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१४ नवंबर, संकल्प दिवस पर विशेष : चीन से भारत भूमि छुडाने का संकल्प

१४ नवंबर की महत्ता दो कारणों से है । पहला इसे भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की जन्मतिथि के रुप में मनाया जाता है । दुसरी महत्ता इसलिए है कि भारत की संसद ने अब तक के सबसे महत्वपूर्ण प्रस्तावों से एक प्रस्ताव इसी दिन पारित किया था । साम्राज्यवादी चीन ने तिब्बत को निगलने के बाद १९६२ में भारत पर हमला कर कई हजार वर्ग मील जमीन पर कब्जा जमा लिया । भारतीय संसद ने १४ नवंबर १९६२ को सर्वसम्मति से संकल्प प्रस्ताव पारित कर कहा था कि भारत की संसद प्रतिज्ञा करती है कि जब तक चीन से एक – एक इंच जमीन वापस नहीं ले लेते तब तक चैन से नहीं बैठेंगे ।

इस संकल्प को प्रस्ताव कराने के पीछे का उद्देश्य चीन के कब्जे में मातृभूमि के उस हिस्से को पुनः प्राप्त करना तथा चीन ने भारत के साथ किस तरह विश्वासघात किया था उसे आने वाली पीढी व शासकों को यह याद दिलाना था ।

चीन द्वारा भारत पर आक्रमण के कुछ दिन बाद ही १४ नवंबर १९६२ के दिन भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से इस संकल्प प्रस्ताव को पारित किया था । यह संकल्प प्रत्य्ोक नागरिक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है ।

संसद द्वारा पारित इस प्रस्ताव के अनुसार “ इस संसद को इस बात का गहरा दुख है कि चीन की जनवादी सरकार ने भारत के सदाशयतापूर्ण मैत्री व्यवहारों की उपेक्षा करके दोनों देशों के बीच पारस्परिक स्वाधीनता, तटस्थता और एक दूसरे के मामलों मंे हस्तक्षेप न करने के सिद्धांत एवं सह अस्तित्व की भावना के समझ्ाौते को न मान कर पंचशील के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है । इसके बाद चीन ने अपनी विशाल सेना लेकर पूरी तैयारी के साथ भारत पर आक्रमण किया ।

यह संसद हमारी सेनाओं के जवानों और अधिकारियों के शौर्यपूर्ण मुकाबले की सराहना करती है €जिन्होंने हमारी सीमाओं की रक्षा की है । सीमा सुरक्षा में अपने प्राणों की बलि देने वाले वीरगति प्राप्त शहीदों को हम श्रद्धांजलि देते हैं और मातृभूमि की रक्षा के लिए दी गई कुर्बानी के लिए नतमस्तक होते हैं । यह संसद भारतीय जनता के सक्रिय सहयोग की प्रशंसा करती है, जिसने भारत पर चीनी आक्रमण से उत्पन्न संकट तथा आपात स्थिति में भी बडे धैर्य के साथ काम लिया । संसद हर वर्ग के लोगों के उत्साह और सहयोग की प्रशंसा करती है. जिन्होंने आपातकालीन स्थितियों का डट कर मुकाबला किया । भारत की स्वाधीनता की रक्षा के लिए लोगों में एक बार फिर स्वतंत्र्ाता, एकता और त्याग की ज्वाला फूटी है ।

विदेशी आक्रमण के प्रतिरोध में हमारे संघर्ष के क्षणों में जिन अनेक मित्र्ा राष्टनें की सहायता हमें प्राप्त हुई है, उनकी इन नैतिक एवं सहानुभूतिपूर्ण संवेदनाओं के प्रति यह संसद अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करती है ।

संसद आशा और विश्वास के साथ प्रतिज्ञा करती है कि भारत की पवित्र्ा भूमि से हम आक्रमणकारियों को खदेडकर ही दम लेंगें । इस कार्य में हमें चाहे कितना समय क्यों न लगाना पडे या इसका कितना भी मूल्य्ा चुकाना पडे, हम चुकाने के लिए तैयार हैं। “

भारतीय संसद द्वारा इस संकल्प प्रस्ताव को पारित हुए ४७ साल बीत चुके हैं । लेकिन शायद अब लगता है कि भारत के शासक अब उस प्रस्ताव को भुल गये हैं । ४७ साल एक लंबा समय होता है । इतने सालों में भी भारत ने चीनी ड्रैगन से अपनी भूमि छुडाने का कोई सार्थक प्रयास नहीं किया है ।

आम तौर पर देखा जाता है कि सरकार राष्टन् हित से जुडे मुद्दों पर जागरुकता लाने का प्रयास करती है । इसके लिए समाचार पत्रों में विज्ञापन देने से लेकर संगोष्ठियां व अन्य विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करती है । लेकिन लगता है कि इस संकल्प प्रस्ताव को लेकर सरकार देशवासियों को जागरुक करने के बजाय भुलाना चाहती है । देशवासियों के मानस पटल से इस संकल्प को मिटाने का प्रयास हो रहा है ।यह अत्यंत खतरनाक है ।

वैसे एक बात और है । भारत में कुछ ऐसे लोग हैं जो भारत में रह कर चीन का गुणगान करते हैं । वास्तव में ऐसे लोग नीति निर्धारण को प्रभावित करते हैं । भारतीय इस मुद्दे को भूल जाएं, यह लोग हमेशा से ही इसके लिए प्रयासरत रहते हैं । चीन के समर्थन में लंबे लंबे लेख लिखते रहते हैं, गोष्ठियां आयोजित करते रहते हैं । इस तरह के लोगों की शिनाख्त बडा जरुरी है । घर के अंदर जो लोग बैठ कर चीन के पक्ष में वातावरण तैयार कर रहे हैं उनकी पहचान होने के बाद अपनी भूमि को वापस लेने में हमें सहायता मिलेगी ।

जिन दिनों चीन ने तिब्बत पर आक्रमण किया था तब पंडित नेहरु मूकदर्शक बने रहे । वह आदर्शवादिता में डूबे रहे । भारत में हिन्दी- चीनी भाई -भाई के नारे लगाये जा रहे थे तब चीन सीमा पर भारत पर हमले की तैयारी में जुटा था । भारत में पंचशील के गीत गाये जा रहे थे उधर लदाख में चीन अपनी सडक बनाने में व्यस्त था । आदर्शवादिता के कारण पंडित नेहरु धोखे में रहे । जब चीन ने तिब्बत पर हमला किया तब भारत को सचेत हो जाना चाहिए था । हमने तब इसका विरोध नहीं किया बल्कि एक तरह से हमने तिब्बत को चीन को सौंप दिया । सरदार पटेल, डा राम मनोहर लोहिया, माधव सदाशिव राव गोलवलकर. जय प्रकाश नारायण जैसे राष्टन्वादियों ने तत्कालीन भारत सरकार के रुख का उस समय विरोध किया । लेकिन पंडित नेहरु पर इसका कोई असर नहीं हुआ । लेकिन जब चीन ने भारत पर ही हमला कर दिया तब उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ । लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी । तब तक कई हजार वर्ग मील जमीन पर चीन का कब्जा हो चुका था । पंडित नेहरु को अपनी गलती का अहसास हुआ और शायद उन्होंने इसका प्रायश्चित करने के लिए अपने जन्म दिवस पर ही चीन से मातृभूमि की प्रत्येक इंच जमीन वापस लेने संबंधी संकल्प प्रस्ताव संसद में पारित करवाया ।

लेकिन इसके बाद सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न आता है । इस संकल्प प्रस्ताव को पारित हुए ४8 साल बीत चुके हैं । हम आज भी वहीं खडे हैं जहां ४8 साल पहले खडे थे । वैसे देखा जाए तो इस प्रस्ताव की महत्ता आज और भी बढ जाती है । भारतीय भूमि आज भी चीनियों के कब्जे में हैं । संसद ने तो संकल्प प्रस्ताव पारित कर दिया है । लेकिन इस पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है ।

पंडित नेहरु तो धोखे में थे । लेकिन हम आज जान बूझ कर धोखे का शिकार क्यों हो रहे हैं । विस्तारवादी चीन ने भारत की जमीन छोडना तो दूर अरुणाचल प्रदेश पर ही दावा जताना प्रारंभ कर दिया है । चीन द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ बढती जा रही है । सेना व सीमा सुरक्षा बल के वरिष्ठतम अधिकारियों तक ने इस बात को स्वीकार किया है । लेकिन भारत सरकार इसका जवाब ढंग से नहीं देती ।

ऐसी स्थिति में संसद द्वारा ४७साल पुराना संकल्प प्रस्ताव और भी प्रासंगिक हो जाता है । लेकिन इस पूरे मामले में भारत सरकार का क्या दृष्टिकोण है यह पिछले साल की एक घटना के बाद और भी स्पष्ट हो जाता है । चीन ने तिब्बत के आध्य्ाात्मिक धर्म गुरु परम पावन दलाई लामा के तवांग यात्रा पर विरोध किया । भारत सरकार ने दलाई लामा जी को तवांग जाने की अनुमति तो दी लेकिन जिस ढंग से विदेशी पत्रकारों को वहां जाने की अनुमति नहीं दी गई तथा स्वयं दलाई लामा पर जो अंकुश लगाय्ो गये उससे भारत सरकार की चीन के सामने नपुंसकतापूर्ण नीति को स्पष्ट करता है । भारत सरकार के इस तरह की नीति से प्रत्येक भारतीय का सिर शर्म से झुक जाता है ।

जो सरकार चीन के भय से विदेशी पत्रकारों को दलाई लामा जी के कार्यक्रम में भाग लेने की अनुमति न दे वह चीन में अपनी भूमि वापस लेने के लिए किया संकल्प को कितना पूरा कर पायेगी इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है । परंतु यह संकल्प सरकार का संकल्प नहीं है । यह संकल्प भारत की जनता का है और भारत की जनता अपने संकल्पों की पूर्ति के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है । इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मिलते है ।