नववर्ष ! तुम्हें तो आना ही था…!!​

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तारकेश कुमार ओझा

 

अरे नव-वर्ष … तुम आ गए। खैर तुम्हें तो आना ही था…। नए साल के स्वागत के मामले में अपना शुरू से ही कुछ ऐसा ही रवैया रहा है। हैप्पी न्यू इयर या हैप्पी ब र्थ डे जैसी औपचारिकताओं में मेरी  कभी कोई दिलचस्पी रही नहीं। उलटे यह सब मुझे मजाक या गालियां जैसी लगती है। जीवन के शुरूआती कुछ सालों को छोड़ अधिकांश समय मैं वर्ष – वरण या वर्ष विदाई जैसे समारोहों से खुद को दूर रखता आया हूं। यही नहीं पर्व – त्योहारों की औपचारिक शुभकामनाओं के प्रति भी मैं गहरे तक उदासीन रहा हूं। ऐसा लगतैा है मानो शुभकामनाएं देकर कोई मेरा मजाक उड़ा रहा है। लेकिन जब दुनिया इसकी मुरीद हो रही है तो कुछ न कुछ नोटिस तो लेना ही पड़ता है। उदासीन मनोभाव के बीच नववर्ष को ले मुझे छोटी – बड़ी कुछ खुशखबरी देखने – सुनने को मिल रही है। पहली खुशखबरी यह कि नया साल यानी 2017 छुटटियों की बड़ी सौगात लेकर आ रहा है। इससे एटीएम केंद्रों व बैंकों समेत सरकारी दफ्तरों में अराजकता चाहे जितनी बढ़े, लेकिन बाबुओं की मौज रहेगी। बाबू वर्ग संचित छुट्टियों को अपने – अपने खातों में जमा कर संयोग से मिलने वाली लंबी छुट्टियों से ही मौज मना पाएंगे। यही नहीं कुछ राज्योॆं में सूबों की सरकार महिला कर्मचारियों की मातृत्व अवकाश की तरह पुरुष कर्मचारियों को भी पितृत्व अवकाश देने पर विचार कर रही है। एक और राज्य की खबर देखने को मिली जिसमें बताया गया कि वहां की सरकार एक खास वर्ग के अपने कर्मचारियों को विशेष छुट्टी देने की योजना बना रही है।  चुनाव वाले देश के बड़े राज्यों में शामिल सूबे से खबर आई कि वहां के मुख्यमंत्री ने वेतन आयोग की सिफारिशें मंजूर कर ली है। समाचार में बताया जा रहा है कि इससे  राज्य सरकार पर इतने हजार करोड़ रुपयों का अतिरित्त बोझ पड़ेगा। थोड़ी देर में उस राज्य के मुख्यमंत्री को लाइव दिखाया जाने लगा।
जिसमें वे बिल्कुल फ्रैस , प्रफुल्लित और मुस्कुराते हुए नजर आ रहे हैं। समझना मुश्किल था कि जनाब अतिरिक्त बोझ बढ़ने से खुश थे या वोट बैंक में इजाफे की सुखद कल्पना से   कर्ज लेकर घी पीने की कला में माहिर मेरे एक दोस्त ने अपने किसी दूसरे दोस्त से 90 हजार रुपया उधार लिया था। मूल से ज्यादा सूद से प्यार करने वाले लेनदार ने कई बार उनके घर पर धावा बोला। लेकिन चतुर – चालाक मित्र हर बार उन्हें किसी न किसी तरह उन्हें साधते रहे। उलटे हर बार वे उन्हें 10 हजार रुपया और कर्ज देकर ऋण ली गई राशि को सम्मानजनक आंकड़ा तक पहुंचाने का सुझाव भी देते रहे। आना – जाना तो कई साल रहा लेकिन पता नहीं चल पाया कि बेचारे लेनदार को उनका पैसा वापस मिल पाया या नहीं। अपने देश में केंद्र व सूबों की सरकारों का भी यही हाल रहता है। एक तरफ सरकारें आर्थिक परेशानियों का रोना रोती रहती है वहीं दूसरी ओर विरोधाभासी नजारे भी लगातार देखने – सुनने को लगातार मिलते रहते हैं। जिसकी बानगी मुझे कुछ दिन पहले टेलीविजन पर नजरें गड़ाए रहने के दौरान देखने को मिली। चैनलों के तेवरों से मुझे यह आभास हो गया कि देश के कुछ राज्यों में होने वाले चुनाव और आने वाले नए साल के स्वागत की जोरदार तैयारियां शुरू हो चुकी हैं।। कुल मिला कर दरवाजे पर दस्तक देता नया साल अपने साथ खुशियों की सौगात लिए ही नजर आ रहा है। भले ही बाबुओं को खुश करने के चक्कर में देश – समाज की हालत कर्ज लेकर घी पीने वाले मेरे पुराने दोस्त जैसी हो। उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसे खुशनुमा माहौल में कोई गरीब – मेहनतकश  और असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों की जिंदगी से जुड़ी परेशानियों की चर्चा कर सुखद कल्पनाओं का जायका नहीं बिगाड़ेगा।
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पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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