प्रमोद भार्गव
छत्तीसगढ और आंध्रप्रदेष की सीमा पर हुई मुठभेड़ में सुरक्षाबलों ने शीर्ष माओवादी क्रूर हिंसा के प्रतीक बन चुके हिड़मा को मार गिराने के बाद सात अन्य नक्सलियों को मार गिराने के साथ तय है, कि अब नक्सली हिंसा अपने अंतिम चरण में है। मार्च 2026 तक इसका समूल नाश हो जाएगा, क्योंकि अब प्रमुख नक्सली सरगनाओं की गिनती मात्र 3-4 तक सिमट गई है। यदि वे हथियार डालकर समर्पण नहीं करते हैं तो उनका भी अंत होना तय है। हालांकि इस मुठभेड़ में मप्र के बालाघाट में पदस्थ निरीक्षक आशीष शर्मा को बालिदान देना पड़ा है। माओवादी अर्से से देश में एक ऐसी जहरीली विचारधारा रही है, जिसे नगरीय बौद्धिकों का समर्थन मिलता रहा है। ये बौद्धिक नक्सली संगठनों को आदिवासी समाज का हितचिंतक मानते रहे हैं, जबकि जो आदिवासी नक्सलियों के विरोध में रहे, उन्हें इनकी हिंसक क्रूरता का शिकार होना पड़ा है। बावजूद इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश के वामपंथी दलों को कभी भी सुरक्षाबलों का नक्सलियों के खिलाफ चलाया जा रहा सफाये का अभियान पसंद नहीं आया। इससे पहले छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के जंगल में सुरक्षा बलों के नक्सल विरोधी अभियान में बड़ी सफलता तब मिली थी, जब डेढ़ करोड़ के इनामी बसव राजू समेत 27 माओवादियों को सुरक्षा बलों ने मार गिराया था। यह कुख्यात दरिंदा होने के साथ गुरिल्ला लड़ाका था। माओवादी पार्टी का इसे पर्याय माना जाता था। इसका नक्सली सफर 1985 से शुरू हुआ था। इसने वारंगल के क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ाई की थी।
नक्सली हिंसा लंबे समय से देश के अनेक प्रांतों में आंतरिक मुसीबत बनी हुई है। वामपंथी माओवादी उग्रवाद कभी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा माना जाता रहा है। लेकिन चाहे जहां रक्तपात की नदियां बहाने वाले इस उग्रवाद पर लगभग नियंत्रण किया जा चुका है। नई रणनीति के अंतर्गत अब सरकार की कोशिश है कि सीआरपीएफ की तैनाती उन सब अज्ञात क्षेत्रों में कर दी जाएं जहां नक्सली अभी भी ठिकाना बनाए हुए हैं। इस नाते केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में सबसे अधिक नक्सल हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में 4000 से अधिक सैन्यबल तैनात करने जा रहा है। केंद्र सरकार की कोशिश है कि 31 मार्च 2026 तक इस क्षेत्र को पूरी तरह नक्सलवाद से मुक्त कर दिया जाए। इतनी बड़ी संख्या में सैन्यबलों की अज्ञात क्षेत्र में पहुंच का मतलब है कि अब इस उग्रवाद से अंतिम लड़ाई होने वाली है। मजबूत और कठोर कार्य योजना को अमल में लाने का ही नतीजा है कि इस साल सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में 2024 में 153 नक्सली मारे जा चुके हैं। शाह का कहना है कि 2004.14 की तुलना में 2014 से 2024 के दौरान देश में नक्सली हिंसा की घटनाओं में 53 प्रतिशत की कमी आई है। 2004 से 2014 के बीच नक्सली हिंसा की 16,274 वारदातें दर्ज की गई थीं, जबकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद 10 सालों में इन घटनाओं की संख्या घटकर 7,696 रह गई। इसी अनुपात में देश में माओवादी हिंसा के कारण होने वाली मौतों की संख्या 2004 से 2014 में 6,568 थीं, जो पिछले दस साल में घटकर 1990 रह गई हंै और अब सरकार ने जो नया संकल्प लिया हैए उससे तय है कि जल्द ही इस समस्या को निर्मूल कर दिया जाएगा। जिस तरह से नरेंद्र मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से आतंक और अलगाववाद खत्म करने की निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, वैसी ही स्थिति अब छत्तीसगढ़ में अनुभव होने लगी है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ में नक्सली तंत्र कमजोर हुआ है, लेकिन उसकी शक्ति अभी शेष है। अब तक पुलिस व गुप्तचर एजेंसियां इनका सुराग लगाने में नाकाम होती रही थीं, लेकिन नक्सलियों पर शिकंजा कसने के बाद से इनको भी सूचनाएं मिलने लगी हैं। इसी का नतीजा है कि सैन्यबल इन्हें निषाना बनाने में लगातार कामयाब हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के ज्यादातर नक्सली आदिवासी हैं। इनका कार्यक्षेत्र वह आदिवासी बहुल इलाके हैं, जिनमें ये खुद आकर नक्सली बने हैं। इसलिए इनका सुराग सुरक्षाबलों को लगा पाना मुष्किल होता है। लेकिन ये इसी आदिवासी तंत्र से बने मुखबिरों से सूचनाएं आसानी से हासिल कर लेते हैं। दुर्गम जंगली क्षेत्रों के मार्गों में छिपने के स्थलों और जल स्रोतों से भी ये खूब परिचित हैं। इसलिए ये और इनकी शक्ति लंबे समय से यहीं के खाद-पानी से पोषित होती रही है। हालांकि अब इनके हमलों में कमी आई है। दरअसल इन वनवासियों में अर्बन माओवादी नक्सलियों ने यह भ्रम फैला दिया था कि सरकार उनके जंगल, जमीन और जल-स्रोत उद्योगपतियों को सौंपकर उन्हें बेदखल करने में लगी है, इसलिए यह सिलसिला जब तक थमता नहीं है, विरोध की मुहिम जारी रहनी चाहिए। सरकारें इस समस्या के निदान के लिए बातचीत के लिए भी आगे आईं, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इन्हें बंदूक के जरिए भी काबू में लेने की कोशिशें हुई हैं। लेकिन नतीजे पूरी तरह अनुकूल नहीं रहे। एक उपाय यह भी हुआ कि जो नक्सली आदिवासी समर्पण कर मुख्यधारा में आ गए थे, उन्हें बंदूकें देकर नक्सलियों के विरुद्ध खड़ा करने की रणनीति भी अपनाई गई। इस उपाय में खून.खराबा तो बहुत हुआ, लेकिन समस्या बनी रही। गोया, आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने से लेकर विकास योजनाएं भी इस क्षेत्र को नक्सल मुक्त करने में अब तक सफल नहीं हो पाई हैं।
इस मुठभेड़ में मारे गए हिड़मा का बस्तर के इस जंगली क्षेत्र में बोलबाला रहा है। वह सरकार और सुरक्षाबलों को लगातार चुनौती दे रहा था, जबकि राज्य एवं केंद्र सरकार के पास मोदी सरकार से पहले रणनीति और दृढ़ इच्छा षक्ति की हमेषा कमी रही थी। तथाकथित षहरी माओवादी बौद्धिकों के दबाव में भी मनमोहन सिंह सरकार रही। इस कारण भी इस समस्या का हल दूर की कौड़ी बना रहा। यही वजह थी कि नक्सली क्षेत्र में जब भी कोई विकास कार्य या चुनाव प्रक्रिया संपन्न होती थी तो नक्सली उसमें रोड़ा अटका देते थे। अब हिड़मा के मारे जाने के बाद नक्सली समस्या का हल की गुंजाइश बढ़ गई है।
कांग्रंेस की पूर्व केंद्र तथा छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार नक्सली समस्या से निपटने के लिए दावा कर करती रही हैं कि विकास इस समस्या का निदान है। यदि तत्कालीन छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के विकास संबंधी विज्ञापनों में दिए जा रहे आंकड़ों पर भरोसा करें तो छत्तीसगढ़ की तस्वीर विकास के मानदण्डों को छूती दिख रही है, लेकिन इस अनुपात में यह दावा बेमानी है कि समस्या पर अंकुश विकास की धारा से लग रहा है, क्योंकि इसी दौरान बड़ी संख्या में महिलाओं को नक्सली बनाए जाने के प्रमाण भी मिले थे। बावजूद कांग्रेस के इन्हीं नक्सली क्षेत्रों से ज्यादा विधायक जीतकर आते रहे थे। हालांकि नक्सलियों ने कांग्रेस पर 2013 में बड़ा हमला बोलकर लगभग उसका सफाया कर दिया था। कांग्रेस नेता महेन्द्र कर्मा ने नक्सलियों के विरुद्ध सलवा जुडूम को 2005 में खड़ा किया था। सबसे पहले बीजापुर जिले के ही कुर्तु विकासखण्ड के आदिवासी ग्राम अंबेली के लोग नक्सलियों के खिलाफ खड़े होने लगे थे। नतीजतन नक्सलियों की महेंद्र कर्मा से दुश्मनी ठन गई थी। इस हमले में महेंद्र कर्मा के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकुमार पटेल और हरिप्रसाद समेत एक दर्जन नेता मारे गए थे। लेकिन कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में अपनी खोई शक्ति फिर से हासिल कर ली थी, बावजूद नक्सलियों पर पूरी तरह लगाम नहीं लग पाई थी। 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपदस्थ कर भाजपा फिर सत्ता में आई, उसके बाद से ही नक्सलियों के सफाए का सिलसिला चल रहा है।
दरअसल, देश में अब तक तथाकथित शहरी बुद्धिजीवियों का एक तबका ऐसा भी रहा, जो माओवादी हिंसा को सही ठहराकर संवैधानिक लोकतंत्र को मुखर चुनौती देकर नक्सलियों का हिमायती बना हुआ था। यह न केवल उनको वैचारिक खुराक देकर उन्हें उकसाने का काम करता था, बल्कि उनके लिए धन और हथियार जुटाने के माध्यम भी खोला था। बावजूद इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जब ये राष्ट्रघाती बुद्धिजीवी पुख्ता सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किए गए तो बौद्धिकों और वकीलों के एक गुट ने देश के सर्वोच्च न्यायालय को भी प्रभाव में लेने की कोशिश की थी और गिरफ्तारियों को गलत ठहराया था। माओवादी किसी भी प्रकार की लोकतांत्रिक प्रक्रिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पसंद नहीं करते हैं। इसलिए जो भी उनके खिलाफ जाता है, उसकी बोलती बंद कर दी जाती हैं। लेकिन अब इस चरमपंथ पर पूर्ण अंकुश लगने जा रहा है।
प्रमोद भार्गव