मुज़फ्फ़र नगर का एक सच यह भी…

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Jat leader foldind his hands in Panchayatexcusing with Muslims in Panchayat
तनवीर जाफ़री
पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मुज़फ्फरनगर जि़ला पिछले दिनों जाट व मुस्लिम समुदाय के मध्य हुए संघर्ष के परिणामस्वरूप धधक उठा। इन दोनों समुदायों के युवक व युवती के मध्य छेड़छाड़ जैसे प्रकरण से भडक़ी हिंसा में मुज़फ्फरनगर व आसपास के क्षेत्रों में दर्जनों लोग हिंसा की भेंट चढ़ गए। इस हिंसा में जहां मुस्लिम बाहुल्य इलाक़ा था वहां जाट समुदाय के लोगों को जान व माल का नुक़सान उठाना पड़ा तथा जिन-जिन हिंसाग्रस्त गांवों में जाट बहुसंख्या में थे वहां मुस्लिम समुदाय के लोगों को जान व माल की क्षति का सामना करना पड़ा। व्यक्तिगत् स्तर पर शुरु होने वाली इस हिंसा को सांप्रदायिक हिंसा का रूप देने में तथा अब तक इस मुद्दे पर राजनीति करने वालों ने मुज़फ्फरनगर की घटना को तिल का ताड़ बनाने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी है। लगभग प्रत्येक राजनैतिक दल इस सांप्रदायिक हिंसा व तनाव पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने के प्रयासों में लगा हुआ है। मुस्लिम समुदाय के लोगों में यह कहकर दहशत फैलाई जा रही है कि यह दूसरे गुजरात का एक ट्रेलर मात्र है तो हिंदू समुदाय को यह समझाने का प्रयास किया जा रहा है कि इस्लाम व मुसलमान उनके, देश के तथा इस क्षेत्र के लिए सबसे बड़ा ख़तरा हैं। गोया राजनीति के महारथी इसानों को इंसानों से लड़ाने तथा उनमें स्थाई फ़ासला बनाए रखने में कोई कसर छोडऩा नहीं चाह रहे हैं। संक्षेप में यह कहा जाए कि देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप तथा धर्मनिरपेक्ष संविधान को धत्ता बताकर अपनी कल्पनाओं के कट्टरवादी राज्य की ज़मीन तैयार की जा रही है। परंतु क्या भारत जैसे प्राचीन धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में इस बात की कल्पना की जा सकती है कि कभी यहां का पूरा का पूरा हिंदू या पूरी की पूरी मुस्लिम आबादी भारत के धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी सिद्धांतों से विमुख हो जाएगी? क्या पूरे भारत का हिंदू केवल हिंदू और मुसलमान केवल मुसलमान ही होकर रह जाएगा? उसके भीतर की इंसानियत क्या पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी?
यदि हम अपने देश के सांप्रदायिक हिंसा के इतिहास पर नज़र डालें तो हमें यही देखने को मिलेगा कि अब तक कि सबसे बड़ी सांप्रदायिक हिंसा तथा सबसे बड़े पैमाने पर होने वाले जान व माल का नुक़सान कराने वाली तथा सबसे व्यापक स्तर पर फैलने वाली हिंसा 1947 में भारत-पाक विभाजन के समय हुई हिंसा को माना जाता है। एक अनुमान के अनुसार इस हिंसा में दस लाख से भी अधिक लोग मौत की आग़ोश में समा गए थे। हिंदू व मुस्लिम दोनों ही समुदायों के लोगों की महिलाओं के साथ भारत व पाक दोनों क्षेत्रों में बहुत ज़ुल्म ढाए गए थे। उस समय होने वाली हिंसा के दौरान देश का बड़ा भाग दंगाग्रस्त हो चुका था। पंरतु इतनी भयानक राष्ट्र विभाजन जैसी ऐतिहासिक त्रासदी व इसमें बड़े पैमाने पर होने वाली धर्म आधारित हिंसा के बावजूद इन्हीं हिंसक घटनाओं के बीच से निकल कर अनेक ऐसे समाचार आए जिनसे यह पता चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति अथवा प्रत्येक समूह या परिवार का हृदय केवल किसी हिंदू या मुसलमान का हृदय मात्र नहीं होता बल्कि उसमें भी कहीं न कहीं एक इंसान का हृदय भी छुपा होता है। 1947 में विभाजन के समय जहां लाखों लोगों ने इधर से उधर व उधर से इधर आकर स्वधर्मी राष्ट्र समझकर एक-दूसरे भू क्षेत्रों में पनाह ली वहीं भारत व पाकिस्तान दोनों ही ओर अनेक हिंदू व मुस्लिम परिवार ऐसे भी थे जिन्हें उनके गांव वालों ने न तो गांव छोडक़र जाने दिया न ही उन्हें हिंसा व अत्याचार की भेंट चढऩे दिया। यह और बात है कि लगभग 65 वर्षों के बाद अब स्थिति और भी गंभीर एवं संवेदनशील होती जा रही है। परंतु लाख हैवानियत बढ़ जाने के बावजूद इंसानियत अभी भी आम लोगों के दिलों में ज़िन्दा है। पंजाब का मलेरकोटला क़स्बा तथा इस जैसे हरियाणा व पंजाब के और कई क्षेत्र इस बात के गवाह हैं कि 1947 में भी हिंदू व मुस्लिम भाईचारे ने उन्हें अपनी मात्रभूमि व जन्मभूमि छोडऩे नहीं दी।
पिछले दिनों मुज़फ्फ़र नगर में भडक़ी सांप्रदायिक हिंसा के बाद यहां का वातावरण भी कुछ ऐसा ही हो चला था। मुज़फ्फरनगर  व उसके आसपास के क्षेत्रों में फैलती जा रही हिंसा को देखकर कोई इसकी तुलना गुजरात दंगों से करता था तो कोई 1947 के हालात याद दिलाने लगा था। इसमें भी कोई शक नहीं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भडक़ी हिंसा का राजनैतिक दलों द्वारा नफ़ा नुक़सान भी तय किया जाने लगा था।हद तो यह है कि राजनैतिक दलों से संबंध रखने वाले नेता,सांसद तथा विधायक जोकि सभी धर्मों के मतों को हासिल कर चुनाव जीतते आ रहे हैं वे भी जनप्रतिनिधि दिखाई देने के बजाए हिंदू व मुसलमानों के प्रतिनिधि नज़र आने लगे थे। इनमें कोई सलाखों के पीछे धकेले जा चुके हैं तो कईयों की तलाश जारी है। जो लोग गिरफ्तार हुए हैं वे अपनी गिरफ्तारी को भी अपने राजनैतिक कैरियर के लिए शुभ संकेत मान रहे हैं। यकीन किया जा सकता है कि दंगों में नामज़द यह सभी धर्मों व दलों के सभी नेता जेल से बाहर आने के बाद अपने सांप्रदायिकतापूर्ण मिशन को और आगे ले जाएंगे तथा धर्म आधारित ध्रुवीकरण से यह लोग हरगिज़ बाज़ नहीं आएंगे। पंरतु क्या सदियों से प्रेम,सद्भाव तथा शांतिपूर्ण वातावरण में मिलजुल कर रहने वाला जाट व मुस्लिम समुदाय इन ओछी मानसिकता व सीमित सोच रखने वाले स्वार्थी तत्वों के बहकावे में भविष्य में भी इतनी आसानी से आ जाएगा? सांप्रदायिकता,वैमनस्य की यह खाई क्या अभी और गहरी होगी? और भविष्य में भी किसी बहाने को लेकर ऐसी ही हिंसा पुन: भडक़ेगी? यदि राजनीतिज्ञों की शंका,उनकी शतरंजी चालों तथा उनकी घडिय़ाली हमदर्दी को देखें तो ऐसा लगता है कि भविष्य में भी इस प्रकार की कोई और घटना तिल से ताड़ का रूप कभी भी धारण कर सकती है। परंतु यदि हम इसी हिंसाग्रस्त क्षेत्र के इन्हीं समुदाय के लोगों के दिलों में झांककर देखें तो हमें कुछ और ही मंज़र दिखाई देगा।
मिसाल के तौर पर मुज़फ्फरनगर जि़ले के शाहपुर थाना क्षेत्र में जाट बाहुल्य आबादी के कुटबा व कुटबी नामक दो पड़ोसी गांवों में भी गत् 8 सितंबर को भीषण हिंसा हुई थी। इस हिंसा में मुस्लिम समुदाय के 8 लोगों की हत्या कर दी गई थी तथा उनके घरों को जलाकर राख कर दिया गया था। इतना ही नहीं बल्कि सांप्रदायिक हिंसा के इस उन्माद ने उन मुस्लिम इबादतगाहों को भी नष्ट कर दिया था जहां हिंदू समुदाय के लोग भी नमाज़ के बाद नमाजि़यों से झाड़-फूंक करवाने के लिए मस्जिदों के द्वारा पर खड़े रहते थे। बहरहाल हिंसा के इस क्षणिक उन्माद ने क्षेत्र के प्रत्येक जाट को हिंदू बना डाला था तथा यहां का प्रत्येक मुस्लिम बाशिंदा उन्हें अपना दुश्मन नज़र आने लगा। परिणामस्वरूप मुस्लिम समुदाय के लोग अपनी जानें बचाकर गांव छोडक़र सुरक्षित मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में सहायता शिविरों में चले गए। लगभग दो सप्ताह बीत जाने के बाद गत् 19 सितंबर गुरुवार को जब मुस्लिम समुदाय के कुछ लोग ट्रैक्टर व ट्रक लेकर सेना की गश्त के दौरान अपना बचा-खुचा सामान उठाने कुटबी गांव पहुंचे तो यहां के जाटों ने उन्हें अपना सामान उठाने नहीं दिया। आर्थिक रूप से संपन्न दबंग जाटों ने इस गांव में आनन-फ़ानन में पूरे गांव की एक पंचायत बुला ली। उस भरी पंचायत में सभी वक्ताओं ने मुसलमानों से अपना सामान न उठाने तथा गांव न छोडक़र जाने की अपील की। इत्तेफाक से मौके पर मौजूद बीबीसी के एक संवाददाता दिलनवाज़ पाशा ने पंचायत में दिए जा रहे एक जि़म्मेदार व असरदार बुज़ुर्ग जाट चौधरी बलदार सिंह के भाषण को इन शब्दों में सुना- ‘मैं पूरे गांव से सलाह कर के आप(मुसलमान)भाईयों से प्रार्थना करता हूं कि हम आपके साथ रहेंगे और आपकी पूरी हिफ़ाज़त करेंगे। पूरा गांव आपकी हिफाज़त करेगा और आगे कभी भी कुछ भी गलत नहीं होगा। हम आपको गांव से जाने नहीं देंगे। अगर आप जाएंगे तो हम भी आपके साथ ही जाएंगे। चौधरी बलदार ने आगे कहा कि ‘अगर तुम ज़िन्दा उतरोगे (जाओगे) इस गांव से तो हमारी लाशों पर से उतरोगे। हम लेट रहे हैं तुम हमारे ऊपर से ट्रक लेकर उतर जाओ (चले जाओ)। पूरा भाईचारा नू का नू(यूं)ही रहेगा। हमें पता नहीं था कि ऐसा होगा। हम धोखे में थे। जो हो गया सो हो गया। उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमानों को हुए संपत्ति व माली नुक़्सान की पूरी भरपाई गांव के लोग मिलकर करेंगे। पंचायत के इस रुख़ के बाद कल तक के सांप्रदायिक दंगों में सक्रिय भूमिका निभाने वाले जाट युवकों ने अपने ही हाथों से मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा ट्रैक्टर व ट्रक पर रखा जाने वाला सामान वापस उतारना शुरु कर दिया।
इस पंचायत में मुस्लिम समुदाय के लोग जो अपना सामान उठाने व गांव छोडऩे की गरज़ से संभवत: आख़िरी बार अपने पुश्तैनी गांव आए थे उन्होंने भी पारंपरिक सद्भाव को बनाए रखने तथा भेदभाव को समाप्त करने की ज़रूरत महसूस की। ऐसे समाचार निश्चित रूप से देश की एकता,अखंडता व सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए सकारात्मक संदेश देते हैं। यह घटना इस बात का भी प्रमाण है कि धर्मनिरपेक्षता कोई आडंबर या बनावटी चीज़ नहीं बल्कि प्रत्येक भारतवासी की रग-रग में बसने वाला वह सत्य है जो कभी मलेरकोटला के रूप में दिखाई देता है तो कभी इसकी पुनरावृति कुटबा-कुटबी गांव में होती नज़र आती है। यदि प्रत्येक भारतवासी प्रत्येक धर्म व संप्रदाय के लोगों को इसी प्रकार अपनत्व तथा मान-सम्मान की नज़रों से देखने लगे तो सांप्रदायिकता के नाम पर सत्ता की तलाश में जुटी सांप्रदायिक ताक़तों को अपने-आप ही हमेशा माक़ूल जवाब मिलता रहेगा।

3 COMMENTS

  1. भाई तनवीर जी, बेहतर होता की ये उदाहरण बलदार सिंह की बजाय किसी मुस्लिम समाज के व्यक्ति का होता.क्योंकि हिन्दू तो स्वाभाव से ही उदार और पंथ निरपेक्ष होता है.

  2. भाई तनवीर जी, चोधरी बलदार सिंह का जो उदहारण आपने दिया उसमे कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है.हिन्दू का स्वाभाव ही ऐसा है.बेहतर तो तब होता जब ऐसा कोई उदहारण किसी मुस्लिम समाज के व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत किया जाता.हिन्दुओं को धर्मनिरपेक्षता समझाने से अच्छा है की मुस्लिम समाज के उन बिगड़े हुए लड़कों को समझाओ जो लड़कियों से छेड़छाड़ करके पुरे क्षेत्र के वातावरण को विषाक्त कर रहे हैं. आपने अपने लेख में एक शब्द भी इस लविंग जिहाद के विरुद्ध नहीं लिखा है, इसे क्या समझा जाये?एक बात सबको समझ लेनी चाहिए की समाज में सौहार्द कायम रखने की जिम्मेदारी केवल किसी एक पक्ष की नहीं है.सभी को इसे समझना होगा.१९८२ में मेरठ में एक शिव मंदिर के मुद्दे को लेकर शाहघासा में सांप्रदायिक झगडा हुआ था जो कई दिन तक चला था. उस समय मरहूम जनरल शाहनवाज खान,जो पूर्व केन्द्रीय मंत्री थे, ने स्व.श्रीमती इंदिरा गाँधी को एक पात्र लिखा था जिसके उत्तर में इंदिरा जी ने लिखा था की आपस में सौहार्द बनाये रखने की जिम्मेदारी दोनों की है.और दोनों समुदायों को एक दुसरे की संवेदनाओं को समझना चाहिए.उन्होंने ये भी लिखा था की जब वो छोटी थीं तो उनके घर आनंद भवन में डॉ.महमूद आया करते थे जो बताते थे की भारत के बहार यहाँ के मुसलमानों को भी हिन्दू ही कहा जाता है.इस बात के अर्थ को समझना और महसूस करना महत्वपूर्ण है.चाहे किसी भी मत,पंथ या सम्प्रदाय को मानें लेकिन इस देश से प्रेम करने वाले सभी लोग हिन्दू ही हैं.वो इसापंथी या मुहम्मद्पंथी हिन्दू हो सकते हैं.

  3. कुछ मिनट का उन्माद सदियों के इतिहास को काला बना देता है
    ,वही उन्माद उन क्षणों के साथ, सदियों के लिए दर्द दे जाता है.
    नहीं जानते उन्माद फ़ैलाने वाले,पलों की सजा ये सदियाँ भुगतेंगी,
    दुनिया से चले जायेंगे,ये तो बिन जाने,की समाज की गति उसे कहाँ गर्त में ले जाएगी.

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