ओ पी सोनिक
भारत की शिक्षा व्यवस्था प्राचीन काल से ही एकलव्य केन्द्रित रही है। भले ही किसी भी रूप में। आजाद भारत की बात करें तो एकलव्य की उपस्थिति सरकारी योजनाओं में भी झलकती है। संवैधानिक तौर पर देखें तो शिक्षा राज्यों का विषय है, पर शिक्षा सभी वंचितों तक पहुॅंचे, इसके लिए केन्द्रीय सरकार के कई योजनागत प्रयास जारी हैं। एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालयों की स्थापना एवं संचालन की योजना ऐसे ही प्रयासों में से एक है। गत 21 अगस्त को संसद के मानसून सत्र में केन्द्रीय जनजाति कार्य राज्य मंत्री द्वारा पेश आंकड़ों को एकलव्य विद्यालयों की प्रगति रिपोर्ट के रूप में देखा जा सकता है। केन्द्रीय सरकार ने वर्ष 1997-98 में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में शैक्षणिक विकास के लिए एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालयों की शुरूआत की थी। जिनमें छात्र केन्द्रित कल्याण योजनाओं के तहत बच्चों को 100 प्रतिशत निःशुल्क शिक्षा, आवास, भोजन, सह-पाठ्यचर्या गतिविधियाॅं, खेलकूद, और कैरियर मार्गदर्शन के प्रावधान किए गए। ताकि एकलव्य विद्यालयों को भी जवाहर नवोदय विद्यालयों की तरह उत्कृष्ट शिक्षा के केन्द्र बनाया जा सके।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013-14 तक देश में कुल 123 एकलव्य माॅडल आवासीय विद्यालय क्रियाशील थे। 31 जुलाई 2025 की स्थिति के अनुसार पिछले 11 वर्षों में एकलव्य विद्यालयों की स्थापना एवं संचालन में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। सरकार द्वारा कुल 722 विद्यालय स्वीकृत एकलव्य विद्यालयों में से 485 विद्यालय संचालित हैं। अन्य विद्यालय निर्माणाधीन हैं। सरकार ने स्वीकृत विद्यालयों की निर्माण लागत की धनराशि को वर्ष 2021-22 में मैदानी क्षेत्रों में 20 करोड़ से बढ़ाकर करीब 38 करोड़ और पहाड़ी क्षेत्रों में 24 करोड़ से बढ़ाकर 48 करोड़ कर दिया। विद्यालयांे की स्थापना एवं संचालन हेतु केन्द्रीय सरकार ने वर्ष 2021-22 में 92239 लाख की धनराशि जारी की थी, जो वर्ष 2024-25 में करीब पाॅंच गुना बढ़कर 461079 लाख हो गयी। आर्थिक आंकड़ों को देखें तो लगता है कि सरकार एकलव्य विद्यालयों के लिए खुले हाथ से खर्च कर रही है। पर योजनाओं की सफलता का आंकलन केवल जारी धनराशि के आधार पर नहीं किया जा सकता। योजनाओं को सफलताओं के मुकाम तक पहॅंुचाने में सही क्रियान्वयन की मुख्य भूमिका होती है।
जिस तरह से एकलव्य विद्यालयों के लिए जारी धनराशि में वृद्धि हो रही है, लगभग उसी अनुपात में एकलव्य विद्यालयों में बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ रही है। वर्ष 2021-22 से वर्ष 2024-25 के बीच ड्राॅप आडट बच्चों की संख्या में भी पाॅंच गुना वृद्धि हुई है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की संख्या वर्ष 2021-22 में 111 थी जो वर्ष 2024-25 में बढ़कर 552 हो गयी। वर्ष 2024-25 में जिन राज्यों में बीच में ड्राॅप आउट बच्चों की संख्या ज्यादा रही, उनमें से छत्तीसगढ में सबसे ज्यादा 88़, उड़ीसा 87, मध्य प्रदेश 71, महाराष्ट्र 68, आंध्र प्रदेश 66, राजस्थान 45, और तेलंगाना में 37 बच्चों ने बीच में ही पढ़ाई छोड़ दी।
एकलव्य विद्यालयों में बीच में पढ़ाई छोड़ने के कई कारण होते हैं। गरीबी जिनमें से एक बड़ा कारण है। देश के दूर दराज के ग्रामीण अंचलों में अनुसूचित जनजाति वर्ग के अधिकांश परिवार आज भी गरीबी से जूझ रहे हैं। जिसके कारण उन्हें पहले दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। गरीब परिवारों के लिए पेट की भूख मिटाना उनकी प्राथमिकताओं में प्रथम होता है। यही कारण है कि घोर गरीबी में परिवारों का सहारा बनने वाले बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। एकलव्य विद्यालयों में बच्चों के बढ़ते ड्राप आउट को देखकर लगता है कि मुफ्त मिल रहा राशन भी गरीब परिवारों के बच्चों को शिक्षा की ओर आकर्षित नहीं कर पा रहा है। एकलव्य विद्यालयों में कक्षा 6 से 12 तक के बच्चांे के लिए पढ़ाई की व्यवस्था है, जिनमें प्रत्येक विद्यालय में 480 बच्चों के नामांकन की क्षमता होती है। पर संचालित विद्यालयों और छात्रों के नामांकन की संख्या के अनुपात को देखें, तो ऐसे विद्यालय बहुत ही कम हैं, जिन्होंने 480 के नामांकन के लक्ष्य को पूरा किया है।
बच्चों के नामांकन में लड़के और लड़कियों की बराबर की भागीदारी सुनिश्चित करने का भी प्रावधान है। राष्ट्रीय आदिवासी छात्र शिक्षा समिति की वेबसाइट से पता चलता है कि आंध्र प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में नामांकित विद्यार्थियों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या ज्यादा है। अन्य राज्य लैंगिक समानता के लक्ष्य को छू नहीं पाए हैं। राष्ट्रीय आदिवासी छात्र शिक्षा समिति द्वारा पीवीटीजी यानी विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों के लिए एकलव्य विद्यालयों के कुल नामांकन में 5 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है, ताकि कमजोर से कमजोर वर्ग का हर बच्चा गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल कर सके। पर पूरे देश में केवल चार राज्यों आंध्र प्रदेश, केरल, तमिलनाडू, और त्रिपुरा ने ही नामांकन में 5 प्रतिशत आरक्षण के लक्ष्य को हासिल कर पाए हंै। आंध्र प्रदेश ने करीब 19 प्रतिशत और त्रिपुरा ने 10 प्रतिशत नामांकन करके अनुसूचित जनजातीयों की शिक्षा के प्रति प्रबल इच्छाशक्ति का परिचय दिया है। अन्य सभी राज्य एवं केन्द्र शासित प्रदेश लक्ष्य से काफी पीछे हैं। नामांकन में राज्यों का पिछड़ापन अनुसूचित जनजातीय वर्गों के प्रति राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को दर्शाता है।
अनुसूचित जनजाति वर्ग के जो बच्चे पाॅंचवीं तक के अन्य सरकारी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, जाहिर है कि वो आगे की पढ़ाई जारी रखना चाहते हैं। एकलव्य विद्यालय में अपेक्षाकृत शैक्षणिक सुविधाएं अधिक होती हैं। प्राथमिक सरकारी विद्यालयों के स्तर पर जागरूकता बढ़ाकर एकलव्य विद्यालय में छात्रों के नामांकन में वृद्धि की जा सकती है। तमाम सरकारी कवायदों के बावजूद एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय भी अन्य सरकारी विद्यालयों की तरह शिक्षकों की भारी कमी का सामना कर रहे हैं। मसलन् झारखण्ड में सबसे ज्यादा 76 फीसदी, मणिपुर 60, महाराष्ट्र 48, मिजोरम 48, तमिलनाडू 45, अरूणाचल प्रदेश 39, उत्तराखण्ड 36, जम्मू और कश्मीर 34, हिमाचल प्रदेश 32, और उड़ीसा में 31 फीसदी शैक्षणिक पद रिक्त पड़े हैं। माना कि एकलव्य विद्यालय केन्द्रीय सरकार की शैक्षणिक प्राथमिकताओं में शामिल हैं। पर फिर भी शिक्षकों की कमी को आदर्श स्थिति नहीं माना जा सकता। भारत की राजनीति ने जितना आदिवासी वर्ग को छला है उतना किसी अन्य वर्ग को नहीं छला। भारत में साम्यवादी राजनीति ने आदिवासी युवाओं को हाथों में कलम थमाने के बजाए बंदूकें थमाने के लिए अधिक प्रेरित किया है। राजनीतिक छलावों से मुक्ति के लिए आदिवासी समाज को अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं में बदलाव करना होगा। और वह बदलाव शिक्षा से ही संभव हो पाएगा। एकलव्य विद्यालयों में बच्चों के बढ़ते ड्राप आउट पर पुनर्विचार करना लाजिमी है क्योंकि जब एकलव्य पढ़ेंगे तभी तो विश्वगुरू बनेगा इंडिया।