राजनीति

नीतीश की मूल्यविहीन राजनीति और उनके परिणाम

 सिद्धार्थ शंकर गौतम

ऐसे समय में जबकि गुजरात विधानसभा चुनाव में जनता दल(यू) ने बिहार में गठबंधन से इतर नरेन्द्र मोदी के खिलाफ उम्मीदवार उतारने का ऐलान किया है, नीतीश की पाकिस्तान यात्रा सवालों के घेरे में आ गई है। ११ सदस्यीय दल के साथ पाकिस्तान पहुंचे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भले ही खुद को सेक्युलर साबित करना चाहते हों और अपनी पाक यात्रा को उन्होंने सद्भावना यात्रा का नाम दिया हो किन्तु ऐन चुनाव के वक्त उनका पाक दौरा सीधे तौर पर नरेन्द्र मोदी से संभावित टकराव को बचाना ही है। दरअसल हाल ही में पाकिस्तान से एक दल कथित बदलते बिहार की तस्वीर को देखने-समझने आया था। उस दल के समक्ष नीतीश ने पाकिस्तान आने की इच्छा जताई थी और अंततः केंद्रीय गृह मंत्रालय की संस्तुतियों के बाद उनका पाक दौरा स्वीकृत भी हो गया। यदि नीतीश के पाक दौरे में उनके कार्यक्रमों की फेहरिस्त पर नजर डाली जाए तो ऐसा एक भी राजनीति व सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं जिसे विधानसभा चुनाव के बाद नहीं निपटाया जा सकता था। फिर पाकिस्तान जाते ही नीतीश ने जिन्ना की मजार पर मत्था टेक मुसलमानों को लुभाने की असफल कोशिश की है। यह भी संभव है कि उनकी गति लौह पुरुष आडवाणी जैसी हो जाए। कुछ ऐसा ही २००३ में लालू प्रसाद यादव के साथ हुआ था। संसदीय दल के सदस्य के रूप में पाकिस्तान यात्रा के तुरंत बाद हुए बिहार विधानसभा चुनाव में लालू की लालटेन कुछ इस अंदाज में बुझी कि आज तक दोबारा नहीं जल पाई। ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि भारत का मुस्लिम समुदाय अब यह बात भली-भांति समझ चुका है कि जिन्ना की मजार पर मत्था टेकने वाले नेताओं के प्रलोभनों से उसका तो भला हो ही नहीं सकता। बात यदि बिहार के परिपेक्ष्य में की जाए तो कब्रिस्तानों की बाडेबंदी से इतर नीतीश ने मुस्लिम समुदाय के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जिसकी दम पर वे चुनाव पूर्व उनके सम्मुख आएं और शायद यही वजह है कि केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता, मुलायम सिंह का मुस्लिम प्रेम और मध्यावधि चुनाव की संभावनाओं के मध्य उन्हें जिन्ना की मजार पर मत्था टेकना अधिक सुलभ जान पड़ा। वरना पाकिस्तान जाकर नीतीश वहां की ऐसी कौन सी तरक्की देखना चाहते थे जो अपने देश में नहीं हो पाई हो? क्या यह नीतीश की राजनीतिक कलाबाजी का नायब नमूना नहीं है?

 

जेपी के छात्र आंदोलन से राजनेता के रूप में स्थापित हुए नीतीश का राजनीतिक सफ़र देखें तो भान होता है कि उन्होंने कभी मुद्दों को लपकने और उन्हें बीच मझदार छोड़ने में कोताही नहीं बरती है। अपने समकालीन राजनेताओं की तुलना में नीतीश यदि आज प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं तो उसके पीछे उनका गिरगिट की तरह रंग बदलना ही है। वर्तमान में यदि भाजपा की ओर से मोदी को राष्ट्रीय फलक पर स्थापित किया जाता है तो नीतीश को हाथ का साथ थामने में देर नहीं लगेगी। बांटो और राज करो की नीति का सुफल आजमा चुके नीतीश ने गुजरात की बजाए पाकिस्तान जाने का निर्णय बड़ी दूरदर्शिता से लिया है। दरअसल गुजरात में जद (यू) प्रत्याशियों के चुनावी रण में उतरने से भाजपा या कांग्रेस के वोट बैंक पर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। यदि नीतीश अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के पक्ष में प्रचार करने जाते तो उन्हें जितवाने का दारोमदार भी उनके सर माधे होता। फिर जितना ज़हर वे मोदी के विरुद्ध उगलते; बिहार में भाजपा-जद(यू) गठबंधन के बीच रार उतनी ही बढ़ती। हाल ही में मोदी के पटना दौरे पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने जिस गर्मजोशी से उनका स्वागत किया उससे भी नीतीश की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक ही थे। ऐसे में नीतीश गुजरात जाकर मोदी से अपनी अदावत को बढ़ावा देकर मीडिया और पार्टी की नजरों में बतौर खलनायक ही स्थापित होते। उनकी महत्वाकांक्षाओं के जग-जाहिर होने से उनकी सत्ता-लोलुप छवि उभरकर आती जिसका नुकसान उन्हें और फायदा मोदी को होता। कुल मिलकर संभावित राजनीतिक टकराव व वैचारिक द्वंद्व से बचने के लिए पाकिस्तान की यात्रा पर गए नीतीश कुमार ने स्वयं को सुरक्षित कर लिया किन्तु एक अहम सवाल को जन्म दे दिया है कि इस तरह की रंगबदलू राजनीति कर यदि वे सत्ता शीर्ष तक पहुंच भी गए तो जनता की नजरों में उनकी छवि नहीं बदलने वाली। फिर नीतीश को यह भी सोचना होगा कि राजनीति अब बदलाव के मुहाने पर खड़ी है और किस एक जाति, धर्म या सम्प्रदाय का वोट बैंक जीत की राह को पुख्ता नहीं कर सकता। आने वाले समय में हो सकता है राजनीतिक शुचिता के चलते छल, कपट और जाति आधारित राजनीति पर लगाम लग जाए। तब उस सूरत में नीतीश की राजनीति का सूरज डूबना तय है क्योंकि मूल्यविहीन राजनीति पर कभी न कभी कुठाराघात तो होता ही है।