राजनीति

चुनाव सुधारों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता  

डॉ. बालमुकुंद पांडे 

विगत  दो दिनों से संसद के दोनों सदनों, लोकसभा (लोकप्रिय सदन/ निम्न सदन /जनता के सदन) एवं राज्यसभा (ऊपरी सदन/ राज्यों के सदन / पांडित्य सदन) में ‘ विशेष सघन पुनरीक्षण’ (SIR) को लेकर गतिरोध उत्पन्न हुआ है। दोनों पक्ष( सत्ता पक्ष एवं विपक्ष) चुनाव सुधारो पर चर्चा के लिए सहमत हो गए हैं । विशेष सघन पुनरीक्षण(SIR ) एक प्रशासनिक विषय है, जिसे  निर्वाचन आयोग ने तय किया है।

चुनाव की प्रणाली में करने योग्य उन परिवर्तनों/ बदलावों  को ‘ चुनाव सुधार’ कहते हैं, जिनके आवेदित  करने से जनता की आकांक्षाएं व अपेक्षाएं चुनाव परिणाम के रूप में आधिकारिक  परिणित होने लगे। लोकतंत्र में राजनीतिक दल  प्राणवायु के समान होते हैं, राजनीतिक दल ईंधन के रूप में कार्य करते हैं। प्रतिनिधि लोकतंत्र में राजनीतिक दल प्रतिनिधित्व का माध्यम होते हैं। राजनीतिक दलों में सत्ता का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर( पिरामिड) होता है:, अर्थात ऊपर बैठे व्यक्तियों के पास  सत्ता अधिक होती है, जो फैसला करते हैं कि आने वाले आम चुनाव  व मध्यावधि चुनाव में किसको टिकट मिले? इसी “ हाई कमान संस्कृति “ कहा जाता है! इस तरह के प्रक्रिया से व्यक्तिवाद, वंशवाद और परिवारवाद जैसे विचारधारा का विकास होता है और राजनीतिक नेतृत्व के समक्ष निर्णय करने की प्रक्रिया अधिक केंद्रित होतीहै।                                                                              

    लोकतंत्र के सशक्तिकरण को मापने के लिए ‘आंतरिक लोकतंत्र’ को अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। भारत के लोकतंत्र और निर्वाचन आयोग का दुर्भाग्य है कि इस समय निर्वाचन आयोग के पास एक कोई अधिकार नहीं है कि वह भारत के राजनीतिक दलों में ‘ आंतरिक लोकतंत्र’ की मजबूती का मूल्यांकन  कर सके। ‘ आंतरिक लोकतंत्र’ के अभाव में दलों में विचार – विमर्श नहीं हो पता है ,जिसमें स्थायित्व  की भावना नहीं आ पाती है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने वाले किसी भी राजनीतिक दल को अपने संगठन / संघ के कार्यों के रूप में औपचारिक एवं  आवधिक चुनाव कराने चाहिए ,जिससे राजनीतिक दलों में लोकतांत्रिक मूल्यों एवं आदर्शों का समावेश हो सके एवं दल के भीतर उत्पन्न निराशा एवं कुंठा का  शमन किया जा सके।

1994 में न्यायमूर्ति बी. आर, कृष्णन समिति ने सभी राजनीतिक दलों में ‘ आंतरिक लोकतंत्र’ को सुनिश्चित करने और लेखा एवं लेखा- परीक्षा हेतु कानूनी मंजूरी की मांग की थी:, इसी प्रकार विधि आयोग ने अपनी 170 वीं विधि प्रतिवेदन में “चुनाव कानूनों में सुधार’ में स्पष्ट कहा था कि, राजनीतिक दल भीतर से तानाशाही/स्वेक्षातांत्रिक और बाहर से लोकतांत्रिक नहीं हो सकते हैं।” इसके साथ ही विधि आयोग ने यह  संस्तुति किया था कि राजनीतिक दलों की संभावित सांप्रदायिक गतिविधियों या उनके अन्य संवैधानिक कार्यों का निरीक्षण करने के लिए एक अलग से “आयुक्त” की नियुक्ति की जानी चाहिए।

2002 में संविधान के कार्यों की समीक्षा करने वाली ‘ राष्ट्रीय समीक्षा आयोग’ ने चुनाव एवं चुनाव से इतर समय में पार्टी फंड के विनियमन की आवश्यकता को रेखांकित किया था । इस समिति ने राजनीतिक दलों के लेखा परीक्षा के साथ-साथ उस लेखा परीक्षा को सामान्य निरीक्षण के लिए खोलने की बात कही थी। इसके अतिरिक्त चुनाव के दौरान बढ़ते हुए जातिवाद पर लगाम लगाने के लिए कदम उठाने, दल- बदल कानून को और मजबूत करने और सामान्य जीवन में नैतिकता की स्थापना के लिए प्रयत्न की सिफारिश की थी:, हिंसा, जातिवाद, सांप्रदायिकता और क्षेत्रीयतावाद  को निजी हितों के लिए प्रयोग किया जा रहा है, जिससे हिंसक  अपराधों में वृद्धि हो रही है।

2006 में एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने केंद्रीय सूचना आयोग में अपील की कि राजनीतिक दलों के आयकर के विवरण को सार्वजनिक किया जाए। इस कार्य के लिए संगठन को 2 साल तक लंबा संघर्ष करना पड़ा और उसके बाद 2008 में केंद्रीय सूचना आयोग ने फैसला दिया कि आयकर के विवरण को सार्वजनिक किया जाए। वर्ष 2013 में जब केंद्रीय सूचना आयोग ने 6 राष्ट्रीय दलों को  “सार्वजनिक प्राधिकरण” घोषित किया, जिससे कि वह सूचना के अधिकार के अधिनियम की धारा 2( झ) के प्रभाव के परिधि में आ जाएं, इसका राजनीतिक दलों ने बहुत विरोध किया । इस योजना को बाद में  ठंडे  बस्ते में डाल दिया गया क्योंकि ऐसी खबरें उड़ने लगी थी कि सूचना का अधिकार अधिनियम को ही अनुच्छेद 123(1) के अंतर्गत संशोधित किया जाएगा। कुछ राजनीतिक दल ऐसे भी हैं जो सामाजिक या क्षेत्रीय पक्षों को लेकर चलते हैं। भारत की संघीय और बहुदलीय राजनीतिक व्यवस्था ने भी  वंशवाद या व्यक्तिगत प्रभाव के लोगों के प्रभुत्व को बढ़ावा दिया है। इसमें वित्तीय अनुदान भी महत्वपूर्ण हो जाता है ,इसलिए अनेक दलों में आंतरिक चुनाव पर ज्यादा जोर नहीं दिया जाता है। कांग्रेस पार्टी में बहुत साल बाद लोकतांत्रिक तरीके से ‘ थके हुए अध्यक्ष’ का चुनाव हुआ है।

  राजनीतिक दलों के वित्तीय आधार में सुधार की बात की जाए तो राजनीतिक चंदे के रूप में चुनावी बांड के मुद्दे पर चर्चा करने से बचा नहीं जा सकता है। चुनावी बांड से वास्तविक स्तर पर याराना पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटल ही प्रोत्साहित हुआ है। यह एक सुधारात्मक एवं  प्रगतिशील सुधार है। कंपनियां करोड़ों रुपए इधर-उधर कर सकती हैं और किसी को भनक भी नहीं लगेगी कि पैसा किसने किसको दिया? यह व्यवस्था कुछ भी हों लेकिन पारदर्शी किसी भी तरह से नहीं है। इसका परिणाम यह हुआ  है कि पूंजीपति देश चलाएंगे जो संभवत: वर्षों से करते आ रहे हैं। अभी एक कंपनी अपने फायदे का 100% किसी राजनीतिक दल को चंदे के रूप में दे सकती हैं और बदले में वह राजनीतिक दल सत्ता में आकर उस  कंपनी के अनुरूप नीतियों का निर्माण करेगा। ऐसी व्यवस्था का संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में जबरदस्त विरोध हुआ था ,जिससे  लूट प्रणाली(Spoil system)  पर काफी हद तक नियंत्रण स्थापित हुआ था। चुनाव सुधारो पर भारत सरकार ने 1990 में श्री दिनेश गोस्वामी समिति को गठित  किया  था जिसने संस्तुति  किया था कि मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को राज्य की ओर से धन  के रूप में सीमित वित्त पोषण प्रदान किया जाए। इसी प्रकार, 1998 में श्री इंद्रजीत गुप्ता समिति ने मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों और उनके उम्मीदवारों के लिए आंशिक वित्त पोषण का अनुमोदन किया था। राज्य/ व्यवस्था द्वारा दलों का यह वित्त पोषण चुनाव प्रचार के दौरान पानी की तरह पैसा बहाने की मनोवृत्ति पर नियंत्रण करेगा, जिससे राजनीति में धन- बल पर नियंत्रण स्थापित होगा।

 लोकतंत्र में चुनाव सुधार की दिशा में पहल यह  रहा है कि दागी विधायकों को अयोग्य ठहराया जाता है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 के अनुसार, कानूनन अपराधी ठहराए गए राजनीतिज्ञ चुनाव लड़ नहीं सकते हैं लेकिन जिन पर मुकदमा चल रहा है वह कितना भी गंभीर हों ,उनके चुनाव लड़ने पर कोई रोक नहीं है। 2002 में न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में चुनाव सुधार के लिए समिति गठित की गई थी  जिसका प्रतिवेदन था कि आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों या अदालत में मुकदमे का सामना कर रहे उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने व प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी। उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश श्रीमान दीपक मिश्रा ने इस विषय पर निर्णय दिया था कि न्यायालय संसद की भूमिका में नहीं हो सकती हैं । संसद इस मामले में अनुच्छेद 102(1) के अनुसार कानून बना सकती हैं । राजनीति के अपराधीकरण के विरुद्ध चुनाव आयोग पिछले दो दशकों से संघर्ष कर रहा है और आयोग लगातार इस दिशा में सफलता हासिल कर रहा है। समाचार चैनलों और सोशल मीडिया के माध्यम से ‘ प्रायोजित खबरों ‘ और ‘ झूठी खबरों ‘ से राजनीतिक परिणाम प्रभावित न हो। मतदाता सूचियों को मतदाता संपर्क के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है और गोपनीयता को लेकर चिंताएं खड़ी हो गई हैं। कैंब्रिज एनालिटिका कांड  इस संबंध में नवीनतम उदाहरण है।

चुनाव आयोग का सुधार एवं मतदाता सहभागिता बढ़ाने के लिए M – 3 इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के संशोधित  संस्करण के रूप में रिमोट इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन तैयार किया गया है जिससे शिक्षा ,रोजगार या अन्य  कारणों  से देश( राज्य) में रहने वाले व्यक्ति चुनाव में सहभागिता कर सकें। लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शी, समानता, स्वतंत्रता और न्याय की भावना को मजबूती से लागू करना तभी संभव है जब शासन में सुशासन के तत्व परिलक्षित होते हैं। लोकतंत्र को विचार या विचारों के पुंज के रूप में लागू करना होता है। अपने निजी हितों के लिए वर्तमान  विधियों को कमजोर करने और व्यवस्था को अपने अनुसार ढालने की बजाय सभी राजनीतिक दलों को अपने निजी हितों का परित्याग करके राष्ट्रीय एकता की भावना से सोच करके  बढ़ना होगा. इन्हीं प्रयासों से मजबूत लोकतंत्र का निर्माण हो सकता है।                                              निर्वाचन आयोग के अनुसार ,तेजी से शहरीकरण, रोजगार के लिए शहरों में पलायन, युवा नागरिकों( जिनकी आयु 18 वर्ष हो चुकी है ) का मतदान के योग्य होना एवं अवैध विदेशी नागरिकों के नाम मतदाता सूची में सम्मिलित होना, ऐसे बहुत से कारण है, जिसके चलते मतदाता सूची का सघन पुनरीक्षण आवश्यक है। इस प्रक्रिया के दौरान निर्वाचन आयोग यह  सुनिश्चित करता है कि किसी गैर- नागरिक का नाम मतदाता सूची में सम्मिलित ना हो सके। लोकतंत्र के मौलिक आदर्श “ एक व्यक्ति- एक मत” की सार्थकता को विशेष सदन पुनरीक्षण पूरा कर सकता है।

चुनाव सुधारों के लिए निम्न सुझाव है:- 

1.भारत में चुनाव सुधारो के लिए दहशतगर्दी एवं अपराधीकरण को रोकना; 2.राजनीतिक दलों को विभिन्न समितियों के  संस्तुतियों  के आधार पर  अद्यतन करना; 3.मतदाता जागरूकता को देशव्यापी स्तर पर प्रचारित करना; 4.चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी, निष्पक्ष एवं दबाव विहीन बनाने के लिए प्रयास करना;एवं 5. निर्वाचन आयोग  अद्यतन  सुधारों के लिए विशेषज्ञों का ‘ थिंक टैंक’ गठित करें।

डॉ. बालमुकुंद पांडे