राजनीति

विभाजीय राजनीति से बचे भारत – नरेश भारतीय

जयपुर में हुए अपने चिंतन शिविर में राहुल गाँधी को और आगे बढ़ाने का उपक्रम और उनके नेतृत्व में आगामी लोकसभा चुनाव जीतने का स्वप्न देखना कांग्रेस के नेताओं और उनके समर्थकों का हक है. उनके द्वारा तदर्थ अपनी चुनावी रणनीति का निर्धारण समझ में आता है. लेकिन उसी उतावली में उनके द्वारा की गई कुछ बयानबाजी निश्चित ही समाज में विभाजन विखंडन उत्पन्न करने वाली प्रतीत हुई. देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का यह बयान कि राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक और भारतीय जनता पार्टी अपने प्रशिक्षण शिविरों में हिंदू आतंकवाद को बढ़ावा देते हैं’ एक गैरज़िम्मेवाराना और आपत्तिजनक बयान ही माना जा सकता है. आम जनता की दृष्टि में, संघ और भाजपा दोनों ही लंबे समय से प्रतिष्ठित राष्ट्रवादी संगठन हैं, जिन्हें व्यापक समर्थन प्राप्त है. कोई उनका समर्थक हो या न हो लेकिन उनकी सामान्य जन विश्वसनीयता पर शक की कोई गुंजायश नहीं है. इस पर भी कांग्रेस के नेता इन दोनों राष्ट्रवादी संगठनों के विरुद्ध ‘हिंदू या भगवा आतंकवाद’ को बढ़ावा देने का आरोप थोप कर किसके हित में क्या सिद्ध करने के प्रयास में रहते हैं?

देश की आंतरिक राजनीतिक रस्साकशी कैसा भी रुख ले ले इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता. लेकिन इस तरह का बयान देश की ऐसी पार्टी के नेताओं के द्वारा दिया जाना जो सत्ता में है बाहरी विश्व को यह सन्देश देता प्रतीत हुआ, कि जिस आतंकवाद के खतरे को अब सारी दुनियां जानती और पहचानती है और उससे जूझ रही है, भारत का सत्ताधारी दल उसे पहचानने से झिझक रहा है. विश्व भर में कोई कभी भी इस कांग्रेस जनित अवधारणा को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होगा कि वह हिंदू आतंकवादी हो सकता है जो ‘सर्वे भवन्तु सुखिना’ का मंत्र जपने वाला और विश्व शांति की सतत कामना करने वाला हिंदू है. जो देश और विदेश में सर्वत्र भारत के सांस्कृतिक सत्य सर्व धर्म-पंथ सद्भाव के शांति ध्वज को लिए विचरता है. प्रबुद्ध विश्व के देश अब बखूबी जानते हैं कि संघ और भाजपा भारत के राष्ट्रवादी संगठन हैं और भारत की ऐसी ही हिंदू सांस्कृतिक मान्यताओं के पक्षधर हैं. ऐसे हिदू राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादियों को आतंकवाद के साथ जोड़ना बेतुका है और सरासर गलत है.

कांग्रेस सत्ता में बने रहने के लिए तरह तरह से प्रयत्नशील हो रही है. प्रकटत: भारत के बदलते जन मन मत को महसूस करते हुए, उसे आगामी शक्ति परीक्षण में, सत्ता उसके हाथों से खिसकती नज़र आती है. देश की आम जनता हाल में एक के बाद एक हुए ऐसे खुलासों से अनभिज्ञ नहीं है जो कांग्रेस सरकार को उसकी दृष्टि से कटघरे में खड़ा करते हैं. व्यापक भ्रष्टाचार, पाक प्रायोजित आतंकवाद को रोकने में उसकी असमर्थता और बढ़ती महंगाई. चुनावों के अखाड़े में एक मुख्य दल के रूप में उसके मुकाबले में खड़े हैं भाजपा और उसके सहयोगी दल. भाजपा नेता इन मुद्दों को उठाना चाहते है, उठा रहे है. लेकिन मुद्दों पर बहस और उनके समाधान पर ध्यान केंद्रित करने की बजाए यदि परस्पर कीचड़ उछालने वाली राजनीति को प्रोत्साहन मिलने लगेगा तो इससे भारत के सुखद भविष्य की तस्वीर नहीं उभरती.

भारत की जनता अपने आस पास और देश की सीमाओं पर जिहादी आतंकवादियों के द्वारा की जा रहीं जघन्य हत्याओं को होते देखती सुनती है. बखूबी जानती है कि कौन आतंकवादी है और कौन नहीं? उसे भारत में बार बार होते आतंकवादी हमलों के दोषियों और उनकी पीठ पर हाथ रखने वालों दोनों की पहचान की वैसी ही सूझबूझ है जैसी आज शेष विश्व को है? लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि कांग्रेस जो देश को आज़ादी दिलवाने का सेहरा बार बार मात्र अपने ही सिर पर बांध कर, गाँधी नेहरु के नाम पर, चुनावों के मैदान में उतरते हुए जनता से समर्थन की अपेक्षा करती है, आज मुद्दों की राजनीति नहीं, अपितु सामाजिक विभाजन विखंडन की राजनीति करने की भूल कर रही है. अल्पसंख्यक मुस्लिम वोट बैंकों को सुरक्षित करने की चेष्ठा में संघ जैसे राष्ट्रवादी सामाजिक संगठन पर कथित ‘हिंदू आतंकवाद’ को बढ़ावा देने का मनघडंत और आधारहीन आरोप लगा कर भ्रम निर्माण करने की उसकी कोशिश विभाजनकारी है. चुनावों में यह कांग्रेस के लिए ही विपरीत परिणामकारी सिद्ध नहीं होगी बल्कि इससे समाजिक समरसता के सबके संकल्प को भी धक्का पहुंचेगा.

श्री शिंदे के इस विवादित बयान के तुरंत बाद संघ और भाजपा के द्वारा इसका त्वरित विरोध अवश्यम्भावी था. भाजपा नेताओं ने इसके लिए कांग्रेस के शिखर नेतृत्व से न सिर्फ माफ़ी मांगने के लिए कहा, बल्कि, गृहमंत्री के त्यागपत्र की मांग भी की. इस पर कांग्रेस में हलचल मची, बेशक इस पर भी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रवक्ताओं ने एक के बाद एक श्री शिंदे के बयान के समर्थन में बोलना जारी रखा जिससे यह स्पष्ट होता चला गया कि यह कांग्रेस पार्टी के शिखरस्थ नेताओं की पूर्ण सहमति के साथ फैंका गया चुनावी पैंतरा था. निश्चित ही यह चुनाव अभियानों में चर्चा का केंद्र बिंदु बन सकता है. यदि ऐसा होता है तो इससे कांग्रेस का यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि इतने भर से वह मुसलमानों का विश्वास जीत लेगी जो हाल के वर्षों में उससे दूर भागते चले गए हैं. नासमझी वाली बयानबाज़ी की प्रतिक्रिया में हिंदू भी यदि कांग्रेस के विरुद्ध जाने लगे तो विस्मय नहीं होगा.

स्थिति के इस पक्ष की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती कि कांग्रेस के प्रवक्ताओं के द्वारा की जाने वाली इस तरह की बयानबाज़ी जहां कांग्रेस की माजूदा मुद्दा विहीनता पर से पर्दा उठाती है वहाँ देश की अन्तर्बाह्य सुरक्षा के लिए भी खतरा उत्पन्न कर सकती है. श्री शिंदे के इस कथित बयान के तुरंत बाद भारत विरोधी और आतंकवाद समर्थक संगठन जमात-उद-दावा के अध्यक्ष हाफिज सईद की यह टिप्पणी कि ‘भारत को एक ऐसे देश के रूप में क्यों न घोषित किया जाए जो अपनी धरती से आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा है’ चौकाने वाला टिप्पणी है.

यह एक ऐसा नाज़ुक वक्त है जब समूचा विश्व आतंकवाद को सिर्फ ‘इस्लामी आतंकवाद’ के नाम से जानता और पहचानता है. जानता है कि इसका केन्द्र स्थल पाकिस्तान है. इस जिहादी आतंकवाद के प्रतिपादक स्वयं इसे इस्लाम के नाम पर आत्मघाती बम हमले करके जतलाने की पहल करते हैं. गत दिनों, उत्तरी अफ्रीका के देश माली में कट्टरपंथी इस्लामी तत्वों के द्वारा सत्ता पलटने के प्रयास को रोकने के लिए फ़्रांस की सहायता ली गई. अल्जीरिया में इसकी प्रतिकियास्वरूप एक गैस कारखाने में कार्यरत ब्रिटिश और अन्य यूरोपीय नागरिकों का अलकायदा से जुड़े आतंकवादियों ने अपहरण किया. कुछ ब्रिटिश नागरिकों की हत्या कर दी गई. ब्रिटेन की सरकार तुरंत हलचल में आई. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरोन ने उत्तर अफ्रीका में अल कायदा के विरुद्ध युद्ध का नया मोर्चा कायम करने की घोषणा कर दी. उनके शब्द हैं ”हमें अल कायदा से जुड़े एक कट्टरपंथी, इस्लामी आतंकवादी संगठन का सामना करना है. ठीक उसी तरह जिस तरह से हमें पाकिस्तान और अफगानिस्तान में करना पड़ा है”. सच्चाई समझने और कहने में झिझक नहीं. निर्णय लेने में कोई उहापोह नहीं, करणीय को करने में देरी नहीं. लेकिन भारत में गम्भीर से गम्भीर आतंकवादी हमले के बाद उहापोह दिखाई देती है. संसद भवन पर हमले के दोषियों को फांसी की सजा सुना दिए जाने पर भी फांसी नहीं दी जाती.

माना कि देश में इसलिए बहसें उभरतीं हैं क्योंकि लोकतंत्र है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी पार्टी और उसके नेता सामान्य समाज और भारत राष्ट्र पर अपने अदूरदर्शी वक्तव्यों के दूरगामी परिणामों की चिंता किए बिना निजी या पार्टी के हित साधन के लिए इस स्वतंत्रता का दुरूपयोग करें. ऐसी किसी भी बयानबाजी करने से बचने की आवश्यकता है जो वोट बैंक खड़े करने के लिए भले ही उन्हें लुभाती होगी, लेकिन ऐसी बयानबाजी देश के दुश्मनों को बहुत सुहाती है. ऐसे आतंकवाद को प्रोत्साहन देती है जिसके विरुद्ध आज समस्त विश्व खड़ा हो रहा है. आतंकवाद जिसने मज़हब के नाम पर अनेक देशों में दहशत फैलाई है. भारत लगातार इसी जिहादी आतंकवाद का निशाना बनता आ रहा है. निस्संदेह, ऐसी स्थितियों में जहां यह जरूरी है कि देश में सामाजिक एकता और धार्मिक-सांस्कृतिक समरसता का वातावरण पुष्ट रहे वहीँ यह भी जरूरी है कि वोटों के लालच में समाज में एक समुदाय को दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने की विभाजीय राजनीति से जिम्मेदार राजनीतिक दल देश को दूर रखें.

भारत के नेतृत्व को समय की आवश्यकता पर ध्यान देने और विपक्ष के साथ परस्पर सहयोग से आतंकवाद जैसे महारोग से निपटने की तत्परता दिखाने की आवश्यकता है. चुनावी रणनीति अपनी जगह है और उनमें आतंकवाद से निपटने का मुद्दा अवश्य उभरना चाहिए. इस बीच यदि कांग्रेस देश में सम्भ्रम उत्पन्न करने वाले अपने हालिया बयान को वापस लेते हुए अपनी भूल स्वीकार कर लेती है तो अच्छा होगा. अन्यथा इस मुद्दे पर सामाजिक विभाजन को जन्म देने का दोष इतिहासकार कांग्रेस को ही देंगे जो अल्पसंख्यकों का समर्थन पाने की चेष्ठा में सुध बुध खोती दिखाई दी है. फ़िलहाल सत्ता में रहते कांग्रेस को और भविष्य में फिर उसे या उसके विकल्प भाजपानीत गठबंधन को इस पर ध्यान देने की आवश्यकता महसूस होगी कि उस आतंकवादी शैतान को कबी करे जो सीमा पार से आकर, भारतीय सैनिकों की हत्या करके और उनके सिर काट कर भारत का अपमान करने का दु:साहस दिखाते हैं. यह तभी होगा जब देश का हर नेतृत्व समाज में एकजुटता बनाए रखने की तत्परता और विवेक बनाए रखे.