नक्सलवाद/ जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध!

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सामान्यतया बौद्धिक वैचारिक सेमिनार आदि औपचारिक किस्म के होते हैं। विषय चाहे जितना गंभीर या शोकप्रद हो आपको पुष्पगुच्छ, स्वागत-गान आदि देखने को मिल ही जायेंगे। छत्तीसगढ़ के नक्सलवाद ख़ास कर “सलवा जुडूम” पर कुछ समय पहले दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार का याद आ रही है जो देखते ही देखते अनौपचारिक सा हो गया था। छत्तीसगढ़ के सुदूर अंचल सुकमा से आये एक पीड़ित ने जब अपनी व्यथा-कथा अपने टूटे-फूटे शब्दों में सुनाना शुरू किया तो सभी उपस्थित जनों की आंखें नम हो गई थी। अपने पति के जघन्य हत्या की गवाह एक अन्य आदिवासी महिला जब बुक्का फाड़कर रोने लगी और नक्सलियों द्वारा किये जा रहे कुकृत्य से लोगों को अवगत कराया तो भौंचक से रह गये कई दिल्लीजन। आश्चर्य लगा उनको कि देश के किसी कोने में किसी विचार के नाम पर ऐसा भी कुकृत्य किया जा रहा है, या उन कुकर्मियों के विरूद्ध “सलवा-जुडूम” जैसा कोई आंदोलन भी चल रहा है। परंतु अंतत: राष्ट्रीय राजधानी के उस नक्कारखाने में तूती की तरह ही साबित हुई उन लोगों की आवाज। मुबंई की रामभाऊ म्हालगी प्रबोधनी द्वारा आयोजित इस सेमिनार को दिल्ली में आयोजित करने का ध्येय था कि स्वतंत्रता बाद के सबसे अनूठे इस आंदोलन सलवा जुडूम से देश अवगत हो तथा संपूर्ण देश वनवासी बंधुजनों से एकात्म होकर उन्हें नैतिक समर्थन प्रदान करें। प्रायोजक की ये सोच भी रही होगी कि राष्ट्रीय मीडिया भी इस मामले में अपनी भूमिका का निर्वाह कर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बस्तरजनों को संबल प्रदान करें। आदिवासी जनों का दुर्भाग्य कि सेमीनार का दिन 14 फरवरी था। सो एक तो बाज़ार के प्रति महती जिम्मेदारी का बोझ अपने नाज़ुक कंधे पे उठाता “राष्ट्रीय” कहा जाने वाला मीडिया और ऊपर से ऐन वेलेन्टाईन डे का “पावन” पर्व ! उस दिन कौन-सा अखबार या दृश्य मीडिया इस सेमीनार को कवर करने का “जोखिम” उठाता। जब महानगर के सारे उद्यान नवयुवक-यौवनाओं से गुलजार हो। जब आपको आठ-आठ कॉलम में छापने के लिए उत्तर आधुनिकाओं के अधर-चुंबन का चित्र सहज ही उपलब्ध हो, एक दूसरे से लिपट-चिपट रहे नग्नप्राय युगलों की “स्टोरी” जब घंटों परोसकर संपूर्ण देश को “जागरूक” करने का मसाला आपके पास उपलब्ध हो, तो कौन फिकर करता है देश के किसी कोने से उठ रहे ऐसे आवाज की ? कौन कंपनी विज्ञापन देगा ऐसे किसी दीन-हीन से दिख रहे “काले-कलूटे” लोगों को कवर करने के लिए ? ऐसे किसी खबरों से थोड़े किसी चैनल की रेटिंग बढऩी है? उस “गोरे” समाचार माध्यम से किसी सामाजिक सरोकारों की उम्मीद पूरी नहीं होने पर हम अपनी भड़ास निकाल रहे हो ऐसी बात नहीं है। निश्चित ही बस्तर जैसे दूर-दराज़ के अंचल के वनवासीगण ऐसे किसी मीडिया के “कारण” नहीं, बल्कि उसके “बावजूद” ज़िंदा हैं और रहेंगे। खून तो तब खौल उठता है जब वो पतित मीडिया, प्रदेश को बदनाम करने के लिए अपनी सारी ऊर्जा लगा देता है। तमाम तरह के झूठ की खेती कर जब कलम के ये व्यापारीगण जब अंचल पर डाका भी डालना शुरू करते हैं। नक्सलियों को प्रश्रय देने में प्रदेशभक्त मीडिया का इस्तेमाल ना कर पाने पर जब बौखला कर अनाप-शनाप लिखने लगते हैं, या मासूम आदिवासियों की हत्या पर उफ़ तक ना करने वाले ये वहशी एक नक्सली की कानूनी गिरफ्तारी पर भी आसमान सर पर उठा लेते हैं। गांधीवाद को बेच खाने वाले हिमांशु जैसे लोगों का समर्थन करना शुरू करते हैं। खैर! दिनभर के चिंतन एवं प्रस्तुतिकरण के बावजूद उस सेमीनार में जिस प्रश्न को अनुत्तरित रह जाना था, वह यह कि नक्सली आखिर क्यों मार रहे हैं इन मासूमों को ! एर्राबोर के शिविर में एक साल की “ज्योति कुट्टयम” को मारकर वह क्या साबित करना चाहते हैं ? दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद भी मुश्किल से दो मुट्ठी भात का इंतजाम कर सकने वाले उन निरीह लोगों को मारकर किस ‘”सर्वहारा” राज्य की स्थापना करना चाहते हैं ये कुकर्मी। तथाकथित वर्ग संघर्ष की कौन सी स्थिति उपलब्ध है वहां पर? शोषण के विरूद्ध आवाज उठाने का दम भरने वाले इन नक्सली विरप्पनों का क्या शोषित कर लिया इन भोल-भाले आदिवासियों ने ? उनके ‘”बुर्जुआ” की परिभाषा में कहां टिकते हैं ये मेहनतकश ! क्या कोई सरफिरा पागल भी उन वनवासीजनों को ”शोषक” कह सकता है? यदि वैश्विक स्तर पर माओ के परपोते इन लफंगों के कृत्यों और उसको “विचार” का जामा पहना देने की बात सोचें, तो आप वितृष्णा से भर जायेंगे। पता नहीं ”द्वंदात्मक भौतिकवाद” किस चिडिय़ा का नाम रखा है इनके आकाओं ने, परंतु इन नक्सलियों, अमानवाधिकारियों एवं एक्टिविस्ट मीडिया के गिरोह और उसके “दोगले बाजारवाद” को समझने की जरूरत है। यही तथाकथित माओवादी, छत्तीसगढ़ में “लोकतंत्र” के खिलाफ लडऩे की बात करते हैं, वहीं नेपाल में उन्होंने “लोकतंत्र” के लिए ही हिंसक आंदोलनों का दौर चला रखा था। वहाँ पर सत्ता की संभावना दिखते ही इनकी लार टपकने लगी और वहां के अपने विरोधी कांग्रेस के साथ मिलकर सत्ता की बंदरबांट में लग गये। जिस पूंजीवाद के विरूद्ध वामपंथी विचारों का जन्म हुआ था, उन्हीं पूंजिवादियों के लिए तो इनकी सरकार बंगाल में लाल कालीन बिछाये हुए थी ! सिंगूर में उपजाऊ जमीन अधिग्रहित कर इन्होंने तो अपने दो मुंहापन का परिचय दे ही दिया। जिस धर्म को ये अफीम मानते हैं, उसी धर्म के नाम पर दुनिया में हिंसा का नग्न तांडव करने वाले अफजलवादियों के लिए पैरवी करते उन्हें अहिंसा की याद आ जाती है और तब उस अफीम रूपी थूक भी चाटना इन्हें प्यारा लगने लगता है। इतने विश्लेषण के बाद जाकर थोड़ी सी बात समझ में आती है कि इनका मूलमंत्र है देशद्रोह और सत्ता के लिए संघर्ष। इनके देशद्रोहिता के संदर्भों से तो खैर इतिहास भरा पड़ा है। यह स्थापित तथ्य है कि केरल के वामपंथी मंत्रियों को आदेश के लिए मास्को का दौड़ लगाना पड़ता था या चीनी आक्रमण के बाद भी इन्हें “माओ” को अपना चेयरमैन बताने में कोई गुरेज नही था। उस माओ को जो विश्व इतिहास का सबसे बड़ा तानाशाह था जिसने शांति काल में 7 करोड़ लोगों की क्रांति विरोधी होने के नाम पर हत्या करवायी। कुख्यात तानाशाह हिटलर, मुसोलिनी तो माओ के आगे कुछ नहीं थे। वैसे आपको माओवादी, नक्सली, वामपंथी, मार्क्सवादी आदि सभी मुखौटे चाहे अलग-अलग दिखें, लेकिन थोड़ा सा विचार करने पर आपको उन सभी के लक्ष्य में साम्यता दिखेगी। आपको महसूस होगा कि ये सब अलग-अलग गिरोह अंतत: एक ही लक्ष्य के लिए खून की नदियां बहाने तैयार हैं और वह है किसी भी तरह से सत्ता पर कब्जा जो -बकौल इनके आका- बन्दूक की नली से निकलती है। इस गिरोह में आपको (अ) मानवाधिकारवादी, अफजलवादी, अभिव्यक्ति को उच्छृंखलता प्रदान करने वाले मीडियावादी और लोकतंत्र में आस्था का स्वांग रचने को मजबूर मार्क्सवादी सभी मिल जायेंगे। आपको ऐसे मतलबी प्रेस के बारे में जानकार ताज्जुब होगा जिनके लिए, अपने जन-जंगल अपनी जमीन, अपनी संस्कृति को खोने के बाद जान बचाने को शिविर में रहने को मजबूर गरीब आदिवासियों की कोई हैसीयत नहीं, उनकी आवाज ये भले न छापे, लेकिन नक्सलियों के प्रेस विज्ञप्ति को संपादकीय आलेख बनाकर छापने वाले जनद्रोही आपको गली-कूचे में मिल जायेंगे।वनवासी अंचल के मजलूमों की नक्सलियों द्वारा की गयी हत्या भले ही मानवाधिकार का हनन न होता हो, लेकिन एक नक्सली के वध पर हायतौबा मचाने वाले स्वयंभू संगठन आपको कुकुरमुत्ते की तरह उगे मिलेंगे। वैश्विक स्तर पर फैले इन गुंडों के गिरोह का सफाया लोकतंत्र के लिए अत्यावश्यक है। जहां तक छत्तीसगढ़ के वनवासी इलाकों की बात है, तो इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि बिचौलियों, व्यवसायियों ने अंचल का जमकर शोषण किया है। दुनिया के सबसे अमीर धरती में से एक इस अंचल के संसाधनों से निश्चय ही भोपाल और दिल्ली गुलजार होता रहा है, और यहां के माटीपुत्र अन्न वस्त्र को मुंह ताकते रहे हैं। लेकिन आज स्थितियां बदली है, समस्याओं को दूर करने की दिशा में सार्थक प्रयास भी किये जा रहे हैं। अलग राज्य की स्थापना के बाद यहां के संसाधनों के उचित उपयोग का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है। बावजूद इसके विसंगतियां कई हो सकती हैं। हो सकता है आपके पास कुछ अच्छे विचार हों जिसे लागू कर प्रदेश के विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। लेकिन विश्व के इस महान लोकतंत्र में आपके “बुलेट” की आवाज निश्चय ही आपका सर्वनाश करके ही दम लेगी। आखिर जिस आदिवासीजनों के नाम पर आपने अपनी दुकान खोल रखी है उन्हें ही मारकर आप किस शांति का सूत्रपात करने का प्रयास कर रहे हैं? अंचल की जिस थाली में आप खा रहे हैं, उनमें ही छेदकर तो आप जानवर कहलाने लायक भी नहीं बचे हैं। शांतिप्रिय वनवासीजनों के द्वारा नक्सलियों के विरुद्ध आरम्भ आन्दोलन का संदेश यही है कि सत्ता किसी भी वंश या विचार की बपौती नहीं है। यह आंदोलन आपके समक्ष यही चुनौती प्रस्तुत करता है कि यदि वास्तव में दम है आपमें, प्रासंगिकता है आपके विचारों की, वास्तव में जनसमर्थन है आपके साथ, तो बुलेट नहीं बैलेट का सहारा लेकर अपनी सत्ता स्थापित करें। समाज की मुख्य धारा में शामिल हों। लाख बुराईयों के बावजूद भारत के लोकतंत्र का डंका सारी दुनिया में बजता है, यहां की चुनाव प्रणाली विकसित देशों को भी प्रेरणा एवं दिशा प्रदान कर रही है। जिस कथित जनसमर्थन की बात आप करते हैं उसे साबित करने का लोकतंत्र ही एकमात्र जरिया है।भूमिपुत्रों का नक्सलियों के विरुद्ध शांतिपूर्ण शंखनाद, राह से भटके लोगों को जहां मुख्यधारा में शामिल होने का अंतिम अवसर प्रदान करता है, वहीं भोले-भाले लोगों को बरगला कर अपना उल्लू सीधा करने वाले “विरप्पनों” को यह चेतावनी भी देता है कि यथाशीघ्र अपनी आतंक की दुकान समेट लें, अन्यथा उन्हें अपनी बर्बादी पर दो बूँद आंसू भी नसीब नहीं होंगे। निष्कर्षतः कहा जा सकता है की अपने गैरकानूनी सत्ता को मिल रहे चुनौती से बौखलाये इन अपराधियों के विरूद्ध आर-पार की लड़ाई लडऩे का समय आ गया है। इन नक्सलियों के विरूद्ध समाज के सभी तबकों को एकजुट होना होगा। समाज के तथाकथित प्रगतिशील, जनवादी पत्रकारों, बुद्धिजीवियों से तो कोई अपेक्षा नहीं ही की जा सकती, वे तो मूंग डालते ही रहेंगे लोकतंत्र की छाती पर, और फलतः उनका निश्चित अंत भी होगा ही। लेकिन नक्सली आतंक के विरूद्ध तटस्थ रुख अपनाने वाले समाज के सभी पक्षों से जरूर यह आशा है कि स्वयं में मगन न रहें, अपनी चुप्पी और तटस्थता छोड़ें। मार्टिन लूथर किंग ने कहा था दुनिया के किसी भी कोने में हो रहा अन्याय सारी मानवता के लिए खतरा है। भोले-भाले सीधे-सच्चे वनवासियों के अस्तित्व के इस धर्मयुद्ध में तटस्थ देशवासियों को समझना होगा….समर शेष है नहीं पाप का भागी केवल ब्याध। जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध॥ -पंकज झा

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  1. याज्ञवल्‍क्‍य जी ने वही प्रलाप किया है जो की आम तौर पर वामपंथी विचारक करते हैं. दुर्भाग्य से इन्हें नंदीग्राम और सिंगुर नहीं दिखता. बस आये दिन छत्तीसगढ़, रायपुर-बिलासपुर और डॉ. रमनसिंह ही दिखते हैं हल्ला बोलने के लिए. एक झूठ सौ बार बोलने से सच नहीं हो जाता. लेकिन ये तथाकथित बुद्धीजीवी देश०दुनिया के हर मंच पर नफासत के साथ झूठ की ऐसी नुमाइश करते हैं की वह सच प्रतीत हो. कुछ दिन पहले नक्सलवाद के रहनुमाओं ने मुम्बई में भी एक ऐसा ही मजमा लगाया था. और कहने की जरूरत नहीं की इसे मीडिया का अच्छा कवरेज मिला. आज नक्सलवाद का सबसे बड़ा शिकार भोले -भाले वनवासी हो रहे हैं. लेकिन इन्हें क्या?? छतीसगढ़ में लाल क्रान्ति लानी है, सो वनवासी मरे तो मरने दो. न मुख्यधारा के मीडिया को कुछ पडी है और ना ही दिल्ली-मुम्बई के ए सी कमरों में बैठकर नक्सलवाद की पैरवी करने वाले वामपंथी-सेकुलर दलालों को!

  2. पंकज जी आपका आलेख बस्तर को सही अभिव्यक्ति देता है। आतंकवाद को महिमामंडित करना इस देश में बुद्धिजीवी कहलाने का “फैशन” है और एसे लोगों को सच देखने के लिये लाल चश्मा मिला हुआ है। लाल चश्मे की खासियत है कि उसमे से देखने पर खून नजर नहीं आता।

    जहाँ तक बस्तर में आदिवासियों द्वारा नक्सलियों का समर्थन किये जाने का प्रश्न है कनपट्टी पर बंदूख रखो तो अंधा भी मार्क्स को देख सकता है और गूंगा भी “जय-माओ” बोलने लगता है। मेरी तो मातृभूमि ही बस्तर है और माओ के ठेकेदारों के प्रभाव में आने से पहले से ले कर अब तक इस मिट्टी का सच और पीडा को बखूबी जानता हूँ और उन मान्यवरों के प्रलापों का अर्थ भी समझता हूँ जिनकी दूकाने बंद हो जायेंगी।

    सोचिये बस्तर में बोधघाट परियोजना आधी बनने के बाद बंद करा दी गयी लेकिन देश के अन्य वन्य संपदा वाले क्षेत्रों में आज भी बाँध बिजली दे रहे हैं; बुद्धिजीवियो (?) नें गीदडभभकियों से मावली भाटा में स्टील प्लांट बंद करा दिया (यह प्लांट बाद में विशाखापट्टनम चला गया चूंकि बस्तर लगता तो पर्यावरण नष्ट हो जाता किंतु अन्यत्र ईकोफ्रेंडली हो गया) एसी बहुत सी कहानियाँ हैं और इसके लिये नक्सलियों की योजनाबद्ध रणनीति और उनकी बी-टीम यानी कि मानवाधिकारवादी (तथाकथित) तथा बुद्धी(हीन) जीवी जिम्मेदार हैं। ये जब अपने मक्सद में सफल हो जाते हैं तो बस्तर उन्हे लोकतंत्र की पराजय नजर आने लगता है। बस्तर का आदिम अधनंगा नहीं है उसे रखा गया है और इसकी जिम्मेदारी उनकी है जो किसी भी विकास की योजना को यहाँ सफल नहीं होने देते और घोषणा होते ही अपना दल-बल, टीम-टाल ले कर चले आते हैं।

    हालांकि अब समय बदल रहा है और यह सुखद है। आदिम नक्सलियोंके खिलाफ हो उठे है और उनकी यह लडाई वास्तव में क्रांति है। उससे भी बडा सवेरा हाल की उस घटना से भी हुआ जब आदिवासियों नें मेधा पाटकर और उनकी दूकानदारी को बस्तर के बाहर का रास्ता दिखाया कि झूठ दिल्ली ही सुनती है बस्तर को माफ करो।

    समय आ गया है कि नक्सलियों के खिलाफ न केवल बलप्रयोग हो बल्कि जनमत भी तैयार हो। तथाकथित बुद्धिजीवी तो सामने आयेंगे नहीं चूंकि अगर आ गये तो सारी “वामपंथी लेखक लॉबी” खिलाफ हो जायेगी, पुरस्कार वुरक्सार नहीं मिलेंगे 🙂 लेकिन पंकज जी आभार कि आपने बेबाकी से यह सब लिखा।

  3. ओह याज्ञवल्क्य भाई…..आप तो खासे नाराज़ हो गए…ना ही पूर्व उद्योग मंत्री से मेरी कोई सहानूभूति है और ना ही मैं उनका प्रवक्ता हूँ. जो काम वो कर रहे हैं अच्छा या बुरा उसके लिए वो जाने और उनका काम. समय तो निश्चित ही सबका अपराध लिखेगा. अगर वर्तमान में भी जान-बूझकर कोई ओहदेदार कोई ग़लत काम कर रहा होगा तो नियति से किसी को भी माफी नहीं मिलने वाली नहीं है. यह कहने का पाप कौन करेगा की वर्तमान व्यवस्था में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो रहा है. लेकिन इतना तय है की लोकतंत्र दुनिया की सबसे कम बुरी शासन प्रणाली है. और भारत के लोकतंत्र की चुनाव प्रणाली लाख विसंगतियों के बावजूद दुनिया में अपनी साख कायम किये हुए है. वैसे प्रणाली से छनकर आये जनप्रतिनिधियों तथा हिंसक नक्सलियों में से अगर हमें कोई एक चुनना हो तो निश्चय ही पहला विकल्प उचित होगा.लेकिन बात यहाँ मीडिया की थी और आप खुद भी उसके एक अंग हैं क्या आपको शर्म नहीं आती उस मीडिया पर जिसे मैंने “गोरा मीडिया” कहा है?

  4. आपने सटीक बात कही है. वनवासी समाज पर हो रहे जुल्मो-सितम पर मीडिया की खामोशी शर्मनाक है. उनके स्वत:स्फूर्त आन्दोलन को बाधित करना उनके साथ सरासर नाइंसाफी है.

  5. प्रिय मित्र, यह आलेख किस आक्रोश की अभिव्‍यक्ति है, नक्‍सल नक्‍सल कहने से कोई समाधान नहीं निकलता, क्‍योंकि मूल रूप से नक्‍सली समस्‍या नहीं है, वास्‍तविक समस्‍या जनतंत्र गणतंत्र की अनुपस्थिति है, आप शायद आसानी से कह जाएं कि, नक्‍सलीयों ने विकास रोक रखा है, भाई मेरे बस्‍तर सरगुजा जैसे छत्‍तीसगढ के आदिवासी अंचलों में यदि सरकार है और थी, तो जशपुर की लडकियां महानगरों में क्‍यों जाती है, विकास की ढेरों बातों, प्रदेश सरकार के रंगीन कागजों पर उकेरे खूबसूरत दावों के बावजुद प्रदेश का किसान अधनंगा क्‍यों है, आप जिस रायपुर में रहते है वहां साफ पानी सरकार मयस्‍सर नहीं करा सकती,ये ईलाके जहां के लिए आप नात गा रहे है, वहां जब नक्‍सली नहीं थे, तब से आदिवासी शोषित होते रहा है, हम पढे लिखे लोग अरसे से इन आदिवासी अंचलो में नमक के बदले क्‍या पाते रहे है,क्‍या आप नहीं जानते, आपको मालूम है कि, नक्‍सलीयों को क्‍यों आदिवासीयों ने पसंद किया, इसलिए कि, इस देश की व्‍यवस्‍था को चलाने वाले तंत्र ने उनकी औरतों की शारिरीक बनावट और स्‍तनों की कठोरता को तो नजदीक से देखा और आनंद लिया लेकिन उन तक उस सरकार को नहीं पहूंचने दिया जिसे उनके कथित वोटों से बनाया जाता रहा, अरसे से शोषित और सिर्फ लूटते आ रहे ग्रामीणों को नक्‍सलीयो के बीच अपने चेहरे दिखे, उनका अंदाज उन्‍हे सिर्फ इसलिए भा गया क्‍योंकि वे आक्रोश की अभिव्‍यक्ति दिखे, लेकिन उसके बावजुद सरकार ग्रामीणों तक नहीं पहूंची, तंत्र की असफलता ने नक्‍सलीयों को विस्‍तार दिया है और आज भी जब गोली चल रही है तो मुझे कोई ऐसा नाम नहीं दिखता जिसे नक्‍सली अपने शीर्षस्‍थों में शामिल करते है,मरने वाला आज भी आदिवासी और ग्रामीण है, आपने ठीक लिखा है तटस्‍थ रहोगे तो समय उनका भी अपराध लिखेगा, मैं उम्‍मीद करता हूं, कि, पूर्व उद्रयोग मंत्री और वर्तमान मूख्‍यमंत्री डॉ रमण सिंह और उनके उन छिपे उद्रयोगपती मित्रों का नाम भी शामिल होगा, तब, जबकि आपका समय अपराध लिखने के लिए कलम उठाएगा, रही बात आपके वर्णित गोरे और काले मीडिया की तो भाई साहब मैं बस्‍तर और सरगुजा के कई पत्रकारों के नाम जानता हूं, जिन्‍होने बावजुद इसके कि, वे सच लिखने के लिए जेल तक भेज दिए गए लेकिन यह बताते रहे कि, भैया इस ईलाके में सरकार को भेज दो

  6. आपने एक कड़वी सचाई दुनिया के सामने रखी है. माओवादी, अफाजलवादी बुद्धिजेवी या मीडिया से उत्प्पेदन का शिकार हुए वनवासी के बारे में क्या अपेक्षा की जाए? भारतीय मीडिया वामपन्थ और वन्शपन्थी होकर इसा कदर भ्रष्ट हो गया है कि उसका चरित्र वैश्या से भी गया गुजरा है. यह खुद को प्रगतिशील कहता है और कोर्पोरेट से कमाता है. इसके लिए आधुनिकता का मतलब पाशचात्य्करण ही है. इन्हें भला किसी निर्धन वनवासी की पीड़ा कहाँ नजर आएगी?

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