सुंदरगढ जिले के बणेई सबडिविजन के पांच गांव के ग्रामीणों ने माओवाद के खिलाफ बिगुल फूंक दिया है। यह छत्तीसगढ के दक्षिण बस्तर में नक्सलवादियों के खिलाफ शुरु हुआ जन आंदोलन सलवा जुडूम की याद दिलाता है। इन ग्रामीणों ने माओवादियों द्वारा किये जा रहे अत्याचार के विरोध में और प्रशासन द्वारा सुरक्षा मुहैया कराने की मांग को लेकर राष्ट्रीय राजमार्ग को अवरोध कर दिया। यह सामान्य घटना नहीं है। इस घटना को जितना महत्व दिया जाना चाहिए था दुर्भाग्य से उतना नहीं दिया जा रहा है। यह घटना कई संकेत प्रदान करती है। एक तो यह है कि माओवादियों के अत्याचार से लोग त्रस्त हो चुके हैं और अब वे सडकों पर उतरने सा साहस जुटा लिया है। उन्हें पता है कि माओवादियों के खिलाफ जाने से उनका क्या नुकसान हो सकता है। दूसरा स्टेट उस इलाके में पूरी तरह विफल है। स्टेट की विफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ग्रामीणों को सुरक्षा प्रदान करने की मांग को लेकर उन्हें सडकों पर उतरना पडा है। जबकि प्रत्येक व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान करना स्टेट का दायित्व है। लेकिन राज्य प्रशासन कहां अपना दायित्व का निर्वाह कर रहा है।
देश में एक ऐसा वर्ग है जो बार बार माओवादियों के लिए बौद्धिक जुगाली करता है। माओवादियों द्वारा किये जाने वाले हर बर्बर कृत्य को तर्कों के माध्यम से सही ठहराता है। उनके पक्ष में लेख लिखता है, पांच सितारे होटलों में संगोष्ठियां आयोजित करता है, उनके लिए मानवाधिकारों की बात करता है लेकिन आश्चर्यजनक रूप से नक्सलवादियों के हिंसा के शिकार लोगों की मानवाधिकार की बात नहीं करता। यह वर्ग उनके द्वारा किये जा रहे हिंसा को सही ठहराता है। हालांकि इस वर्ग की संख्या बहुत अधिक संख्या में तो नहीं है लेकिन काफी प्रभावी है। इन विद्वानों का कहना होता है कि लोगों का पूंजीपतियों के द्वारा शोषण किया जा रहा है और स्टेट इस कार्य में उनकी सहायता कर रहा है। उनका यह तर्क कुछ हद तक सही हो सकता है। इस वर्ग का कहना होता है कि उसकी प्रतिक्रिया में यह लोग हथियार उठा लेते हैं। लेकिन माओवादी या नक्सलवादी अपने वैचारिक आंदोलन के नाम पर जिस तरह की खुली हिंसा करते हैं, जिस बर्बरता के साथ सामान्य लोगों को सबके सामने पूंजीवादियों के दलाल बता कर विभिन्न अंगों को काट कर हत्या करते हैं उस पर यह विद्वान चुप्पी साध लेते हैं।
माओवादी समानता व शोषणमुत्ता समाज की बातें करते हैं। इन मूल्यों का न कोई विरोध करता है न ही कर सकता है। लेकिन यह माओवाद का ऊपरी चेहरे हैं। इसके भीतर छुपा है माओवादियों का बर्बर चेहरा। तिब्बत के धर्मगुरु दलाई लामा ने अपने आत्मकथा फ्रीडम इन एक्जाइल में इस बात का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा है कि ‘जब वह पहली बार माओ से मिले थे तदो उसके इस विचार व व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हो गये थे। लेकिन जब उन्होंने माओ का असली चेहरा देखा तो वह भयभीत हो गये और माओ के मोहफाश से मुक्त हो गये। ‘
इस घटना से इन विद्नानों के माओवादियों द्वारा शोषितों के लिए कार्य करने संबंधी तर्क की पोल खुल जाती है और इससे यह सिध्दा होता है कि माओवादी एक तरह से एक गिरोह है जो बंदूक के बल पर सबको अपने कब्जे में रखना चाहते हैं , हिंसा के बल पर अपना आधिपत्य जमाना चाहते हैं।
माओवादियों के खिलाफ आवाज उठाना आसान काम नहीं है। इन ग्रामीणों की इस बात की भलीभांति जानकारी होगी कि इसका परिणाम क्या हो सकता है। उनकी जान को भी खतरा हो सकता है। लेकिन इसका फिक्र किये बिना वे माओवादियों के खिलाफ आ गये। लेकिन इन जनजातीय लोगों की सूध लेने के लिए अब किसी मानवाधिकार कार्यकर्ता या कोई अखिल भारतीय दल उस इलाके में नहीं जा रहा है।
दूसरी बात यह है कि स्टेट अपने दायित्व को निभाने में पूरी तरह विफल रही है। वैसे देखा जाए तो माओवादी आंदोलन के बढने के पीछे का रहस्य भी यही है। सुंदरगढ की घटना बस्तर की जंगलों से शुरु हुआ जनआंदोलन सलवा जुडूम की यादों को ताजा कर रहा है। वहां भी दंतेवाडा व बीजापुर के जनजातीय लोग माओवादी अत्याचार के खिलाफ सडकों पर उतरे थे। उस आंदोलन को शुरु हुए पांच साल हो चुके हैं। उस आंदोलन के कारण नक्सलवादी गतिविधियों के कमी आयी है। इस आंदोलन से जुडने वाले कई सौ लोगों को माओवादियों ने मौत के घाट उतार चुके हैं। लेकिन यह आंदोलन थमा नहीं है। अब तक चालीस हजार लोग शरणार्थी शिबिरों में हैं। माओवादियों के समर्थक बुद्धिजीवियों द्वारा सलवा जुडूम आंदोलन को बदनाम करने के लिए अनेक मिथ्या बातें प्रचारित की गई। इसे सरकारी कार्यक्रम बताया गया। लेकिन सलवा जुडूम पर सवाल उठाने वाले विद्नान शायद भूल जाते हैं कि किसी राजनीतिक दल के रैली में कुछ पैसे दे कर लोगों को तो शामिल कराया जा सकता है लेकिन जब इस बात का पता हो कि सलवा जुडूम में शामिल होने से मारे जाने की आशंका है तब कोई भी सरकार उन्हें शामिल नहीं करा सकती।
सुंदरगढ जिले के पांच गांव से शुरु हुआ यह आंदोलन ओडिशा का सलवा जुडूम है। इस आंदोलन के माध्यम से ‘सर्वहारा’ ने पहली बार ‘सर्वहारा’ की पक्ष में लडाई लडने का दावा करने वाले माओवादियों के खिलाफ आवाज उठायी है। लेकिन आवाज उठाने वाले लोगों की राह आसान नहीं होगी। उन पर दो तरफा हमले होंगे। न सिर्फ उनको माओवादियों से जान का खतरो होगा बल्कि माओवादी समर्थक बुद्धिजीवियों के द्वारा उन्हें बुर्जुआ बताया जाएगा। उनके खिलाफ पूरे देश में दुष्प्रचार किया जाएगा कि यह सरकार प्रायोजित आंदोलन है जैसा सलवा जुडूम आंदोलन के बारे में बताया गया। इसमें माओवादियों द्वारा अनेक लोगों को मौत के घाट भी उतारा जाएगा जैसा कि सलवा जुडूम आंदोलन में शामिल सैकडों लोगों को मौत के घाट उतारा जा चुका है। इन तमाम आशंकाओं के बीत यह आशा करनी चाहिए कि पूरे विश्व को रक्तरंजित करने वाली इस वामपंथी हिंसा को रोकने में इन सर्वहारा वर्ग के प्रयास सफल होगी।
-समन्वय नंद
बहुत बढ़िया है !