़ का समाचार माध्यम एक जुट हो कर इन दलालों का पोल खोले जुट गया है. हाल ही प्रदेश के प्रेस क्लब ने एक प्रस्ताव जारी कर ऐसे किसी भी गिरोह का वहां प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया है. रुदालियों के लाख चिल्लाने, भौक कर लाख दुष्प्रचार करने के बावजूद यहां के पत्रकार-गण उनके झांसे में नहीं आ कर इनका बहिष्कार जारी रखे हुए हैं. अलग-अलग जगह लिख कर ये लोग प्रदेशभक्त पत्रकारों को बिकाऊ कहने से भी बाज़ नहीं आते. लेकिन यह तय है कि अब यहाँ इनकी दाल गलने वाली नहीं है. लोकतंत्र की जीत निश्चित है चाहे ये आसमान सर पर उठा लें. बस तटस्थ मीडिया से भी यही गुजारिश होगा कि वह इन विदेशी दलालों की कारगुजारियों को समझे. चुकि लड़ाई अपने कहे जाने वाले लोगों से है, अतः यह मान कर चलें कि नक्सल से मुक्ति का यह अभियान एक नए तरह का महाभारत ही है. पांडव के रूप में यह लोकतंत्र निश्चय ही विजय प्राप्त करेगा. बस पत्रकारों से “संजय” की भूमिका निभाने का आग्रह है साथ ही ‘शासक’ धृतराष्ट्र नहीं बने इसकी भी चिंता हमें करनी होगी.साथ ही चुकि जनतंत्र में शासक की भूमिका जनता को ही मिली होती है तो आलोच्य मीडिया को यह चेतावनी कि वह जनता को अंधा समझने की भूल ना करे. निश्चय ही दृष्टिवान, सबल और सफल विश्व का सबसे बड़ा यह लोकतंत्र आँख दिखाने वालों का आँख निकाल लेने की भी कुव्वत रखता है. बस ज़रूरत इस बात की है कि दांतेवाडा के उन शहीदों की तरह ही समाज का हर वर्ग अपनी कुर्बानी हेतु समर्पित हो. और सभी देशभक्त मीडिया तटस्थता छोड़ कर यह मानते हुए ‘समर’ में कूद पड़े कि देश और लोकतंत्र उनके पेशे से भी बड़ा है.(समाप्‍त)