विपक्ष की लोकतंत्र पर चिंता या सत्तालोभ की राजनीति?

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-ललित गर्ग-

भारतीय लोकतंत्र आज विश्व के सबसे बड़े, जीवंत और जागरूक लोकतंत्रों में गिना जाता है। यह संविधान की मजबूत नींव, संस्थाओं की पारदर्शिता और जनता की जागरूकता से संचालित होता है। परंतु विडंबना यह है कि देश का विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस और उनके नेता राहुल गांधी, बार-बार लोकतंत्र और संविधान पर खतरे की झूठी दुहाई देकर एक अनावश्यक और निरर्थक बहस छेड़ते रहे हैं, वे  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा को घेरने एवं दोषी ठहराने के लिये न केवल उन पर आधारहीन आरोप लगाते रहते हैं, वरन देश की संवैधानिक संस्थाओं, प्रक्रियाओं और संविधान के ही खतरे में होने का राग अलापते हुए उन्हें लांछित करने का प्रयास करते हैं। ऐसेे नेता संविधान की दुहाई देते हैं, वे स्वयं संविधान और कानून की धज्जियां उड़ाते दिखते हैं। लोकतंत्र की आत्मा पर इस तरह का प्रहार विपक्ष की भूमिका पर एक बड़ा प्रश्न है। विडम्बना एवं चिन्ताजनक है कि राहुल गांधी अपनी विदेश यात्राओं में भी मोदी-भाजपा का विरोध करते-करते देश-विरोध पर उतर जाते हैं, जिससे विदेशों में भारत की छवि का भारी नुकसान होता है और विदेशियों को लगता था कि भारत में लोकतंत्र और संविधान ढह रहा है।
नेता-प्रतिपक्ष राहुल गांधी एवं उनके सहयोगी जब यह कहते हैं कि ‘देश में लोकतंत्र समाप्त हो गया है’, ‘संविधान खतरे में है’, तब यह केवल एक राजनीतिक शगूफा प्रतीत होता है, न कि कोई तर्कसम्मत आलोचना। यदि वास्तव में लोकतंत्र खतरे में होता, तो क्या वे हर मंच से खुलकर सरकार की आलोचना कर पाते? क्या संसद, मीडिया, चुनाव आयोग, और न्यायपालिका जैसी संस्थाएं उनके वक्तव्यों को स्थान देतीं? असल में तो 1975 में लोकतंत्र एवं संविधान खतरे में आये थे जब तत्कालिन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने अपनी सरकार बचाने हेतु अनुच्छेद 352 के अंतर्गत ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर आपातकाल लगाया तथा लोकतंत्र और संविधान को दरकिनार कर हजारों नेताओं एवं बेगुनाह लोगों को कठोर कानूनों के अंतर्गत जेल भेज दिया। आजादी के बाद तब पहली और आखरी बार लोकतंत्र  खतरे में आया था, तब संविधान भी खतरे में चला गया था। राहुल गांधी अपने गिरेबान में झांकने एवं कांग्रेस के अतीत को देखने की बजाय मोदी-भाजपा पर लोकतंत्र एवं संविधान को खतरे में डालने का बेबुनियाद, भ्रामक एवं आधारहीन आरोप मंढते हैं। इन त्रासद स्थितियों में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि विपक्ष लोकतंत्र की रक्षा नहीं, बल्कि अपने खोए हुए जनाधार को पुनः प्राप्त करने के लिए लोकतंत्र को बदनाम करने का प्रयास कर रहा है। विशेषतः लोकसभा हो या विधानसभा के चुनाव-इनमें जरूरी एवं जनता से जुड़े विषयों को उठाने की बजाय लोकतंत्र एवं संविधान के खतरे में होने के राग से जनता को गुमराह करना आम बात हो गयी है।
देशभर में एवं अनेक राज्यों में बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल और म्यांमार आदि के अवैध घुसपैठियें बड़ी मात्रा में घुस आये हैं। अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिये इन घुसपैठियों को इन विपक्षी दलों की शह पर ही जगह मिल रही है, ये घुसपैठियें न केवल फर्जी तरीकों से आधार, पैन, राशन कार्ड, मतदाता पहचान पत्र आदि दस्तावेज प्राप्त कर कई निर्वाचन क्षेत्रों की मतदाता-सूचियों में अपना नाम अंकित करा लिया है। यह लोकतंत्र, राष्ट्रीय सुरक्षा एवं जनसंख्या संतुलन के लिए गंभीर खतरा है, चुनाव आयोग ने इस पर अपना रुख सख्त करते हुए सभी राज्यों में ‘मतदाता सूचियों के गहन पुनरीक्षण’ का निर्णय लिया है। बिहार में वह ऐसे लोगों की पहचान संबंधी पहल कर चुका है, पर विपक्ष को इस पर आपत्ति है और इसे सर्वाेच्च न्यायालय में चुनौती भी दी। न्यायालय ने आयोग की इस कार्रवाई पर रोक नहीं लगाई।

विपक्ष लम्बे समय से चुनाव आयोग को निशाना बना रहा है, कभी निष्पक्ष मतदान पर तो कभी मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण पर सवाल उठाते रहा है। चूंकि चुनाव ही सत्ता की सीढ़ी है, इसलिए लोकसभा चुनाव में परास्त होने और अनेक राज्यों में अप्रासंगिक होने से चुनाव आयोग पर आरोप तथा लांछन लगाना विपक्ष के लिए काफी आसान हो गया है। कभी वह चुनाव आयुक्तों की नियुक्तियों और निर्णयों पर अंगुली उठाता है, कभी उसे भाजपा के इशारे पर काम करने वाला बताता है, कभी ईवीएम, मतदाता सूची में अनियमितता, डाटा देने में विलंब, दलीय पक्षपात आदि का मुद्दा उठाकर चुनाव आयोग की छवि नष्ट करने का प्रयास करता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण को हरी झंडी देकर विपक्ष की बोलती बंद कर दी।
विपक्ष की भूमिका लोकतंत्र में रचनात्मक आलोचना और वैकल्पिक नीतियों के माध्यम से शासन को दिशा देना होती है। किंतु आज का विपक्ष न तो पाकिस्तान-चीन के खतरनाक मनसूंबों, न गरीबी, न महंगाई, न बेरोजगारी, न सांप्रदायिक सौहार्द, न सीमा पर पड़ोसी देशों की चुनौती, और न ही किसानों, युवाओं और महिलाओं की समस्याओं को लेकर कोई ठोस योजना प्रस्तुत कर पा रहा है और न ही इन बुनियादी मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठा पा रहा है। उनकी राजनीति केवल मोदी और भाजपा विरोध तक सीमित होकर रह गई है। जब राजनीति ‘विकास’ की बजाय ‘विरोध’ पर केंद्रित हो जाए, तो वह जनहित नहीं, केवल सत्ता की भूख बन जाती है।
विपक्षी दल मोदी एवं भाजपा पर लगातार आक्रामक हैं। राहुल गांधी और अन्य दलों के नेता संविधान की प्रति लहराकर यह दिखाने की कोशिश करते हैं जैसे संविधान खतरे में है और उन्हें उसे बचाना है। लेकिन भारत की जनता अब परिपक्व एवं समझदार हो गयी है, उसे अच्छा-बुरे में फर्क दिखता है। भाजपा पर ‘तानाशाही’, ‘संविधान बदलने की साजिश’, ‘जनविरोधी नीतियों’ जैसे आरोप लगाना विपक्ष की आदत बन चुकी है। किंतु हर बार जनता ने चुनाव में स्पष्ट बहुमत देकर इन आरोपों को सिरे से खारिज किया है। जनता जानती है कि ऑपरेशन सिन्दूर, डिजिटल इंडिया, गरीबमुक्त भारत, आत्मनिर्भर भारत, महिला आरक्षण, जी-20 की सफल अध्यक्षता, भ्रष्टाचार पर कार्रवाई, गरीबों के लिए मुफ्त राशन, उन्नत सड़के, चमकती रेल एवं चमकते रेल्वे स्टेशन, घर, शौचालय और जल जैसी योजनाएं सिर्फ नारों से नहीं, संकल्प और समर्पण से संभव हुई हैं।
क्या राहुल गांधी या इंडी गठबंधन के पास कोई ठोस आर्थिक नीति, सुरक्षा रणनीति, या सामाजिक समरसता का ब्लूप्रिंट है? क्या वे यह बता सकते हैं कि वे भारत को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं, या केवल मोदी विरोध को ही नीति मान बैठे हैं? भारतीय जनता राजनीतिक रूप से परिपक्व हो चुकी है। वह अब भावनात्मक और भ्रामक नारों के बजाय ठोस उपलब्धियों और दूरदर्शिता को प्राथमिकता देती है। ऐसे में विपक्ष का यह दुष्प्रचार केवल उनकी साख को ही नुकसान पहुंचा रहा है। विपक्ष को चाहिए कि वह सकारात्मक राजनीति करे, वैकल्पिक नीति प्रस्तुत करे, और जनता के विश्वास को अर्जित करे, न कि लोकतंत्र के अस्तित्व को ही संदेह के घेरे में लाकर अपनी विफलताओं पर पर्दा डाले। राजनीति केवल विरोध नहीं, समाधान का माध्यम होनी चाहिए।

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