मंगलमय भावना से ओत -प्रोत होने का दिन नववर्ष

-अशोक “प्रवृद्ध”


भारतीय मान्यता के अनुसार सृष्टि के आदिकाल में वसंत ऋतु के प्रारंभ में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन सूर्योदय से ब्रह्मा ने सृष्टि रचना कार्य प्रारंभ की थी। इसीलिए चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ब्रह्मा और उनके द्वारा निर्मित सृष्टि के प्रमुख देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षस, गंधर्व, ऋषि-मुनियों, नदियों, पर्वतों, पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों, रोग- व्याधियों और उनके उपचारों का स्मरण, नमन, पूजन किए जाने की प्राचीन व विख्यात परंपरा रही है। मान्यतानुसार चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन से नया संवत्सर शुरू होता है। इसीलिए इस तिथि को नवसंवत्सर भी कहते हैं। गणितीय और खगोलीय संगणना के अनुसार इसी दिन से ग्रहों, वारों, मासों और संवत्सरों का प्रारंभ माना जाता है। चैत्र के मास में वृक्ष तथा लताएं पुष्पित, पल्लवित व प्रस्फुटित होती हैं। शुक्ल प्रतिपदा का दिन चंद्रमा की कला का प्रथम दिवस माना जाता है। जीवन का मुख्य आधार वनस्पतियों को सोमरस चंद्रमा ही प्रदान करता है। चंद्रमा को औषधियों और वनस्पतियों का राजा कहा गया है। इसीलिए इस दिन को वर्षारम्भ माना जाता है। और ब्रह्मा के सृष्टि रचना प्रारंभ किए जाने के स्मरण में उनको नमन, पूजन करते हुए नवसंवत्सर की खुशियां मनाई जाती हैं। सृष्टि रचना के प्रारम्भिक काल से चली आ रही सृष्टि पंचांग की शुरुआत भी इसी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि से होती है। सृष्टि पंचांग को ब्रह्म पंचांग भी कहते हैं। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को वर्ष प्रतिपदा अथवा उगादि अर्थात युगादि भी कहा जाता है। युगादि, युग और आदि शब्दों की संधि से बना है। यह आदि युग अर्थात काल का याद दिलाता है। उगादि के दिन ही पंचांग तैयार होता है। महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने इसी दिन से सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना करते हुए पंचांग की रचना की थी। इसे गुढी पाड़वा भी कहा जाता है। गुढी का अर्थ है- विजय पताका। मान्यता है कि इसी दिन भगवान राम ने वानरराज बाली के अत्याचारी शासन से दक्षिण की प्रजा को मुक्ति दिलाई। बाली के त्रास से मुक्त हुई प्रजा ने घर-घर में उत्सव मनाकर ध्वज अर्थात ग़ुड़ियां फहराए। इसीलिए इस दिन को गुड़ी पाड़वा नाम दिया गया। वास्तव में यह शक्ति और विजय का प्रतीक दिवस है। भारत में शक्ति संयोजन हेतु प्रकृति रूपी मातृशक्ति की उपासना का शक्ति व भक्ति का प्रतीक पर्व वासंतीय नवरात्रि का प्रथम दिवस भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ही है। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का राज्याभिषेक भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही हुआ था। द्वापर युग में युगाब्‍द अर्थात युधिष्‍ठिर संवत का आरम्‍भ तथा युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ था। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि की आध्यात्मिक व ऐतिहासिक महत्व के कारण ही सम्राट विक्रमादित्य ने विक्रमी संवत का प्रारम्भण भी इसी दिन किया था। सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन अपना दिन राज्य भी स्थापित किया था। शास्त्रसम्मत यह भारतीय कालगणना किसी संकुचित विचारधारा अथवा पंथाश्रित नहीं, वरन व्यावहारिकता व वैज्ञानिकता से परिपूर्ण है। यह राष्ट्रीय गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है। यही कारण है कि स्वामी दयानंद सरस्वती ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही कृणवंतो विश्वमआर्यम का कल्याणमयी संदेश देते हुए आर्य समाज की स्थापना की। सिखों के द्वितीय गुरू श्री अंगददेव का जन्म दिवस भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा है। सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार झूलेलाल का प्रकटन भी इसी दिन हुआ था। सम्राट  विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों और शकों को परास्त कर भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु इसी दिन का चुनाव किया था। मान्यता है कि शालिवाहन ने मिट्टी के सैनिकों की सेना में मंत्र फूंककर उनसे प्रभावी शत्रुओं (शक) का पराभव किया। इस विजय के प्रतीक रूप में शालिवाहन शक का प्रारंभ अर्थात शक संवत की स्थापना भी इसी दिन हुई। राष्ट्रीय संघ संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्म चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन हुआ था। इसी दिन महर्षि गौतम जयंती भी मनाई जाती है। भारतीय नववर्ष का प्राकृतिक महत्व भी है। वसंत ऋतु के आरंभ में वर्ष प्रतिपदा का यह काल उल्लास, उमंग, प्रसन्नता व चतुर्दिक पुष्पों की सुगंधित वातावरण से युक्त होता है। यह फसल पकने का प्रारंभ अर्थात कृषकों के परिश्रम का फल प्राप्त होने का समय होता है। आकाश पर नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं। किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिए यह शुभ मुहूर्त होता है। हर्षोल्लास से भरी इस काल में नववर्ष का स्वागत कर मानव मन प्रफुल्लित हो उठता है। इस काल में ईश्वर उपासना व अनेक प्रकार के धार्मिक कृत्य किए जाते हैं। वर्ष प्रतिपदा से आरम्भ होने वाला भारतीय नववर्ष सर्वथा उपयुक्त व सर्वस्वीकार्य है। इस समय शीत का प्रभाव समाप्त हो गया होता है। ग्रीष्म ऋतु तत्पश्चात वर्षा ऋतु का आरम्भ इसके कुछ समय बाद होता है। भारतीय नववर्ष के इस अवसर पर पतझड़ व शीत ऋतु समाप्त होकर ऋतु अत्यन्त सुहावनी हो जाती है। वृक्ष नवीन कोपलों को धारण किये नये पत्तों के स्वागत में हरे-भरे होते हैं, और सभी प्रकार के फूल व फल वृक्षों में लगे होते है। सर्वत्र फूलों की सुगन्ध से वातावरण सुगन्धित होती है। यह प्राकृतिक सौन्दर्य अत्यंत सुहावना व मौसम लुभावना होता है। अनेक विशेषताओं से युक्त चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का यह समय ही नववर्ष के उपयुक्त होता है। लेकिन विदेशी विद्वानों के पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण भारत के अनेक सत्य मान्यताओं को मान्यता नहीं मिल पाने तथा उनको नहीं अपनाये जाने की भांति ही भारतीय कालगणना को भी मान्यता नहीं दी गई और आंग्ल अर्थात ईसाई पंचांग को प्रश्रय देते गुए भारत में सरकारी स्तर पर मान्य घोषित कर दिया गया। जबकि भारतीय कालगणना की भांति ही बाद में अस्तित्व में आए पारसी, यहूदी, ईसाई व मुस्लिम मत वालों के द्वारा अपने नाम से अपनी कालगणना पद्धतियां और अनेक संवत उस समय अस्तित्व में थी। वतमान में दुनिया भर में अनेक कैलेंडर हैं और हर कैलेंडर का नव वर्ष अलग-अलग होता है। अकेले भारत में ही पचास से भी अधिक पंचांग मौजूद हैं। और कईयों का नव वर्ष अलग दिनों पर होता है। वर्तमान में हमारे देश में ग्रेगोरियन कैलेंडर पर आधारित आंग्ल संवत्सर एवं वर्ष का प्रचलन है।


उल्लेखनीय है कि अंग्रेजी संवत अस्तित्व में आने से पूर्व भारत में संवत्सर की गणना लगभग 1,960853 अरब वर्षों से होती आ रही थी, जो बहुसंख्यक हिन्दुओं द्वारा किसी व्रत, अनुष्ठान आदि किये जाते समय पुरोहित द्वारा कराये जाने वाले संकल्प मन्त्र से ज्ञात होता है। प्राचीन काल से ही भारत में सप्ताह के सात दिन, बारह महीने, कृष्ण व शुक्ल पक्ष, अमावस्या व पूर्णिमा आदि का प्रचलन था। नववर्ष वर्ष का आरम्भ भारत में चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से होता था, और आज भी यह परम्परा अनवरत व अबाध रूप से जारी है, जिसे आज भी बहुसंख्यक हिन्दू परिवार मानते हैं। भारत से ही सात दिनों का सप्ताह, इनके नाम, लगभग 30 दिन का महीना, वर्ष में बारह महीने व उनके नाम आदि कुछ उच्चारण भेद सहित देश -देशान्तर में प्रचलित हो गये थे। उन्हीं प्रचलित गणनाओं के आधार पर वर्तमान में प्रचलित आंग्ल वर्ष व काल गणना को बनाया गया है। भारतीय दिन के नाम सोमवार को आंग्ल कैलेंडर में मूनडे अर्थात चन्द्र-सोम वार व रविवार को सनडे अर्थात सूर्य वार बना दिया गया। यह मात्र हिन्दी शब्दों का एक प्रकार से अंग्रेजी रूपान्तर मात्र ही है। इसी प्रकार उन्होंने अन्य दिन व महीने का नाम तय कर उन्हें प्रचलन में लाया। अंग्रेजी संवत्सर से सृष्टि काल का ज्ञान नहीं होना, इसकी कमी का सबसे बड़ा परिचायक है, इसकी अवैज्ञानिकता का द्योतक है, जबकि भारत का सृष्टि संवत सृष्टि के आरम्भ से आज तक सुरक्षित चला आ रहा है। विज्ञान के आधार पर भी सृष्टि की आयु 1,96 अरब वर्ष लगभग सही सिद्ध होती है। इसलिए यूरोप सहित सम्पूर्ण विश्व को वैदिक सृष्टि सम्वत को ही अपनाना चाहिए था। लेकिन उन्होंने पक्षपात व कुण्ठा के कारण भारतीय काल गणना पद्धति को नहीं अपनाया। उनमें अपने मत ईसाई मत का प्रचार एवं लोगों का धर्मान्तरण करने की मंशा, इच्छा व भावना थी, इसलिए उन्होंने भारतीय ज्ञान व विज्ञान की जान- बूझकर उपेक्षा की और इसके साथ ही अपने मिथ्या विश्वासों को दूसरों पर थोपने का प्रयास भी किया। आज भी जनमानस से जुड़ी हुई शास्त्रसम्मत भारतीय कालगणना व्यावहारिकता की कसौटी पर खरी उतरती है। इसे राष्ट्रीय गौरवशाली परंपरा का प्रतीक माना जाता है। विक्रमी संवत किसी संकुचित विचारधारा या पंथाश्रित नहीं है। यह पंथ निरपेक्ष रूप का द्योतक है। यह संवत्सर किसी देवी, देवता या महान पुरुष के जन्म पर आधारित नहीं, ईस्वी या हिजरी सन की तरह किसी जाति अथवा संप्रदाय विशेष का नहीं है। भारतीय गौरवशाली परंपरा विशुद्ध अर्थो में प्रकृति के खगोलशास्त्रीय सिद्धातों पर आधारित है और भारतीय कालगणना का आधार पूर्णतया पंथ निरपेक्ष है। प्रतिपदा का यह शुभ दिन भारत राष्ट्र की गौरवशाली परंपरा का प्रतीक है। ब्रह्म पुराण के अनुसार चैत्रमास के प्रथम दिन ही ब्रह्मा ने सृष्टि संरचना प्रारंभ की। यह भारतीयों की मान्यता है, इसीलिए हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नववर्षारंभ मानते हैं। यह आत्मबोध हर भारतीयों के  अंदर नया उत्साह भरता है और नए तरीके से जीवन जीने का संदेश देता है। भारतीय नववर्ष विजय दिवस है। दूसरी ओर यह प्रथम अर्थात एक जनवरी सन 0001 का आरम्भ वर्ष ईसा मसीह के अनुयायियों द्वारा प्रचलित ईसा संवत है। उन्होंने कालगणना आरम्भ किये जाते समय सप्ताह के सात दिनों के नाम, महीनों के नाम आदि तय कर उन्हें प्रचलित किया। ईसा मसीह ईस्वी सन 0001 में पैदा हुए। उनके नाम से ही ईसा सम्वत आरम्भ हुआ। भारत में भी सम्प्रति यह ईसा संवत ही प्रचलित हो गया है। यत्र-तत्र कुछ प्राचीन वैदिक व सनातन धर्म के विचारों के लोग सृष्टि संवत व विक्रमी संवत का प्रयोग भी करते हैं, जो जारी रहना चाहिए, जिससे भावी पीढि़यां उसे जानकर उससे लाभ ले सकें। वर्तमान में नव आंग्ल वर्ष के दिन सभी मनुष्य एक दूसरे को नववर्ष की शुभकामनायें देते हैं और कहते हैं – ‘सुखी बसे संसार सब, दुखिया रहे न कोय, यह अभिलाषा हम सबकी भगवन् पूरी होय।।‘ इस बधाई देने में कोई बुराई नहीं है, और सम्पूर्ण वर्ष ही शुभकामनायें देते रहनी चाहिए। सबके सुख, शांति की कामना करनी ही चाहिए। इसीलिए तो भारतीय संस्कृति में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।’ की कामना की गई है। बहरहाल जब भी नववर्ष मनाएं, सर्व कल्याण हेतु जीवन के मंगलमय भावना से ओत- प्रोत, संयुक्त हो सकने की प्रार्थना परमात्मा से करने का संकल्प अवश्य लें।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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