-आलोक कुमार-
नक्सल उन्मूलन के मोर्चे पर केन्द्र व राज्यों की सरकार और सुरक्षा बलों में निःसंदेह बेहतर तालमेल का अभाव है। राजनीति तिकड़मबाजी इसके मूल में है। नक्सल प्रभावित प्रदेशों में अपने राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए राजनेताओं और नक्सलियों के बीच संबंध कोई नयी बात नहीं है। यह कड़वी सच्चाई है कि नेताओं ने नक्सलियों से अपने कलुषित हितों की पूर्ति के लिए सहमति बनायी है। सहमति जब असहमति में बदलती है तो नक्सली बड़ी घटना को अंजाम देते हैं। झारखंड, छतीसगढ़, ओडिशा और बिहार में कई राजनेता अपने व्यावसायिक एवं राजनीतिक हितों के सुचारू संचालन के लिए नक्सलियों को मोटी रकम देते हैं। विरोधियों की हत्या भी नक्सलियों के हाथों करवाते हैं। चुनावों के वक्त करोड़ों रुपये देकर एक-एक विधानसभा में बढ़त हासिल करते हैं। नक्सल उन्मूलन की शुरुआत राजनीति और नक्सल गठजोड़ को खत्म करने से की जाए, तब ही इस समस्या का सामूल विनाश सम्भव है।
नक्सल समस्या के समूल उन्मूलन के लिए राजनीतिक बिरादरी की ओर से एक ईमानदार और पारदर्शी प्रयास की जरूरत है। अभी तक कोई भी सरकारी नीति साफ नजर नहीं आ रही है। नक्सल समस्या के उद्भव के बाद से किसी भी सरकार ने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कोई भी सार्थक प्रयास नहीं किया। केन्द्र और राज्य सरकारों के बीच सदैव समन्वय का अभाव रहा है। हर साल हजारों करोड़ रुपया अर्धसैनिक बलों की नक्सल क्षेत्र में तैनाती पर खर्च कर दिया जाता है। अगर यही पैसा नक्सल प्रभावित राज्यों की पुलिस के आधुनिकीकरण में प्रयोग किया जाये तो परिणाम कई गुना बेहतर मिल सकते हैं। नक्सली आंदोलन अधिकारी, नेताओं और उद्योगपतियों के लिए दुधारू गाय है । वे नहीं चाहते कि ये आंदोलन खत्म हो क्योंकि इस आंदोलन के उन्मूलन के नाम पर मोटी रकम विकास के लिए आवंटित होती है। इसे यह त्रिकोण सबसे पहले चाट जाता है। पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर मोटी रकम खर्च होती है। इसे भी पुलिस, अधिकारी और नेता मिलकर डकार जाते हैं ।
आज नक्सल आंदोलन अपने मूल विचारधारा से भटक चुका है और ऊगाही (लेवी ) इस का मुख्य उद्देश्य है अगर केन्द्र और नक्सल प्रभावित राज्यों की सरकारें दुष्प्रेरित राजनीति का परित्याग कर इनके (नक्सलियों ) आय के स्रोतों पर अंकुश लगाने में सफ़ल हो पाती हैं तो मेरे विचार में “व्यवस्था परिवर्तन” का यह “ भटका हुआ आन्दोलन” स्वतः मृतप्राय हो जाएगा। मैं भारत के सर्वाधिक नक्सल पीड़ित इलाकों में से एक सारण्डा के जंगलों ( झारखण्ड ) में लगभग तीन सालों तक अपने व्यावसायिक प्रतिबद्धताओं को लेकर रहा हूं और मैं ने नक्सल आन्दोलन की आड़ में लेवी ऊगाही के इस कारोबार को काफ़ी करीब से देखा भी है एवं इस घिनौने खेल का दंश भी झेला है। खनन उद्योग से जुड़े व्यावसायिक घराने, इन ( व्यावसायिक घरानों ) के उच्च पदाधिकारियों, प्रशासनिक अधिकारियों और राजनीतिज्ञों का एक संगठित गिरोह नक्सल हितों की पूर्ति और पोषण में लिप्त है। विकास के फंड का इस्तेमाल नक्सलियों के निर्देश पर होता है। बीडीओ, सीओ, डीएम और एसपी सारे नक्सलियों के संपर्क में रहते हैं। थाना प्रभारी को अपनी जान की चिंता होती है। वो थाने से नहीं निकलते हैं। वो नक्सलियों के एरिया कमांडर से ही अपनी सुरक्षा की गुहार लगाते हैं। भयादोहन के इस खेल का संचालन सारी व्यवस्था की आंख में धूल झोंककर कैसे किया जाता है इस सच्चाई से भी मैं रू-ब-रू हो चुका हूं। खनन उद्योग से जुड़े व्यावसायिक घरानों के कुछ उच्चाधिकारियों को मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं जो नक्सलियों के कमीशन्ड एजेन्टों की तरह काम करते हैं और नक्सलियों के नाम पे भयादोहन से जिनकी पौ बारह है।
मैं श्री जयराम रमेश जी के इस कथन से कि “नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में अगले दस सालों तक खनन का कारोबार बंद कर दिया जाए” पूर्णतःसहमत हूं क्योंकि जो गठजोड़ आज नक्सलियों की रीढ़ बन चुका है उसका टूटना निहायत ही जरूरी है इनके उन्मूलन के लिए। नक्सल उन्मूलन से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण पहलू है नक्सलियों के जनाधार को कमजोर करना। नक्सलियों के स्थानीय समर्थन के कारण क्या हैं, इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है । जरूरत नक्सल प्रभावित इलाकों के स्थानीय ग्रामीणों को मुख्यधारा में लाने की है। अगर केन्द्र और राज्यों की सरकारें नक्सली प्रभाव वाले इलाकों में सही मायनों में विकास के कार्यों को निष्पादित करें तो वहां कि स्थानीय जनता में स्वतः ही ये संदेश जाएगा कि विकास से ही उनकी उन्नति के रास्ते खुलते हैं और वे मुख्यधारा से जुड़ना शुरू हो जाएंगे। फिर वे नक्सलियों की मदद करने से अवश्य ही परहेज करेंगे।
आलोक कुमार जी ने बहुत सटीक विवेचना की है. इसके लिए साधुवाद. नक्सलवाद से कुछ लोगों के स्वार्थ जुड़े हैं. नक्सलियों ने सरकार बनाई और बिगाड़ी हैं. नक्सली सेकुलर विचारों से जुड़े हैं. इसलिए उनको समर्थन भी सेकुलर बौद्धिक वर्ग से हासिल होता है. अभी केन्द्र में ही कई मंत्री ऐसे हैं जो नक्सलियों के लिए नरम रुख रखते हैं और जिन्होंने नक्सलियों के खिलाफ निर्णायक कदम से अपने पैर पीछे खींच लिए. हाँ उनके निचले स्तर के नेताओं को खामियाजा जरुर भुगतना पड़ा है. केन्द्र और राज्य की इच्छाशक्ति के बिना नक्सलवाद का खात्मा नामुमकिन है.