मनमोहन सरकार के बहुप्रतीक्षित फेरबदल का आखिरकार पटाक्षेप हो ही गया। हालांकि जैसी उम्मीद थी कि बार युवा व उर्जावान नेतृत्व को मंत्रालयों की कमान सौंपी जाएगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। कुल २२ मंत्रियों को शपथ दिलाई गई जिनमें से ७ नए कैबिनेट मंत्रियों सहित १५ राज्यमंत्री शामिल हैं। इनमें से २ स्वतंत्र प्रभार वाले मंत्री भी शामिल हैं। चूंकि सरकार की गिरती साख तथा घटती लोकप्रियता के चलते मंत्रिमंडल में फेरबदल अवश्यंभावी था किन्तु इससे २०१४ के आम चुनाव में कितना और क्या फायदा होगा कुछ तय नहीं है? ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है कि जिन मंत्रियों को शपथ दिलाई गई है उनमें से अधिकांश राष्ट्रीय स्तर तो क्या अपने गृहराज्य में भी अनजान ही हैं। वहीं कई राज्यों को उम्मीद से अधिक प्रतिनिधित्व दिया गया है और बाकी के हाथ खाली ही रह गए हैं। उदाहरण के लिए आंध्रप्रदेश से इस बार रिकॉर्ड १० मंत्रियों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। गौरतलब है कि पीवी नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्रित्व काल में भी आन्ध्र से मंत्रियों का कोटा ७ पर सिमट गया था किन्तु मनमोहन सरकार ने न जाने किस रणनीति के तहत एक राज्य को इतना महत्व दे दिया? हो सकता है पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को ३३ सीटें जिताने का ईनाम आन्ध्र को मिला हो या यह भी संभव है कि वाईएसआर रेड्डी के पुत्र जगन मोहन रेड्डी की बढती सियासी ताकत को कमतर करने के लिए कांग्रेस ने यह पैंतरा चला हो? पर सवाल जस का तस है, क्या इससे केंद्र सहित आंध्र में कांग्रेस को मजबूत करने के प्रयास सफल होंगे? आन्ध्र की ही राजनीति पर नज़र डालें तो चिरंजीवी को छोड़ किसी भी अन्य नए मंत्री का प्रोफाईल इतना मजबूत नहीं है जिसे गंभीरता से लिया जाए। हालांकि चिरंजीवी की राजनीतिक पकड़ पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता पर चूंकि वे दक्षिण भारत के लोकप्रिय अभिनेता हैं और लोगों के बीच उनकी एक पहचान है लिहाजा उनपर दांव लगाना कांग्रेस के लिए आंशिक रूप से फायदेमंद भी हो सकता। किन्तु अन्य ९ मंत्रियों का क्या? क्या वे आन्ध्र में कांग्रेस की डूबती नांव को बचाने का माद्दा रखते हैं? क्या पृथक तेलंगाना मांग के चलते उनका कांग्रेस के पक्ष में और पृथक तेलंगाना मांग के विरोध में उतरना संभव है? क्या रायलसीना क्षेत्र से जुड़े रेड्डी समर्थकों को मात देना कांग्रेस कोटे के मंत्रियों के लिए आसान होगा? कदापि नहीं। तब तो यही समझा जाए कि मनमोहन मंत्रिमंडल विस्तार में अदूरदर्शिता के साथ ही राजनीतिक अपरिपक्वता का परिचय दिया गया है। यही हाल केरल से जुड़े मंत्रियों का है। इस प्रदेश को भी मंत्रिमंडल में मिला प्रतिनिधित्व चौंकाता है।
वहीं दूसरी ओर हिंदीभाषी प्रदेशों मसलन उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान इत्यादि की उपेक्षा कांग्रेस को निश्चित रूप से भारी पड़ने वाली है। यहां तक कि झारखंड से भी प्रदीप बालमुचू जैसे नेता को निराशा हाथ लगी है जबकि उनके नाम पर लगभग सहमती बन ही चुकी थी। हां, संप्रग सरकार की अहम सहयोगी तृणमूल कांग्रेस के सरकार से सम्बन्ध विच्छेद के बाद पश्चिम बंगाल को ज़रूर वरीयता क्रम में ऊपर रखा गया। यहां तक कि ममता की कट्टर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी दीपदास मुंशी को कैबिनेट मंत्री का पद सौंप कर सरकार ने ममता को यह संदेश दिया है कि वह डैमेज कंट्रोल करने के साथ ही प्रतिद्वंद्वियों के पर कतरना भी जानती है। पर मनमोहन सरकार के मंत्रिमंडलीय विस्तार को देखते हुए घोर निराशा होती है कि जिन मंत्रियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे या जो अपनी बदजुबानी के लिए कुख्यात थे, उन्हें ससम्मान पदोन्नति देकर सरकार ने यह जाता दिया है कि विपक्ष सहित आम जनता भले ही भ्रष्टाचार पर मुखर हो, सरकार पर उसका कोई असर नहीं होने वाला। देखा जाए तो मनमोहन मंत्रिमंडल के संभवतः अंतिम फेरबदल ने यह तो साफ़ कर दिया है कि सरकार सहित कांग्रेस को भी वर्तमान राजनीतिक अस्थिरता के दौर में कुछ सूझ नहीं रहा है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी की छाप कहे जाने वाले इस विस्तार में ऐसा कुछ नहीं है जिसकी दम पर सरकार चेहरा बदलने की कवायद को आगे तक ले जा सके। भारी दबाव व अनिश्चितता के चलते लिए गए फैसले हमेशा आत्मघाती होते हैं और कुछ ऐसा ही मनमोहन सरकार के साथ होने की भी संभावना है। और तो और इसकी बाकायदा शुरुआत भी हो चुकी है। पूर्व पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी से लेकर एनसीपी कोटे की अगाथा संगमा तक नाराज हैं और सरकार पर आरोपों की झड़ी लग रही है। वैसे भी यह विस्तार संप्रग सरकार का न होकर कांग्रेस का ही रह गया है क्योंकि इसमें सहयोगी पार्टियों को कोई तवज्जो नहीं दी गई है। कुल मिलकर साख और चेहरा चमकाने की नीयत से किया गया मंत्रिमंडलीय विस्तार सरकार के मुंह पर कालिख पोतने की रूपरेखा रच रहा है जिसकी कालिमा का असर देर-सवेर हो ही जाएगा।
सिद्धार्थ शंकर गौतम