वर्तमान में एक बहस चुनाव आयोग व केंद्र सरकार के बीच चर्चा का केंद्र बनी है, और वह है नकारात्मक मताधिकार। इस समय सर्वोच्च न्यायालय में इसके समर्थन व विरोध में बहस चल रही है।मामला यह है कि जनता को यह अधिकार दिया जाय कि उसे अपने क्षेत्र के उम्मीदवार नेता पसंद न आने पर उनके खिलाफ नकारात्मक वोटिंग कर सके और अगर नकारात्मक मतों की संख्या अधिक हो तो चुनाव रद्द कर दिया जाय। चुनाव आयोग के द्वारा तीन बार केंद्र को भेजे पत्र को नकार देने के बाद न्यायालय की शरण लेनी पड़ी। इसका विरोध पूरे सदन के नेताओं ने एक स्वर में किया, यह देश का सौभाग्य ही होगा कि सदन के सभी नेता देश के किसी मसले पर एकमत हों लेकिन यह नहीं होता, परन्तु जब भी नेताओं के योग्यता पर प्रश्नचिन्ह लगता है तो अपनी कुर्सी बचाने के लिए ये सियारों की तरह एक सुर में चिल्लाने लगते हैं क्योंकि वर्तमान नेताओं को डर है कि ऐसा हो जाने पर ये कभी सदन तक नहीं पहुच सकते।
अब ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि प्रजातंत्र की परिभाषा में यदि सभी शक्तियां जनता में समाहित है तो इस विषय में सीधे जनता को निर्णय लेने का अधिकार क्यों नहीं है। इसका फैसला करने वाले ये नेता कौन है जबकि वह भी आम जनता के द्वारा ही चुने जाते हैं। अत: इस मसले पर सीधे जनता से वोटिंग कराकर जो निर्णय आये वह मान्य हो जिसे ये सदन में बैठे नेता अपनी सुविधानुसार बदल न सके।
-रत्नेश त्रिपाठी
(लेखक शोध-छात्र हैं)