उमर अब्दुल्ला ने उठाया दादा के ज़माने का विलय का पुराना तानपूरा

umar डा० कुलदीप चंद अग्निहोत्री

             जम्मू कश्मीर राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने २५ मार्च २०१३ को राज्य विधान सभा में कहा कि जो लोग चिल्लाते रहते हैं कि जम्मू कश्मीर भारत का अटूट अंग हैं वे भूल जातें हैं कि राज्य का भारत में विलय केवल तीन विषयों , सुरक्षा , संचार और विदेश सम्बंधों को लेकर हुआ था । वैसे उन्होंने अपने भाषण में मुद्रा को भी इन्हीं विषयों में शामिल किया । जबकि असल में विलय पत्र में मुद्रा का कोई ज़िक्र नहीं था । परन्तु इसमें उमर का कोई दोष नहीं है क्योंकि इस घराने के लिये विलय का अर्थ व्यावहारिक रुप से मुद्रा ही है । यही कारण है कि राज्य में भ्रष्टाचार शासक दल की नीति का अंग बन चुका है । 
           उन्होंने कहा कि   कश्मीर के राजनैतिक मुद्दे के आन्तरिक और बाहरी दोनों ही पहलू हैं और यह मुद्दा अभी हल नहीं हुआ है । यदि हम यह कहते हैं कि इस को पाकिस्तान और हिन्दुस्तान आपस में बैठकर सुलझाएँ , या फिर इस मुद्दे के अन्दरूनी पक्ष को केन्द्र और राज्य आपस में सुलझाएँ तो ऐसा कहने पर क्या हम भारतीय नहीं रह जाते ? बार बार अटूट अंग कहने से आप राज्य की समस्या से मुँह नहीं मोड़ सकते । जम्मू कश्मीर के राजनैतिक पक्ष को सुलझाने के लिये अलग अलग पार्टियों की ओर से अलग अलग सुझाव दिये गये हैं । जैसे स्वायत्तता , स्वशासन , इन्दिरा शेख समझौता इत्यादि । आख़िर इन पर विचार करने से ही जम्मू कश्मीर समस्या का कोई हल निकलेगा । इसके बाद भी जनाब उमर साहिब ने( खुदा उन्हें उम्र दराज़ करे) लम्बा चौड़ा भाषण दिया , लेकिन यहाँ उसका प्रसंग नहीं है क्योंकि उस भाषण के तात्विक अंश यही थे । 
                 सबसे पहले तो पूछा जा सकता है कि उमर को किसने कहा कि वे भारतीय नहीं हैं ? अपने भाषण में उन्होंने इसका उल्लेख भी नहीं किया । फिर आख़िर उन्होंने यह प्रश्न क्यों उठाया कि उनके भारतीय होने पर उँगलियाँ उठाई जा रही हैं ? यदि वे भारतीय न होते तो जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री कैसे बन सकते थे ? उनके पिता जनाब फ़ारूख अब्दुल्ला साहिब भारत सरकार के मंत्री कैसे रह सकते थे ? उनकी व्यथा शायद जम्मू कश्मीर को भारत का अटूट अंग कहने से पैदा हुई है । इसका उन्होंने परोक्ष रुप से इज़हार भी किया है । उनका कहना है कि जम्मू कश्मीर का विलय भारत में केवल तीन विषयों को लेकर हुआ है । उमर यहाँ या तो सचमुच भूल कर रहे हैं या फिर राजनैतिक पैंतरेबाज़ी का प्रदर्शन कर रहे हैं , जो सुबरा के इस अब्दुल्ला ख़ानदान की पुरानी फ़ितरत है । विलय का तीन या चार विषयों से क्या सम्बध है ? राज्य के शासक द्वारा विलय पत्र पर २६ अक्तूबर १९४७ को हस्ताक्षर कर देने और उस समय के गवर्नर जनरल द्वारा इसको अधिसूचित कर देने के वाद विलय का प्रश्न तो समाप्त हो गया । जम्मू कश्मीर भी उसी प्रकार भारत का हिस्सा हो गई जिस प्रकार पटियाला , ग्वालियर या जयपुर इत्यादि । अब भारत की सांविधानिक व्यवस्था में कौन कौन से क़ानून केन्द्र सरकार बनायेगी और कौन से राज्य सरकार बनायेगी , इस का सम्बध सांविधानिक व्यवस्था से है । ये विषय समयानुसार और राज्यानुसार बदलते रहते हैं । केवल जम्मू कश्मीर के लिये ही नहीं , भारत के सभी राज्यों के लिये । उमर की दिक़्क़त यह है कि वे विलय और विषय को परस्पर सम्बधित करके सोचते हैं । लेकिन इसमें उनका कोई दोष नहीं है । यह उनके दादा शेख अब्दुल्ला के समय से चली आ रही उनकी ख़ानदानी परम्परा है । 
                बक़ौल उमर , कश्मीर समस्या का एक बाहरी पहलू भी है । उनका कहना है कि यह पाकिस्तान के साथ बैठ कर ही सुलझाया जा सकता है । बैसे उन्होंने स्पष्ट तो नहीं कहा लेकिन , लेकिन भाव यही था कि पाकिस्तान भी इसमें एक पक्ष है । उमर से पूछा जा सकता है कि पाकिस्तान किस दृष्टि से पक्ष है ? रियासत का विलय करने का वैधानिक हक़ महाराजा के पास था , जिसका प्रयोग करके उन्होंने रियासत को भारत में मिला दिया । इस स्थिति को सुरक्षा परिषद ने ही नहीं , पाकिस्तान के उस समय के गवर्नर जनरल जिन्ना ने भी स्वीकार किया था । जिन्ना भी बार बार कहते थे कि रियासत के विलय का अधिकार केवल महाराजा हरि सिंह के पास ही है । उमर ने भारत सरकार अधिनियम १९३५ और भारत स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ तो ज़रुर पढ़े होंगे । उनको एक बार फिर पढ़ लेने चाहिये । पढ़ने से नुक़सान नहीं होता । विधान सभा में भाषण करने में सहायता ही मिलती है । इन में , किसी भी रियासत के नई संविधानिक व्यवस्था में शामिल होने का तरीका बताया गया है और महाराजा हरि सिंह ने उसी का पालन किया था । इस सब के बाबजूद भी यदि वे पाकिस्तान को जम्मू कश्मीर के मामले में एक पक्ष मानते हैं तो यह निश्चय ही चिन्ताजनक है । 
                    अलबत्ता पाकिस्तान एक और नजरिये से इसमें एक पक्ष है , जिसे स्वीकार लेना चाहिये । परन्तु उमर ने शायद जानबूझकर कर उसका ज़िक्र नहीं किया । पाकिस्तान ने जम्मू संभाग के कुछ भूभाग , मुज्जफराबाद , कारगिल तहसील को छोड़ कर पूरे बलतीस्तान और गिलगित पर १९४७-४८ में बलपूर्वक क़ब्ज़ा कर लिया था । ये सभी क्षेत्र जम्मू कश्मीर राज्य के ही अटूट अंग हैं । इनको पाकिस्तान से छुड़ाना ही कश्मीर समस्या का वह हिस्सा है , जिससे पाकिस्तान सम्बधित है । उमर के इस भाषण से दस दिन पहले ही १५ मार्च को संसद ने ये क्षेत्र पाकिस्तान से वापिस लेने का संकल्प पारित किया था । लेकिन इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये की उमर बाबू ने उसका ज़िक्र नहीं किया । इसके विपरीत आभास तो ऐसा होता है मानों उमर पाकिस्तान की ओर से उस प्रस्ताव का उत्तर दे रहे हों । दरअसल शेख परिवार की अपनी समस्या है । जब भी उनका घाटी में प्रभाव घटने लगता है तो वे , ये अप्रासंगिक मुद्दे उठाना शुरु कर देते हैं । शेख अब्दुल्ला जब अपने पहले शासन काल (१९५८-१९५३) के साल भर भीतर ही अपनी तानाशाही और नाजीवादी शासन पद्धति के कारण अलोकप्रिय होने लगे थे तो उन्होंे भी तुरन्त "तीन विषयों" की माला जपनी शुरु कर दी थी । शेख परिवार इस मुद्दे का उपयोग कश्मीर घाटी में घटते प्रभाव के समय जनता को नशा देने के अर्थों में करता है । उमर भी उसी परम्परा को निबाह रहे हैं , लेकिन शायद वे यह भूल गये हैं कि कश्मीरी समाज , बार बार दिये जाने के कारण अब नशे की इन गोलियों को बख़ूबी पहचान गया है । 

विलय का अर्थ क्या है ? --- इन सब प्रश्नों पर चर्चा करने के लिये ज़रुरी है कि जम्मू कश्मीर के भारत में विलय का अर्थ क्या है , इसको समझ लिया जाये । दरअसल यह शब्दावली ही अपने आप में भ्रम पैदा करनेवाली है और इसी के कारण देश भर में अनावश्यक भ्रम फैलता है । जब हम "जम्मू कश्मीर २६ अक्तूबर को भारत में शामिल हो गया" ऐसा लिखते पढ़ते हैं तो ऐसा आभास होता है कि जम्मू कश्मीर एक अलग देश था जो २६ अक्तूबर को भारत में शामिल हुआ था । इस भ्रम को फैलाने में एक और कारक भी सहायक हो जाता है । वह है भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम १९४७ , जिसमें लिखा गया है कि १५ अगस्त १९४७ से रियासतों पर से ब्रिटिश सरकार का अधिराजत्व समाप्त हो जायेगा । तुरन्त इसका अर्थ निकाल लिया जाता है कि १५ अगस्त के बाद वे स्वतंत्र देश बन गये थे । ये दोनों अवधारणाएँ फैलाने में कुछ सीमा तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद का भी हाथ रहा । 
       दरअसल भारत की सभी रियासतें अंग्रेज़ी शासन के समय भी स्वतंत्र देश नहीं थीं , जिनके साथ ब्रिटिश सरकार ने कोई संधियाँ की हों । ये रियासतें समग्र भारत का ही हिस्सा थीं । इसीलिये अंग्रेज़ी शासनकाल में भी इन्हें अलग देश नहीं माना जाता था , बल्कि इन्हें भारतीय रियासतें ही कहा जाता था । अंग्रेज़ों ने जब भारत पर क़ब्ज़ा करना शुरु किया तो अपनी सुविधा और रणनीति के तहत अलग अलग स्थानों पर कब्जा करने के लिये अलग अलग तरीक़े इस्तेमाल किये । कुछ हिस्सों  में , वहाँ के शासक को शस्त्र बल से जीत लिया और कुछ हिस्सों में वहाँ के शासकों से संधियाँ करके उन्हें अप्रत्यक्ष रुप से अपने नियंत्रण में कर लिया और कहीं कहीं , लार्ड डलहौज़ी के समय में "शासक नि:स्संतान मरे तो रियासत अंग्रेज़ों के अधीन हो जायेगी" की नीति का पालन करते हुये क़ब्ज़ा जमाया । इस प्रकार १९४७ से पहले भारत की प्रशासकीय इकाइयाँ दो प्रकार की थीं । कुछ को प्रान्त /ब्रिटिश प्रान्त कहा जाता था और कुछ को रियासत कहा जाता था । अंग्रेज़ी भाषा में इन्हें प्रोविन्स और स्टेटस कहा जाता था ।  भारतीय रियासतों में और प्रान्तों में शासन पद्धति भी अलग अलग थी । स्वतंत्रता के लिये लड़ाई सारे भारत में समान रुप से लड़ी जा रही थी । चाहे वे रियासतें थीं , चाहे भारत सरकार अधिनियमों के अन्तर्गत शासित किये जा रहे अन्य प्रान्त थे । रियासतों में स्वतंत्रता की यह लड़ाई मोटे तौर पर प्रजा मंडल लड़ रहे थे और शेष भारत में यह लड़ाई कांग्रेस लड़ रही थी । लेकिन दोनों में आपसी तालमेल भी बना हुआ था । क्रान्तिकारी दल भी थे जो स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे । मोटे तौर पर यह लड़ाई अंग्रेज़ों को भगा कर प्रान्तों में और रियासतों में एक समान शासन पद्धति , जिसका आधार लोकतंत्र हो , स्थापित करने के लिये थी । १५ अगस्त १९४७ से पहले , अंग्रेज़ी सरकार द्वारा सत्ता भारतीयों को सौंप देने और क्राऊन का अधिराजत्व रियासतों पर से समाप्त हो जाने के बाबजूद रियासतें , व्यावहारिक रुप में स्वतंत्र देश नहीं बन जायेंगी , ऐसा लार्ड मांऊँटबेटन ने भी सभी राजाओं को स्पष्ट कर दिया था । 
                   पाकिस्तान भारत से टूट कर नया देश बना था । इस नये देश की सीमा रेडीक्लिफ आयोग ने तय कर दी थी । इस सीमा के अन्दर जो भारतीय रियासतें आती थीं , वे भी इस नये देश का हिस्सा बन गईं । जम्मू कश्मीर रियासत इस सीमा के अन्दर नहीं आती थी । शेष रियासतें , जिनमें जम्मू कश्मीर भी शामिल था , भारत का ही हिस्सा थीं । अंग्रेज़ों ने एक शरारत ज़रुर की । उन्होंने भारत स्वतंत्रता अधिनियम में यह दर्ज कर दिया कि रियासतें भारत या पाकिस्तान , दोनों में से किसी के साथ मिल सकती हैं । नये बने पाकिस्तान के भीतर आ गई रियासतें भला भारत में , यदि मिलना भी चाहतीं , तो कैसे मिल सकती थीं ? व्यावहारिक रुप से नये बने पाकिस्तान में रियासतों की संख्या बैसे भी उँगलियों पर गिनने लायक थी और उनमें से किसी के भारत में शामिल होने की नौबत नहीं आयेगी , ऐसा अंग्रेज़ सरकार भी जानती थी । इस लिये यह प्रावधान उसने भारत में अराजकता फैलाने के लिये ही किया था । अंग्रेज़ सरकार को लगता था कि भारत की पाँच सौ से भी ज़्यादा रियासतों में से यदि कुछेक भी स्वतंत्रता या पाकिस्तान में जाने का राग अलापना शुरु कर देंगी , तो भारत के लिये मुसीबत खड़ी हो जायेगी । भोपाल , जूनागढ , जोधपुर, हैदराबाद और राजस्थान की कुछ अन्य रियासतों ने ऐसे प्रयास किये भी लेकिन सरदार पटेल के नेतृत्व में भारत सरकार के रियासती मंत्रालय ने इसकी अनुमति नहीं दी । लेकिन जम्मू कश्मीर रियासत ने तो ऐसा भी कुछ नहीं किया था । उसने दूसरी रियासतों की तरह भारत सरकार अधिनियम १९३५ की धारा छह के अन्तर्गत २६ अक्तूबर १९४७ को स्वयं  के भारत का अंग होने की पुष्टी कर दी । इस का अर्थ केवल इतना ही था कि रियासत उस प्रशासकीय व्यवस्था का अंग बनेगी , जो व्यवस्था सारे देश पर लागू होने जा रही है । किन किन विषयों पर इन सभी रियासतों में एक समान शासन व्यवस्था लागू होगी , इसका निर्णय रियासत ने नहीं किया था , बल्कि भारत सरकार ने किया था कि विदेशी मामले , संचार और सुरक्षा को लेकर बनाई जा रही व्यवस्था सभी रियासतों में समान रुप से लागू होगी । यह भी ध्यान रखना चाहिये कि नये संविधान ने भारत का गठन नहीं किया । भारत तो युगों युगों से चला आ रहा है । संविधान ने देश के अलग अलग हिस्सों , जिनमें रियासतें भी शामिल थीं , में प्रचलित अलग अलग शासन व्यवस्थाओं को समाप्त कर , सारे भारत पर एक समान शासन व्यवस्था लागू कर दी । इसलिये यह कहना की रियासतें भारत में शामिल हो गईं , ठीक नहीं है । रियासतें तो पहले ही भारत का हिस्सा थीं , अब उन्होंने पुरानी शासन व्यवस्था के स्थान पर नई शासन व्यवस्था स्वीकार कर ली थी । यही स्थिति जम्मू कश्मीर के साथ थी । 

भारत सरकार अधिनियम १९३५ के प्रावधान-----जिस भारत सरकार अधिनियम १९३५ के अन्तर्गत जम्मू कश्मीर रियासत ने नई प्रशासनिक व्यवस्था स्वीकार की थी , उस अधिनियम में यह निर्णय लेने का अधिकार केवल रियासत के शासक को था । उसमें शेख अब्दुल्ला या उनकी नैशनल कान्फ्रेंस की कोई वैधानिक भूमिका नहीं थी । शासक को भी एक बार निर्णय लेकर बाद में उसे पलटने का अधिकार नहीं था । भारत के गवर्नर जनरल के पास भी इस सम्बद्ध में सीमित अधिकार ही था । उसे केवल महाराजा की विलय की घोषणा को अधिसूचित करना मात्र था । उस पर कोई शर्त लगाने का अधिकार उसके पास नहीं था । १९४७ में जब महाराजा ने रियासत को भी नई व्यवस्था का हिस्सा बनाया तो रियासत की जनता भी उनके इस निर्णय की समर्थक थी । जम्मू , लद्दाख संभागों के अतिरिक्त कश्मीर घाटी के लोगों ने भी इसमें अपनी सहमति व्यक्त की थी । शेख अब्दुल्ला का रियासत की नई व्यवस्था का समर्थन व्यक्तिगत नहीं था , वे कश्मीर घाटी के लोगों की इच्छा की अभिव्यक्ति ही कर रहे थे । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि कश्मीर के लोग इसलिये इस नई व्यवस्था के समर्थक नहीं थे , क्योंकि शेख उसका समर्थन कर रहे थे , बल्कि शेख इसलिये नई व्यवस्था के पक्षधर थे क्योंकि कश्मीर घाटी के लोग इस के पक्ष में थे । 

जम्मू कश्मीर में भारतीय संघीय संविधान का लागू होना-- २६ जनवरी १९५० से पूर्व भारत की सभी रियासतों ने , जो संघीय संविधान में "ख" भाग के राज्य थे , संघीय संविधान को स्वीकार किया । उस का तरीक़ा यह था कि राज्य के राजप्रमुख ने एक अधिसूचना जारी कर यह स्वीकृति दी । जम्मू कश्मीर भी "ख" भाग का राज्य था , इसलिये वहाँ के राजप्रमुख ने भी संघीय संविधान को राज्य में स्वीकृति दी । जम्मू् कश्मीर में क्योंकि स्थिति सामान्य नहीं थी , इसलिये वहाँ संघीय संविधान के लागू करने के लिये संविधान ने एक अतिरिक्त अस्थायी प्रक्रिया धारा ३७० के रुप में भी निर्धारित कर रखी थी । जनता की राय , जिसकी आम तौर पर चर्चा होती रहती है , उसका अभिप्राय इतना ही था कि राज्य में लोगों की इच्छा से लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित की जायेगी । इसमें कोई भी शक नहीं कि आज उमर अब्दुल्ला उसी व्यवस्था के कारण राज्य के मुख्यमंत्री हैं । 
                 रही बात जम्मू कश्मीर की आन्तरिक समस्या की , तो उसे उठाने से उमर अब्दुल्ला को कौन रोक रहा है ? आन्तरिक समस्याएँ तो सभी राज्य उठाते ही रहते हैं । अभी पिछले दिनों नीतिशास्त्र कुमार बिहार को विशेष आर्थिंक राज्य का दर्जा पाने के लिये दिल्ली के राम लीला मैदान मैं आये थे । पंजाब भी अपनी आन्तरिक समस्या को उठाता रहता है । लेकिन यदि उमर ये चाहते हैं कि जब भी नैशनल कान्फ्रेंस सत्ता के बाहर होती है तो , उसका बाद राज्य में जो घटित होता है , उसे निरस्त कर दिया जाये , यह तो फासीवादी सोच ही मानी जायेगी । उमर को लगता है कि जम्मू कश्मीर में समय का चक्र नैशनल कान्फ्रेंस के सत्ता पर आने पर चलना शुरु हो और उसके सत्ता से बाहर होने पर चलना बंद हो जाये , यह कैसे संभव है ? यह सोच ही तानाशाही है । राज्य में पी डी पी की सरकार बन सकती है , कांग्रेस की बन सकती है , अभी जैसी चली हुई हैं ऐसी साँझा सरकारें बन सकती हैं , भाजपा की भी सरकार बन सकती है , लेकिन कोई भी सरकार बनेगी वह बनेगी तो जनता की राय से ही । नैशनल कान्फ्रेंस को स्वयं को कश्मीर घाटी के लोगों का पर्यायवाची मानना बंद कर देना चाहिये । क्योंकि यह सच नहीं है और साथ ही यह भी सच नहीं है कि कश्मीर घाटी ही जम्मू कश्मीर राज्य है । जिस दिन सुबरा का यह अब्दुल्ला वंश यह बात समझ जायेगा , उस दिन सब समस्याएँ अपने आप हल हो जायेंगीं । 
                               यह सभी राजनैतिक दलों की बीमारी है कि यदि उन को प्राप्त मतों का प्रतिशत एक से भी कम हो तब भी वे जो कुछ कहते सुनते हैं , वह जनता के नाम पर ही कहते हैं । सी पी एम को पूरे देश में कितनी वोटों मिलती हैं , यह बताने की ज़रुरत नहीं है , लेकिन फिर भी वे अपना कथन देश की एक सौ बीस करोड़ जनता के नाम पर ही रखते हैं । नैशनल कान्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला , उन के चाचा कमाल अब्दुल्ला यदि बीच बीच में इस प्रकार की बातें करते हैं तो उसका कारण भी राज्य की जनता की इच्छा ही बतायेंगे । लेकिन एक बात अजीब है । कांग्रेस और नैशनल कान्फ्रेंस का रिश्ता १९४७ से ही चला हुआ है । नेहरु शेख को जेल में भी रखते थे , लेकिन छूटने पर रहते वे फिर नेहरु के घर में ही थे । आज २०१३ में भी यह रिश्ता बदस्तूर जारी है । लेकिन जब दोनों की लोकप्रियता में कमी दिखाई देती है तो विलय का प्रश्न उठा दिया जाता है । शेख ने १९४९ में कश्मीर घाटी में घटती लोकप्रियता को ध्यान में रखकर जो सूत्र इस्तेमाल करना शुरु किया था , आज वही उमर कर रहे हैं । उस वक़्त नेहरु शेख का खुल कर साथ दे रहे थे , आज कांग्रेस चुप रहकर नैशनल कान्फ्रेंस की सरकार चला कर साथ दे रही है ।

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