जैविक खाद में निहित है किसान की कर्ज मुक्ति का उपाय

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समर्थ परमार

इन दिनों देश में चल रहे किसान आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में कर्ज का मुद्दा सर्वाधिक गंभीर है। किन्तु किसानों की कर्ज मुक्ति सिर्फ कर्ज माफी से संभव नहीं है, बल्कि ऐसे उपायों की जरूरत है, जिससे किसान कर्जदार ही न हो। खेती की लागत कम करके यह संभव किया जा सकता है।

भारत में खेती की लागत बढ़ने की मूल वजह उसे रासायनिक खाद निर्भर बनाना है। यह स्पष्ट है कि रासा​यनिक खाद उद्योगों में तैयार होकर बाजार में आती है और उसे खरीदने के लिए रूपए खर्च करने पड़ते हैं। देश के लघु एवं सीमांत किसानों की क्रयशक्ति इतनी नहीं है कि वह यह खाद आसानी से खरीद सकें। नतीजतन उसे कर्ज लेकर खाद की पूर्ति करनी पड़ती है। हालांकि बीज और कीटनाशक दवाओं के मामले में भी वह बाजार पर निर्भर है। जबकि खाद के मामले में ऐसे विकल्प मौजूद है, जिससे वे रासायनिक खाद से छुटकारा पा सकता है।

यह देखा गया है कि आज लघु और सीमांत ​किसानों के लिए कर्ज के बगैर खेती करना मुश्किल हो गया है। जबकि ज्यादातर किसान महंगे ब्याजदर पर साहूकारों से कर्ज लेने को विवश हैं। कर्ज लेकर खेती करने वाले किसानों की मुसीबत उस समय बढ़ जाती है, जब सूखा, बाढ़ या अन्य प्राकृतिक आपदाओं के कारण उसकी उपज नहीं हो पाती। इस दशा में वह पिछला कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं होता, ज​बकि अगली फसल की खेती के लिए उसके पास पैसे नहीं होते।

पिछले कई सालों से सरकार कर्ज माफी की घोषणा करती आ रही है। किन्तु खेती की लागत कम करने की कोई ठोस नीति अब तक नहीं बनाई गई। इसका मुख्य कारण बाजार और मुनाफे के खेल को बढ़ावा देकर खेती को उस पर निर्भर बनाना। यदि हम देश में रासायनिक खाद के उत्पादन और उपयोग पर नजर डालें तो पिछले करीब दो दशकों में इसमें बहुत बढ़ोतरी हुई है। सन् 1960—61 में देश में रासायनिक खाद का उत्पादन मात्र 150 हजार टन था, जो बढ़कर 2008—09 में 24,909 हजार टन हो गया। यानी पिछले पांच दशकों में इसमें 24759 हजार टन की वृद्धि हुई। जाहिर है कि उत्पादन में यह वृद्धि खाद की खपत में वृद्धि का एक प्रमुख संकेतक है। lu

सन् 1950—51 में रासायनिक खाद की सालाना खपत 70 हजार टन थीं, वहीं 2010—11 में यह बढ़ कर साढ़े पांच करोड़ टन हो गई। खेती में उपयोग की जा रही रासायनिक खाद में आधे से ज्यादा हिस्सा यूरिया का हैं। यूरिया के उपयोग से मिट्टी पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की बात भी सामने आई है। नाइट्रोजन की अधिकता का विपरीत असर पर्यावरण पर भी पडता है। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के आंकड़ों पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि सन् 2004 से लेकर अब तक देश में रासायनिक खाद की खपत में 40 से 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। रासायनिक खाद के उत्पादन के लेकर खपत तक के आंकड़ों की यह प्रगति सहज रूप से नहीं रही, बल्कि इसके ​पीछे राजनैतिक और आर्थिक ताकतों का जोर रहा हैं। क्योंकि पिछले कुछ दशकों में जिस स्तर पर रासायनिक खाद का प्रचार—प्रसार किया गया, उससे किसान बेहद प्रभावित हुए।

मिट्टी की उवर्रकता बढ़ाने के मामले में देश् में जैविक खाद एक पारंपरिक स्रोत रही है। किन्तु यह सरकारी प्रकाशनों में सिर्फ एक उपदेश की तरह शामिल है। जबकि सरकार ने प्रचार—प्रसार की नीतियों में रासायनिक खाद को ही स्थान दिया है। सन् 1977 से लेकर अब तक सरकार यूरिया जैसे रासायनिक खाद पर सब्सिडी देती  आ रही है। इस दशा में किसान जैविक खाद छोड़कर रासायनिक खाद को अपनाने हेतु प्रेरित हुए। आज हालात यह है कि सब्सिडी के बावजूद किसान इस खाद को खरीद पाने की स्थिति में नहीं है।

नाडेप कम्पोस्ट एवं वर्मी कम्पोस्ट जैसे जैविक खाद में नाईट्रोजन से लेकर कई प्रकार के पोषक तत्व होते हैं, जो मिट्टी की उर्वरकता बढ़ाते हैं। किन्तु जैविक खाद की इन पद्यतियों के व्यापक प्रचार — प्रसार की कोई योजना या नीति अब तक सामने नहीं आ पाई। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार यदि जैविक खाद को ही पूरी तरह अपना लिया जाए तो न सिर्फ खेती की लागत कम होगी, बल्कि मिट्टी की उर्वरकता में भी बढ़ोतरी होगी।

देश में चल रहे किसान आंदोलन में भी खेती की लागत कम करने का कोई स्वर सुनाई नहीं  दे रहा है। सरकार से लेकर किसान नेता और राजनैतिक दल सभी कर्ज माफी की बात कर रहे है। जबकि कर्ज माफी एक ऐसा कदम है,​ जिसे अब तक की कोई भी सरकार सफलतापूर्वक लागू नहीं कर पाई है। अत: जैविक खाद के प्रचलन को बढ़ा कर खेती की लागत कम करके किसान को कर्ज के कुचक्र से बचाया जा सकता है।

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